भारत में अकाल और सूखे की मार से जल संकट में वृद्धि होती है। ऐसे में वर्षा जल संचयन के माध्यम से इस संकट से मुक्ति मिल सकती है और भूगर्भ जल का स्तर भी बढ़ सकता है। जल संरक्षण के जितने भी आयाम हैं, उन सभी आयामों पर सकारात्मक पहल करने की आवश्यकता है।
दिन-ब-दिन बढ़ती गर्मी, तपती धरती, सिमटती बारिश की बूंदें, सूखती नदियां, पिघलते ग्लेशियर और भूगर्भ जल का गिरता स्तर- ये सब हमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आगाह कर रहे हैं कि जितनी जल्दी हो हम सम्भल जाएं। इस धरती को सूर्यताप से जल कर भस्म होने से बचा लें और आने वाली पीढ़ी के भविष्य को सुरक्षित कर ले। दरअसल ‘तथाकथित’ विकास की महत्वाकांक्षी दौड़ में हर इंसान में दूसरे इंसान से आगे बढ़ने की जो होड़ लगी है, उसने सबसे ज्यादा अगर किसी को नुकसान पहुंचाया है, तो वह है- हमारी धरती, हमारा पर्यावरण और हमारी जलवायु। इस विकास बनाम विनाश की दौड़ में हम अब इतना आगे निकल चुके हैं कि पीछे वापस लौट कर सबकुछ पहले की तरह ठीक करना तो सम्भव नहीं है, किंतु अब भी कुछ ऐसे उपाय है जिनके जरिए हम तपती धरती को थोड़ा सुकून पहुंचा सकते हैं। ऐसा ही एक प्रमुख उपाय है- वर्षा जल संचयन।
बादलों से टपकती बारिश के पानी को भविष्य के उपयोग हेतु सहेजने की तकनीक को वर्षा जल संचयन कहते हैं। इस संचित वर्षा जल का उपयोग कपड़ों की सफाई, फसलों की सिंचाई, गाड़ी की धुलाई आदि के लिए किया जा सकता है। यह एक सरल, सस्ती, दक्ष, पर्यावरण-मित्र और टिकाऊ
वर्षा जल संचयन के लाभ
-वर्षा जल स्वाभाविक रूप से नरम होता है, इसमें लगभग कोई भंग खनिज या लवण नहीं होता है और इसलिए नरमी, अखनिजीकरण, रिवर्स ऑस्मोसिस उपचार आदि की लागत को कम करता है।
-वर्षा जल संचयन और स्थानीय उपयोग के परिणामस्वरूप ऊर्जा की बचत होती है। इससे पनबिजली का उत्पादन भी किया जा सकता है।
-पानी की पहुंच आसान है क्योंकि इसका संचयन सम्बंधित स्थल पर ही किया जाता है।
-जल निर्भरता में और जल सुरक्षा में वृद्धि होती है।
-बाहरी स्रोत से अपशिष्ट जल आपूर्ति की मांग को कम किया जा सकता है।
-इसका उपयोग अलग-अलग प्रक्रियाओं में जैसे- कूलिंग टावर्स और स्टीम जेनरेशन आदि के साथ किया जा सकता है।
-यह गर्मी की अवधि के दौरान खपत होने वाले पानी को बढ़ाता है, भूजल का भारी पुनर्भरण होता है और इसकी गुणवत्ता में सुधार होता है।
-वर्षा जल संचयन के अनेक लाभों के बावजूद इसकी कुछ सीमाएं हैं। वर्षा जल संचयन के लिए वर्षा पर प्रत्यक्ष निर्भरता होती है।
पद्धति है, जिसके जरिए हम लाखों लीटर पानी को बर्बाद होने से बचा सकते हैं। प्राचीन काल में गांवों और शहरों में तालाबों, बावड़ियों, जोहड़, हौज आदि में वर्षा जल एकत्र किया जाता था और संग्रहित पानी का उपयोग सूखे के मौसम में किया जाता था। यह न केवल पानी की उपलब्धता को बढ़ाता है बल्कि गिरते जल स्तर को भी रोकता है। पारिस्थितिकीविदों का मानना है कि जल संकट की समस्या को दूर करने के लिए जल संचयन प्रथाओं के पारम्परिक तरीकों की वापसी की तत्काल आवश्यकता है।
वर्षा जल संचयन के उद्देश्य
* पानी के बहाव के कारण होने वाले चट्टानी कटाव को कम करने के लिए।
* सड़कों पर पानी भरने से बचाने के लिए।
* पानी की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए।
* भूजल स्तर को ऊपर उठाने के लिए वर्षा जल को धरती के अंदर जाने देने के लिए ।
* भूजल प्रदूषण के स्तर को कम करने के लिए।
* कमजोर या सूखे मौसम के दौरान भूजल आपूर्ति को पूरक करने के लिए।
वर्षा जल संचयन के तरीके
घरों की छतों पर वर्षाजल का संग्रह करना सबसे सामान्य होता है। इसके अलावा, आहातों में, पहाड़ी की ढाल पर या कृत्रिम भूमि पर बने कृत्रिम तालाबों में भी जल संचयन किया जा सकता है। आंगनों में गिरने वाले बारिश के पानी को इकट्ठा किया जाता है और भूमिगत टैंकों में जमा किया जाता है या किसी खाली पड़े कुएं, तालाब, पोखर की ओर मोड़ दिया जाता है। एकत्रित पानी को भविष्य में उपयोग के लिए एक हैंडपम्प या मोटर पम्प का उपयोग करके टैंक या कुएं से निकाला जा सकता है। तलहटी में झरनों से बहने वाले पानी को तटबंध प्रकार के जल भंडारण में एकत्र किया जाता है। एकत्रित पानी को पाइप के माध्यम से कस्बों तक पहुंचाया जा सकता है। कृत्रिम पुनर्भरण कुओं और नलकूपों में पानी के स्तर को बढ़ाने के लिए पृथ्वी के बांधों और तालाबों (जोहड़) में वर्षा जल एकत्र करना वर्षा जल संचयन की एक स्वदेशी तकनीक है। यह जल संसाधनों की सुरक्षा में सहायता करता है और निरंतर स्वच्छ पानी की आपूर्ति को सुनिश्चित करता है। शुष्क और अर्ध-शुष्क क्षेत्रों में उथले परकोलेशन टैंकों का निर्माण करके भी वर्षा जल को संचित किया जा सकता है। बड़े जलग्रहण क्षेत्रों का वर्षा जल चेक डैम में एकत्र किया जाता है।
-पूनम वर्मा