हाथरस जैसी दुर्घटना देश में पहली बार नहीं हुई है। अब तक सैकड़ों धार्मिक आयोजनों या सत्संग जैसे कार्यक्रमों में मची भगदड़ में हजारों लोग मारे गए हैं। जरा स्मरण कर देखें तो आपको महसूस होगा कि ऐसी दुर्घटनाएं लगातार होती रही हैं। हाथरस की घटना से फिर ऐसे सत्संग में भीड़ प्रबंधन, योजना और नियंत्रण के अनेक प्रश्न सामने आ गए हैं।
पुलिस की नौकरी छोड़कर स्वयंभू संत बने सूरज पाल जाटव को उनके अनुयायी उन्हें नारायण साकार उर्फ ‘भोले बाबा’ के नाम से पुकारते हैं। भोले बाबा के अनुयायी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में बड़ी संख्या में हैं। बताया जा रहा है कि कोरोना के समय भी भोले बाबा का सत्संग कार्यक्रम विवादों में आया था। उन्होंने तब अपने सत्संग के लिए केवल 50 लोगों तक ही शामिल होने की अनुमति मांगी थी, लेकिन बाद में 50 हजार से ज्यादा लोग उनके सत्संग में आ गए। भारी भीड़ के कारण प्रशासनिक व्यवस्था चरमरा गई थी। इस बार भी कहा जा रहा है कि कार्यक्रम के लिए 80 हजार लोगों के शामिल होने की बात प्रशासन को बताई गई थी, लेकिन प्रत्यक्ष में 2.5 लाख से ज्यादा लोग सत्संग में जुटाए गए थे।
भोले बाबा ने भक्तों की भीड़ तो जुटा ली, लेकिन वहां व्यवस्था के नाम पर कुछ भी नहीं था। इस कारण जो परिणाम सामने आया वह बड़ा डरावना था। इधर-उधर पड़ी क्षत-विक्षत लाशें, मृतकों के परिजनों की दिल दहला देने वाली चीखें और लाशों की भीड़ में अपनों को तलाशती निष्प्रभ आंखें। यह ‘भोले बाबा’ के सत्संग का भयानक दृश्य था। बाबा के पैर छूने के लिए और जहां भोले बाबा के पैर पड़े थे, वहां की मिट्टी उठाने के लिए भक्तों में होड़ मच गई। इस भगदड़ में 122 लोगों की जान चली गई। वैसे लाखों की भीड़ इकट्ठा करने वाले इस बाबा का नाम ‘भोले बाबा’ तो है, लेकिन इसमें जरा भी भोलापन नहीं है, क्योंकि इस भयानक घटना के बाद ये भोले बाबा वहां से भाग खड़े हुए। अपने भक्तों की सहायता भला कैसे करते, जब वह खुद ही फरार हो गए।
इस तरह की अनेक घटनाएं निरंतर देशभर में होती रहती है, जिसमें सैक़ड़ों लोग मारे जाते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या पिछले कई सालों से घटी इसी तरह की सैकड़ों घटनाओं और अब हाथरस की घटना के बाद जनता, भक्त, आयोजक और प्रशासन की आंखें खुलेंगी?
भोलेबाबा और उनके जैसे सैकड़ों ढोंगी बाबाओं ने देश के कोने-कोने में भक्ति का बाजार खड़ा कर दिया है। इसमें न केवल ग्रामीण बल्कि अशिक्षित से लेकर सुशिक्षित वर्ग के लोग भी ऐसे बाबाओं के मायाजाल में फंसते हैं। भोले बाबा के घर के सामने लगे हैंडपम्प के पानी से वह बीमारियों एवं समस्याओं का इलाज करते हैं, इस चमत्कार से भी बाबा प्रसिद्ध होने लगे। यहां तक कि बड़े-बड़े नेता और मंत्री भी बाबा के चरणों में हाजिरी लगाने लगे।
विश्व में मानव जब नागरिक जीवन के प्रथम स्तर पर था उस समय भारत में अंतरराष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय थे। भगवान महावीर, गौतम बुद्ध, आचार्य चाणक्य, संत रामदास जैसे शेकड़ो महापुरुष भारत को और हमारे समाज की व्यवस्था को मार्गदर्शन दे रहे थे। शून्य की खोज भारत में हुई थी और इस खोज ने दुनिया की बड़ी समस्या का समाधान किया है। सुश्रुत जैसे महान सर्जन ने इम्प्लांट सर्जरी (प्लास्टिक सर्जरी) के युग की शुरुआत भारत में ही की है। प्रश्न यह है कि क्या हम भारत के लोग अब जानबूझकर हमारे अध्यात्म से जुड़े यह वैज्ञानिक दृष्टिकोण भूल गए हैं? आज के आधुनिक युग में हमने विज्ञान में काफी प्रगति कर ली है। भारतीय संशोधन को दुनिया में मौलिक माना जाता है, लेकिन यह सच है कि भारतीय अभी भी अंधविश्वासी, धार्मिकता की मानसिक गुलामी की बेड़ियां तोड़ने को तैयार नहीं हैं। विकास की कगार पर खड़ा अपना देश अंधविश्वासी है? क्या हम अंधेरे में चल रहे हैं? इसे रोकने के लिए क्या किया जा सकता है?
गौतम बुद्ध ने सब कुछ छोड़ा, क्योंकि उनके अंतरात्मा से एक आवाज उठी थी सत्य की खोज किए बिना इस दुनिया को नहीं छोड़ना है। बुद्ध परम तत्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे, इसी कारण बुद्ध के भीतर से ही परम तत्व की तृष्णा प्रकट हुई। वह परम तत्व हमारे समाज के सामने सकारात्मक चिंतन के रूप में प्रस्तुत हुए। हजारों वर्षों बाद आज भी गौतम बुद्ध को समाज अपना मार्गदर्शक समझता है। यही बात भगवान महावीर, संत रामदास, संत ज्ञानेश्वर, संत कबीर जैसे सैकड़ो संतों में हमें महसूस होती है।
वर्तमान में जब हम सत्संग बाजार निर्माण करने वाले भोले बाबा जैसे आध्यात्मिक गुरुओं को देखते हैं, जो अपने आप को आधुनिक अवतारी पुरुष के रूप में समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं, तो ऐसे आधुनिक अवतारी पुरुषों में सत्य की खोज करने की जिज्ञासा दिखाई नहीं देती, क्योंकि उनमें सिर्फ और सिर्फ माया, मोह, प्रचार, पैसा, प्रसिद्धि की निरंतर खोज मन में व्याप्त होती है।
संन्यासी, गुरु या आध्यात्मिक व्यक्ति का अर्थ माया-मोह से अपनी जीवन चेतना को मुक्त कर लेना है, लेकिन जिस प्रकार से ऐसे महाराज अपने सत्संगों में लाखों लोगों की भीड़ के प्यासे होते हैं। इनका सत्संग लाखों की भीड़ के बिना, बड़े-बड़े मंत्री, राजनेताओं की उपस्थिति के बिना पूरा ही नहीं हो सकता। ऐसी जिनकी लालसा होती है, ऐसे महाराजों को जब हम देखते हैं तो ऐसा महसूस होता है कि आज का समाज अपने दुःख-दर्द की चिकित्सा मनोरोगी एवं बीमार अधर्म के व्यापारियों से ही करवा रहा है।
इन जैसी घटनाओं के लिए सिर्फ महाराज ही जिम्मेदार है ऐसी बात नहीं है। आज के आधुनिक महाराज वही कहते हैं जो भक्त सुनना चाहते हैं। भक्त सत्य नहीं चाहते, भक्त अपने दुःख दर्दों पर ऊपर-ऊपर मलहम पट्टी चाहते हैं। इसी प्रकार यह महाराज भक्तों को प्रसन्न रखने का प्रयास करते हैं। महाराज तो सपनों के सौदागर होते हैैं। विश्व विख्यात मनोचिकित्सक सिगमंड फ्रायड ने कहा है कि आदमी बिना भ्रम के जी नहीं सकता। भ्रम आदमी के लिए अनिवार्य भोजन है, भक्तों को बड़े-बड़े भ्रम चाहिए। स्वर्ग के, नरक के, पाप के, पुण्य के, पाप से मुक्ति ऐसे भ्रम में ही भक्त जीना चाहता है। वह झूठ की बैसाखी से अपनी जिंदगी गुजारते हैं। वर्तमान के यह मोह माया में लिप्त आधुनिक महाराज तो परजीवी हैैं। यह ढोंगी बाबा भक्तों की आशा-आकांक्षा और दुःख-दर्द दूर करने के नाम पर अपनी दुकान चलाते हैं। वह इन भक्तों के भोलेपन का लाभ उठाते हैं। ऐसे अज्ञानी एवं अंधश्रद्धालु भक्तों के कारण वह आध्यात्मिक साम्राज्य के सम्राट बनते हैं।
जिस किसी भी बाबा या महाराज की तुम पूजा कर रहे हो, जरा सोच लेना क्यों कर रहे हो? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह तुम्हें मीठे, सुंदर, मनमोहक सपने दिखाता है, जो भक्त चाह रहे हैैं। भक्तों को परिश्रम नहीं करना है, ध्यान नहीं करना है, सिर्फ और सिर्फ महाराज के दर्शन मात्र से, महाराज के चरणों की धूल से भक्त अपने सारे दुःख दूर करना चाहते हैं। वर्तमान में महाराज भी जो भक्तों को चाहिए वहीं दे रहे हैं। यह सदियों से चला आ रहा भक्तों का घोर शोषण है। इसी शोषण को हम बाबा-महाराजों के सत्संग के रूप में महसूस कर रहे हैं।
बीज को वृक्ष बनने के लिए दो काम करने होते हैं। जमीन की गहराइयों में जाकर बीज जमीन से नाता जोड़ता है तब दूसरी तरफ आकाश की ओर यानी परम तत्व की तरफ उसका प्रवास शुरू होता है। उसके बाद उस बीज से अंकुर निकलते हैं, पत्ते निकलते हैं, यह एक अद्भुत यात्रा है। एक तरफ जमीन की गहराइयों में उतरने की आवश्यकता है तभी वृक्ष आकाश की ओर अग्रसर होने लगता है। हमारे महाराज अध्यात्म के जमीन की गहराइयों में जाए बिना मोह-माया से लालायित होकर आकाश की ओर जाने लगते हैं। भगवान की तलाश विराट अस्तित्व में करने की आवश्यकता होती है। भक्त और महाराज दोनों विराट अस्तित्व को नकार कर उतावले होकर आध्यात्मिक व्यवहार करना चाहते हैं। और ऐसे उतावले व्यवहार का प्रसाद भक्तों को ब्याज सहित मिल जाता है। न भक्त धार्मिक है, न उनके महाराज धार्मिक है। लोभ से निकली हुई भक्तों की श्रद्धा और लोभी बाबाओं का सत्संग, भक्तों को गहरे संकट में ही ले जाएंगे।
हिंदू के वेद ग्रंथो में अवतार की कल्पना है। श्रीमद्भागवत गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जब-जब धर्म को ग्लानि आएगी तब-तब धर्म स्थापना के लिए परमेश्वर फिर से अवतार लेंगे। साधु सज्जनों के उद्धार एवं दुर्जन के निर्दालन के लिए परमेश्वर अवतार लेंगे। इसी बात को अपने स्वार्थ के लिए आज के चालाक धर्म गुरुओं ने पकड़ लिया। धर्म को ग्लानि आई है, दुष्टों का अनाचार बढ़ गया है, इसी कारण उनके निर्दालन के लिए, समाज को सुखी बनाने के लिए इन बाबा-महाराजों का अवतारी पुरुष के रूप में जन्म हुआ है। इस बात का भ्रम इन भ्रष्ट महाराजों ने समाज में फैला दिया है। वर्तमान में खुद की ही आरती करवाने वाले बाबा और महाराज जगह-जगह पर उपलब्ध हैं।
आस्था और अंधविश्वास और भक्ति के बीच संघर्ष वर्षों से चला आ रहा है, लेकिन आज के अनुयायियों को उस व्यक्ति की पृष्ठभूमि, चरित्र, आध्यात्मिक ज्ञान के स्तर की जांच अवश्य करनी चाहिए। जिसे हम गुरुस्थान, भक्तिस्थान के रुप में सम्मान देते हैं और पूजा करते हैं, वह व्यक्ति ही है जो हमें आध्यात्मिक रूप से मार्गदर्शन करता है और हमें परोपकार का मार्ग दिखाता है, लेकिन यदि भगवान माने जाने वाले ये गुरु, भोलेबाबा जैसे अपने भक्तों के जीवन के साथ इतना घातक खेल खेल रहे हैं, तो यही समय है कि भक्त अपने विवेक को जगाएं।
हाथरस जैसी दुर्घटना देश में पहली बार नहीं हुई है। अब तक सैकड़ों धार्मिक आयोजनों या सत्संग जैसे कार्यक्रमों में मची भगदड़ में हजारों लोग मारे गए हैं। जरा स्मरण कर देखें तो आपको महसूस होगा कि ऐसी दुर्घटनाएं लगातार होती रही हैं। हाथरस की घटना से फिर ऐसे सत्संग में भीड़ प्रबंधन, योजना और नियंत्रण के अनेक प्रश्न सामने आ गए हैं। साथ ही यह भी सोचना चाहिए कि ऐसी घटनाएं बार-बार क्यों होती हैं, जो भयानक दुर्घटना का कारण बनते हैं? वह वैभव की आड़ में शक्ति प्रदर्शन के लिए भीड़ जुटाने वाले पाखंडी बाबा हैं। कई भोले-भाले भक्तों को आकर्षित करके अपना साम्राज्य बनाते हैं और राजनेता वोट बैंक भक्तों को मतपेटी की दृष्टि से देखते हैं। इसलिए कई राजनीतिक दल, नेता, कार्यकर्ता बाबा के भक्त बन जाते हैं। फिर इन्हें केवल भक्तों का ही नहीं बल्कि शासन-प्रशासन का भी समर्थन मिलता है, जिससे बाबा फलते-फूलते हैं। इसके बाद उनके पांच सितारा आश्रमों का साम्राज्य खड़ा होता है। राजाश्रय और लोकाश्रय दोनों मोर्चों पर सफल इन बाबाओं की वास्तविकता कभी जनता के सामने नहीं आती।
इस घटना के बाद कई प्रश्न खड़े हो गए हैं। कुछ समय बाद जांच से सच्चाई तो सामने आ जाएगी, लेकिन तब तक यह घटना शायद कई लोग भूल चुके होंगे और किसी नए भोंदू बाबा का साम्राज्य भक्तों के मनःपटल पर राज कर रहा होगा। यह सिलसिला कैसे रुकेगा? हिंदू तत्वज्ञान एवं हिंदुत्व को इन ढोंगी बाबाओं के करतूत से कैसे बचाया जा सकता है? इस बात पर समाज के मान्यवर नेतृत्व एवं संस्थाओं को मंथन करना अत्यंत आवश्यक है। हिंदू धर्म एवं सनातन परम्पराओं को अंधश्रद्धा के घेरे से बचाने के लिए यह आज की महत्वपूर्ण जरूरत है।