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राष्ट्रबोध, शत्रुबोध और कर्तव्य बोध

राष्ट्रबोध, शत्रुबोध और कर्तव्य बोध

by हिंदी विवेक
in अगस्त २०२४, विशेष, विषय
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राष्ट्र में कुल चार प्रकार के नागरिक होते हैं। एक जिनका पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित होता है। वे पुरुषार्थ करते हैं, परिश्रम करते हैं, उपलब्धियों की ऊंचाई पर भी पहुंचते हैं, पर स्वयं को निमित्त मानकर कहते हैं- इसमें मेरा कुछ नहीं, सब राष्ट्र को समर्पित है। दूसरे वे जिनमें दायित्व बोध और कर्तव्यबोध तो होता है, वे राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि भी चाहते हैं, लेकिन उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र नहीं व्यक्तिगत हित होता है। तीसरे वे जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से राष्ट्र की प्राथमिकता, प्रतिष्ठा और राष्ट्रभाव को क्षति पहुंचाने के लिए निरंतर सक्रिय रहते हैं और चौथे केवल दर्शक दीर्घा में होते हैं।

किसी भी राष्ट्र की समृद्धि यात्रा उसके निवासियों की अंतर्चेतना में दायित्व और कर्तव्यबोध के साथ उन शत्रुओं का बोध भी आवश्यक है जो राष्ट्र के आधार को क्षति पहुंचाने के लिए सक्रिय रहते हैं। यह व्यापक दृष्टि ही राष्ट्रबोध की सम्पूर्णता है।

किसी एक दिशा में दौड़ने से जीवन सार्थक नहीं होता। सफलता के लिए बहुदर्शी होना चाहिए। जैसे यात्रा के लिए हम केवल वाहन की गति नहीं देखते, मार्ग की अनुकूलता, दिशा-बोध और बाधाओं का आकलन भी करते हैं। यही चिंतन राष्ट्र समृद्धि यात्रा का भी है। राष्ट्र का निर्माण केवल नारे लगाने से नहीं होता। राष्ट्र के प्रति समर्पित नागरिकों के समग्र चिंतन और प्रयत्नों की निरंतरता से होता है। नि:संदेह राष्ट्र समृद्धि में महत्वपूर्ण भूमिका शासक के नीति निर्णयों की होती हैं, पर इससे कहीं अधिक नागरिकों की अंतर्चेतना में राष्ट्रबोध महत्वपूर्ण होता है। नागरिकों की अंतर्चेतना की संकल्पना राष्ट्र को भी प्रभावित करती है और शासकों के नीति निर्णयों को भी।

राष्ट्र में कुल चार प्रकार के नागरिक होते हैं। एक जिनका पूरा जीवन राष्ट्र को समर्पित होता है। वे पुरुषार्थ करते हैं, परिश्रम करते हैं, उपलब्धियों की ऊंचाई पर भी पहुंचते हैं, पर स्वयं को निमित्त मानकर कहते हैं- इसमें मेरा कुछ नहीं, सब राष्ट्र को समर्पित है। दूसरे वे जिनमें दायित्व बोध और कर्तव्यबोध तो होता है, वे राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि भी चाहते हैं, लेकिन उनकी प्राथमिकता में राष्ट्र नहीं व्यक्तिगत हित होता है। तीसरे वे जो प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से राष्ट्र की प्राथमिकता, प्रतिष्ठा और राष्ट्रभाव को क्षति पहुंचाने के लिए निरंतर सक्रिय रहते हैं और चौथे केवल दर्शक दीर्घा में होते हैं। इन्हें न दायित्व बोध होता है, न कर्तव्य बोध। वे भ्रांत धारणाओं में जीते हैं, अपनी न्यूनतम आवश्यकता अथवा व्यसनों की आपूर्ति में ही डूबे रहते हैं और ये भीड़ के अनुगामी हो जाते हैं। राष्ट्र की समृद्धि और भविष्य की यात्रा के लिए इन चारों प्रकार के नागरिकों की पहचान और उसके अनुरूप इनसे व्यवहार आवश्यक है।

राष्ट्रबोध और राष्ट्र की अवधारणा

राष्ट्र की अवधारणा सबसे पहले भारत में विकसित हुई। संसार का चिंतन केवल देशों का निर्माण और उनकी राजनैतिक सीमाएं निर्धारित करने तक सीमित रहा, लेकिन भारत ने इससे बहुत आगे राष्ट्र के स्वरूप और समृद्धि का चिंतन किया। देश और राष्ट्र की अवधारणा में बहुत अंतर है। यह ठीक उसी प्रकार है जैसे शरीर के अंग और इंद्रियां दृश्यमान होते हैं। वहीं चित्त, बुद्धि और आत्मा अदृश्यमान। यही अंतर देश और राष्ट्र में होता है। देश दृश्यमान होता है और राष्ट्र अदृश्यमान। राष्ट्र का यह अदृश्यमान स्वरूप नागरिकों की भावनात्मक चेतना में होता है। जिसे हम राष्ट्रभाव कह सकते हैं। इसकी झलक नागरिकों की सकारात्मक जीवन शैली और आदर्श चिंतन में होती है। इसे हम संस्कृति का सम्बोधन देते हैं। यह उच्च मानवीय मूल्यों और प्रकृति के अनुकूल आदर्शों का समन्वय जीवन की सतत प्रक्रिया है। इसका स्वरूप उभरने में शताब्दियां लग जाती हैं, पीढ़ियां खप जाती हैं। यह संदेश हमें ऋग्वेद में मिलता है। ऋग्वेद ने ‘आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्योऽतिव्याधी महारथो जायताम्’ कहा तो यजुर्वेद ने ‘वयं राष्ट्रे जाग्रयाम’ का आह्वान किया। अथर्ववेद ने ‘अभिवर्धताम् पयसाभि राष्ट्रेण वर्धताम’ कहा। वेदों में इनके अतिरिक्त और ऋचाएं भी हैं। इनमें राष्ट्र का आधार सत्य, ऋत, उद्यम, उग्र, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ को माना है। यदि केवल इन तीन ऋचाओं का संदेश समझें तो इनमें एक ओर शूरवीर एवं महारथी शासक होने की अपेक्षा है तो वहीं सामान्य जनों से जागरुक होने और जागरुक करने का आह्वान है, वह भी धन-धान्य से परिपूर्ण। यह एक ऐसे राष्ट्र की संकल्पना है जिसके नागरिक और शासक दोनों उच्च मानवीय आदर्शों के साथ सशक्त और समृद्ध हो। यही झलक हमें भारत के सांस्कृतिक मूल्यों और जीवनशैली में मिलती है। अपनी परम्पराओं, सांस्कृतिक मूल्यों के प्रति समर्पण के साथ जीवन यात्रा। इसकी निरंतरता ही तो राष्ट्रबोध है। इस सांस्कृतिक चेतना और मानवीय मूल्यों की झलक भारतीय जीवन शैली में प्रतिदिन मिलती है। प्राणियों में सद्भाव और विश्व के कल्याण की प्रार्थना, चींटी से लेकर हाथी तक और मामूली दूब से लेकर विशाल वटवृक्ष तक सबकी सुरक्षा, सत्य, अहिंसा, परिश्रम, पुरुषार्थ, परहित और सकारात्मक चिंतन इसका प्रमाण है। हम अर्थ और काम दोनों में धर्म से संतुलन बनाते हैं। यह सांस्कृतिक चेतना ही राष्ट्रबोध है और भारत राष्ट्र की केंद्रीभूत शक्ति भी।

पिछले डेढ़ हजार वर्षों में पूरे संसार का स्वरूप बदल गया। देशों के नाम बदले, आकार बदले उनके अपने मौलिक राष्ट्र तत्व का कोई पता नहीं, जबकि भारत ने एक लम्बे अंधकार भरी रात देखी है। जैसा दमन, विध्वंस और सामूहिक नरसंहार का तांडव भारत में हुआ, वैसा उदाहरण कहीं नहीं। फिर भी भारत राष्ट्र का मूलतत्व सजीव है और अब पुनः पल्लवित होकर आकाश छूने की अंगड़ाई ले रहा है। इसका आधार भारतीयों की सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रबोध ही हैैं। संस्कृति के प्राकृतिक तत्वों का सतत प्रवाहमान रहना और उनकी सुरक्षित निरंतरता की चेतना ही राष्ट्र बोध है।

राष्ट्रमित्र और राष्ट्र शत्रु : पहचान भी आवश्यक

प्रकृति में दो प्रकार की वनस्पति होती है। एक आरोग्य और जीवन की सहायक और दूसरी जीवन के लिए घातक। हम दोनों की पहचान करके अपना व्यवहार निश्चित करते हैं। अनुकूल वनस्पति के निकट और घातक वनस्पति से सावधान रहते हैं। यह अलग बात है कि मनुष्य घातक वनस्पति का शोधन करके औषधी बनाना सीख गया है, लेकिन जब तक शोधन नहीं होता तब तक घातक वनस्पति से सावधानी रखी जाती है। मानवीय प्रकृति में भी ये दोनों धाराएं होती हैं। एक राष्ट्र, संस्कृति, परम्पराओं और मानवीय मूल्यों के लिए समर्पित और दूसरी इन संस्कृति और परम्पराओं के लिए घातक। भारतीय राष्ट्रतत्व में सत्य, अहिंसा, शांति, सद्भाव, समन्वय, समरसता और सामूहिकता की प्रधानता है। इसके अनुरूप आचरण करने वाले नागरिकों को राष्ट्रमित्र कहा जाता हैं। इसके विपरीत अशांति, असत्य, हिंसा, क्रूरता, वैमस्यता, बिखराव और प्रगति में अवरोध उत्पन्न करने वाली मानसिकता के नागरिकों को राष्ट्रशत्रु की पंक्ति में माना जा सकता है। इस मानसिकता के लोग हर युग में रहे हैं। वैदिक काल में भी और पुराण काल में भी। तब इस मानसिकता के नागरिकों को असुर, दैत्य, राक्षस अथवा दानव कहा जाता था, पर समय के साथ राष्ट्रशत्रुओं की कार्यशैली में कुछ परिवर्तन आया। इसके उदाहरण सल्तनतकाल और अंग्रेजीकाल में मिलते हैं। राष्ट्रशत्रु दो प्रकार के हो गए। एक वे जो खुलकर राष्ट्र के विरुद्ध आचरण करते हैं, आक्रांताओं की पंक्ति में अग्रणी होते हैं और दूसरे वे छद्म नाम और रूप लेकर सहयोगी होने का दावा करके विश्वासघात करते हैं। मध्यकाल के लगभग प्रत्येक युद्ध में इन दोनों प्रकार के राष्ट्रशत्रुओं की झलक देखी जा सकती है।

स्वतंत्रता के बाद भी ये दोनों प्रकार के राष्ट्रशत्रुओं की सक्रियता देखी जा सकती है। स्वतंत्रता के बाद यदि शासन शैली में परिवर्तन आया तो इनकी कार्य शैली में भी परिवर्तन हुआ है। प्रगति की आधुनिक स्पर्धा में भारत अग्रणी होने का प्रयास कर रहा है। यदि भारत में शांति, सद्भाव, समन्वय और परस्पर सहयोग का वातावरण होगा तो विकास यात्रा की गति बढ़ेगी, लेकिन यदि विवाद-तनाव और अशांति होगी तो गति अवरुद्ध होगी। यह अनुभव किया जा रहा है कि भारत में दोनों प्रकार की शक्तियां सक्रिय हैं, एक वे जो खुलकर समाज में विभेद और विभाजन के बीज बो रहे हैं और दूसरे अदृश्य रहकर कूटरचित प्रसंगों के माध्यम से अशांति फैलाना चाहते हैं। ये दोनों प्रकार के लोगों को राष्ट्रशत्रु की पंक्ति में मानना चाहिए। भारत की प्रगति यात्रा के लिए दोनों प्रकार के तत्वों की पहचान होनी चाहिए। शासन स्तर पर भी और समाज के स्तर पर भी। भारत को पुनः अतीत के स्थान पर पुनर्प्रतिष्ठित करने के लिए समाज को सक्रिय होना होगा। समाज की सक्रियता और सचेष्ट हुए बिना राष्ट्र शत्रुओं से भारत की मुक्ति सम्भव नहीं।

 

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