एक ओर जल संकट से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और दूसरी ओर जिन्हें पर्याप्त मात्रा में जल उपलब्ध है, वे इसका दुरुपयोग कर रहे हैं। यह स्थिति बदलनी होगी, इसके लिए नागरिकों में जागरूकता का स्तर बढ़ाना होगा। परम्परागत जल संरक्षण के साथ जल नीति में बदलाव नितांत जरूरी है।
भारतवर्ष इस वक्त भयंकर जल संकट और सूखे का सामना कर रहा है। प्रकृति से छेड़छाड़ और उसकी अनदेखी करने का नतीजा हम भुगत रहे हैं। इस विपरीत परिस्थिति मेें भी सुविधा सम्पन्न लोग जिनको पानी आसानी से मिल रहा है, वो इसका दुरुपयोग कर बहा रहे हैं, सुबह-शाम गलियां और सड़कें धो रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि वे इस विषम परिस्थिति की गम्भीरता शायद तभी समझेंगे जब सरकार घोषणा कर दे कि भारत में इस वक्त पानी का आपातकाल लागू है। देश की सामान्य जनता तो ऐसे आपातकाल से प्रतिदिन रूबरू होती है। अब तो महानगरों में भी क्या अमीर, क्या गरीब, ज्यादातर लोग सुबह-शाम पानी के टैंकरों की प्रतीक्षा करते दिखाई दे रहे हैं और कड़ी मशक्कत के बाद पानी मिल रहा है। उस पर भी इन टैंकर माफियाओं की दादागिरी मनचाही वसूली के रूप में दिखती है। सरकार की कोई लगाम इन पर नहीं दिखती है। दिल्ली जैसे महानगरों के हालात अत्यंत ही गम्भीर हैं। दिल्ली के उप राज्यपाल ने जल प्रबंधन की नाकामियों को बताते हुए कहा कि वजीराबाद ट्रीटमेंट प्लांट इस वजह से पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहा है क्योंकि बराज का जलाशय, जहां हरियाणा से आया पानी जमा होता है, लगभग पूरी तरह गाद से भरा हुआ है। इसके कारण इसकी क्षमता जो 250 मिलियन गैलन हुआ करती थी, घटकर 16 मिलियन गैलन रह गई है। उन्होंने कहा कि 2013 तक हर साल इसकी सफाई होती थी और गाद निकाला जाता था, मगर पिछले 10 साल में एक बार भी इसकी सफाई नहीं करवाई गई।
केंद्रीय जल आयोग के आकड़ों के अनुसार देश के 75 जलाशयों में क्षमता से 40% कम जल स्तर है, 21 में 50% और 32 में जल स्तर 60% से नीचे हो गया है। बेंगलुरू शहर की स्थिति तो अत्यंत गम्भीर है। जल संकट के कारण लोग वर्क फ्रॉम होम की मांग कर रहे हैं एवं अन्य शहरों में बसने पर विचार करने लगे हैं। हाल मेें नीति आयोग की एक रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि वर्ष 2030 तक देश की 40 प्रतिशत जनसंख्या को भीषण जल संकट का सामना करना पड़ सकता है। देश के करीब 30 शहरों में यह समस्या गम्भीर हो सकती है। इनमें जयपुर, दिल्ली, बेंगलुरू, गांधीनगर, गुरुग्राम, इंदौर, लुधियाना, अमृतसर, हैदराबाद, चेन्नई एवं गाजियाबाद शामिल हैं।
जब से पानी के प्रमुख स्त्रोत – तालाब, बावड़ियां, पोखर आदि पर भूमाफिया की गिद्धदृष्टि पड़ी, इन जलस्रोतों के खत्म होने के अनेक मार्मिक किस्सें प्राय: हर शहर में मिलने लगे। विकास के नाम पर जलस्रोतों की बलि अब भस्मासुर साबित हो रही है। गर्मियों में जल संकट तेजी से बढ़ रहा है। इसकी मिसाल देश के लगभग सभी राज्यों मे देखने मिल रही है। देश के लोग तपती गर्मी में बाारिश की बाट जोह रहे हैं, लेकिन यदि भरपूर बारिश होती भी है तो भी अगली गर्मियों तक फिर सूखे जैसे हालात बनेंगे, क्योंकि पानी को सहेजने की अपनी परम्परा हम भूल गए हैं।
अब बात सिर्फ सरकार के हाथ से निकल चुकी है। अब जनता को अपना मौलिक कर्तव्य निभाना होगा और जनता को ही अपना दायित्व समझना होगा कि वह जलसंरक्षण करें। वैसे यह बात सही है कि जल, जंगल समेत सभी प्राकृतिक संसाधनों को बचाना हर व्यक्ति का दायित्व है। एक बात यह भी उठाई जानी चाहिए कि जब सरकार के स्तर से जल संरक्षण की बात आती है, तो यह प्रश्न भी किया जाना चाहिए कि सरकार जल माफिया पर लगाम लगाने के लिए क्या कर रही है?
मोदी सरकार द्वारा जल की महत्ता को सर्वोपरि रखते हुए देश में नया जल शक्ति मंत्रालय बनाया गया है। इससे पानी से सम्बंधित सभी विषयों पर तेजी से निर्णय लिए जा रहे हैं। मन की बात के माध्यम से प्रधान मंत्री ने देशवासियों से जल संरक्षण के लिए पारम्परिक तौर-तरीके जो सदियों से उपयोग में लाए जा रहे हैं, को पुनः अपनाकर एक जन आंदोलन की शुरुआत करने की निरंतर अपील की। वर्षा का जो पानी सालाना मिलता है, अगर जल संचय की क्षमता को बढ़ाया जाए, वर्षाजल को यूं ही बहने देने की जगह धरती के नीचे पहुंचाया जाए, तो सूखे की समस्या से निजात मिल सकती है। परम्परागत तौर तरीकों को भुला देने से अधिकांश पानी बह कर बर्बाद हो जाता है, परंतु एक प्रश्न यह भी उठता है कि जल संरक्षण से जुड़े नियमों का कड़ाई से पालन कब होगा?
कहते हैं कि नदी अपने रास्ते पर सौ साल में भी वापस आती है, आज तो नदियों की भूमि (रिवर बेड) ही अतिक्रमण का शिकार है। नदियों के किनारों के संरक्षण हेतु जो नियम बनाए गए हैं उनका कड़ाई से पालन होना आवश्यक है। इसी प्रकार पाटे गए पोखरों की भूमि भी चिन्हित करके, पोखरों का पुनरुद्धार किया जाना आवश्यक है। कुएं पेयजल का उत्तम स्त्रोत होने के साथ ही भूमिगत जल के स्तर को भी इंगित करते हैं, इनका भी संरक्षण किया जाना आवश्यक है जो सरकार एवं समाज के स्तर पर किया जाना जरूरी है।
अभी गली, मोहल्ले में आरओ का पानी बिकता है, जिसकी न गुणवत्ता का कोई ठिकाना होता है, न ये पता होता है कि ये कितने कानूनी या गैरकानूनी तरीकों से, भू-जल दोहन करके तैयार किया जा रहा है और बोतलों में पैक हो रहा है। पेयजल के प्रमुख स्त्रोत नदियों, झीलों में सीवर बहाया जाना अनवरत जारी है। यही हाल उन उद्योगों का भी है, जो अपना कचरा नदियों में बहा देते हैं। टेनरी सहित ऐसे उद्योगों पर भी कड़ाई करने की जरूरत है जो अपना दूषित जल सीधे भूजल में बोरिंग के माध्यम से मिला रहे हैं। इस विकट स्थिति में जल के लिए जनता का कोई आंदोलन सफल हो भी तो कैसे?
हमारे देश में जल सम्पदा की कोई कमी नहीं है। हर वर्ष बरसात के तीन महीने में इतना पानी आ जाता है कि अगर इसका प्रबंधन ठीक से किया जाए तो देश में कभी जल संकट की स्थिति नहीं बनेगी और बाढ़ का खतरा भी कम हो जाएगा। देश की छोटी नदियों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। ज्यादातर ये नदियां गर्मियों में सूख जाती हैं, लीन पीरियड में इनमें एक-दो फुट से अधिक पानी नहीं होता है। बाढ़ सुरक्षा के नाम पर बने तटबंधों के कारण अधिकतर छोटी नदियों का बड़ी नदियों से सम्पर्क कट गया है। जब ये तटबंध नहीं थे, तब बाढ़ आती थी तो बड़ी नदियों का पानी इन छोटी सहायक नदियों और इनसे जुड़ी झीलों-पोखरों में बंट जाता था, जिससे बाढ़ का प्रभाव कम हो जाता था और जब गर्मियों में बड़ी नदियों में पानी घटता तो ये छोटी नदियां और झीलें, बड़ी नदियों को पानी से पोषित कर देती थीं। इससे बाढ़ का खतरा भी कम हो जाता और सूखे के मौसम में भी नदियों में पानी होता था। यह जल संरक्षण की हमारी पारम्परिक-नैसर्गिक व्यवस्था थी। अब पानी मुख्य धारा तक ही सीमित है, इसलिए बाढ़ का पानी निवासी क्षेत्रों तक पहुंचने लगा है और गर्मियों में ये छोटी नदियां पूरी तरह सूखने लगी हैं। अतः सरकार, समुदाय एवं व्यक्तिगत स्तर पर जल संरक्षण के प्रयास किए जाने चाहिए और जल नीतियों का कड़ाई से पालन किया जाना चाहिए, तभी हमारा देश सदानीरा बना रहेगा। 21वीं सदी में जिस देश के पास जल के समृद्ध स्त्रोत होंगे, वही विश्व में अपनी पहचान स्थापित कर सकेगा।