अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की दृष्टि से पूर्वी पाकिस्तान में विशेषकर खुलना, चटगांव में हिंदू अल्पसंख्यकों के लिए मानवाधिकार की भी दृष्टि से सुरक्षित परिक्षेत्र कायम करना एक पूर्णतया जायज मांग होती. आश्चर्य यह है कि आंदोलन संघर्ष तो दूर ऐसा कोई विचार तक नहीं सामने आया. अब बांग्लादेश तो भारतीय सेनाओं के दम पर ही एक आजाद देश के रूप में अस्तित्व में आया है. वहां निरीह अधिकारविहीन हिंदू समाज पर हो रहे अत्याचार हमें खुद भारत की राजनैतिक हैसियत का एहसास कराते है.
बांग्लादेश में हिंदुओं की भयावह स्थितियां हैं. हत्या बलात्कार मंदिर ध्वंस का नंगा नाच जारी है. 75 वर्षों की लगातार प्रताड़ना अत्याचार के बावजूद वहां के हिंदू समाज ने आजादी की मांग नहीं की, कोई प्रतिरोध मोर्चा, संघर्ष सेना नहीं बनाई. डेढ़ करोड़ की संख्याबल के बावजूद उन्होंने कश्मीरी पंडितों के समान जीवन व्यतीत करना अपना भाग्य समझा है. कहीं कोई राष्ट्रीय नेतृत्व नहीं उभरा. कोई सैन्य हिंदू मिलिशिया नहीं बनी.
वहीं दूसरी ओर बलोच भी पाकिस्तान में 65 लाख रह गये हैं. हर तरह के जुल्म उन पर टूट रहे हैं फिर भी उनकी आजादी की जंग जारी है. वे मारे जा रहे हैं. बहुतों की लाशें भी नहीं मिलतीं. अत्याचारों की लम्बी कहानियां हैं लेकिन मुकाबला चल रहा है. इसी तरह वहां सिंध में आज मात्र 40 लाख हिंदू बचे हुए हैं जो मुख्यतया अमरकोट, थरपारकर, मीरपुर खास,संघर आदि जनपदों में ही केन्द्रित हैं. यह हिंदू आबादी जो 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान की आबादी की 20% थी, अब घटकर सिर्फ 1.5% रह गयी है. वे लगातार बेटियों के अपहरण, बलात् धर्मपरिवर्तन के शिकार बनते, असहाय गुलामों जैसी बेचारगी की जिंदगी बिता रहे हैं.
बड़ा आश्चर्य होता है कि आजादी के हिंसक दौर में बंगाल और पंजाब का बंटवारा तो हुआ लेकिन सिंध नहीं बांटा गया. पंजाब को बांटने वाली रेखायें आगे बढ़ कर थार के मरुस्थल से होकर गुजर जातीं तो हिंद सिंधियों को एक स्थान मिल जाता. ऐसा नहीं हुआ फिर हमने बड़े पैमाने पर सिंधी शरणार्थियों को भारत आते देखा. सिंध का भी विभाजन हुआ होता तो सिंधी हिंदुओं का विस्थापन इतना बड़ा न होता. वे हिंदू सिंधी, धार्मिक अत्याचार के विरुद्ध खड़े होने की सोच भी नहीं सके. आश्चर्यजनक है कि वहां कभी भी पाकिस्तान की सीमा के अंदर के इन जिलों को मिला कर सिंध हिंदू आटोनामस एनक्लेव या ( स्वायत्त सिंध हिंदू परिक्षेत्र) की मांग तक नहीं उठी. भारत से भी सिंध के लिए आजतक कभी ऐसी कोई मांग नहीं उठी है.
आजादी के बाद हमारे राजनीतिक नेतृत्व में सत्तालिप्सा से वशीभूत थर्ड रेट लीडरशिप सत्ता में आ गयी थी. उनमें इतनी दूरदृष्टि नहीं थी कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर मुद्दा ले जाते समय ‘सुरक्षित हिंदू-अल्पसंख्यक परिक्षेत्र’ की मांग भी वहां प्रस्तुत कर देते. ये हिंदूबहुल जनपद राजस्थान की सीमाओं पर ही हैं. 1971 के युद्ध में हमारी सेनाओं ने सिंध के इन हिंदू जिलों के लगभग 15 हजार वर्ग किमी इलाके को अपने कब्जे में ले लिया था. वहां के इस अल्पसंख्यक समाज के लिए यह प्रताड़ना से मुक्त आदर्श समय था. जब शिमला वार्ताओं में वह क्षेत्र पाकिस्तान को वापस करने की मजबूरी हुई तो वहां की हिंदू आबादी सेनाओं के साथ भारत आ गयी.
उधर बांग्लादेश में आज भी लगभग एक करोड़ हिंदू बचे रह गये हैं. वे भी 1947 में आबादी के 23% थे. उन पर जो पीड़ा, प्रताड़ना बीत रही है, मानवाधिकार हनन की जो वीभत्स स्थिति है, वह हमारी चर्चाओं, विमर्श का हिस्सा ही नहीं बन पाता. इस्कॉन मंदिर पर हमला, पुजारियों की हत्या तो हो ही चुकी थी. अब हमलों का नया दौर जारी है. इतने वर्षों में संभवतः पहली बार बांग्लादेश के हिंदुओं की प्रताड़ना का विषय अन्तर्रष्ट्रीय मंच पर आया था. बांग्लादेशी हिंदुओं की सुरक्षा मानवाधिकार का मुद्दा भारत की सिविल सोसायटी का मुद्दा बना होता तो धार्मिक शोषण व अत्याचार पर लगाम लगती. एक बड़ी बांग्लादेशी आबादी भारत में सुखपूर्वक अवैध निवास कर रही है और वहां बांग्लादेश के हिंदू मजहबी कट्टरता के शिकार हो रहे हैं. आजादी के बाद से ही पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) के हिंदुओं का मुद्दा उठाया जाना चाहिए था.
अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की दृष्टि से पूर्वी पाकिस्तान में विशेषकर खुलना, चटगांव में हिंदू अल्पसंख्यकों के लिए मानवाधिकार की भी दृष्टि से सुरक्षित परिक्षेत्र कायम करना एक पूर्णतया जायज मांग होती. आश्चर्य यह है कि आंदोलन संघर्ष तो दूर ऐसा कोई विचार तक नहीं सामने आया. अब बांग्लादेश तो भारतीय सेनाओं के दम पर ही एक आजाद देश के रूप में अस्तित्व में आया है. वहां निरीह अधिकारविहीन हिंदू समाज पर हो रहे अत्याचार हमें खुद भारत की राजनैतिक हैसियत का एहसास कराते है. भारत की आंतरिक राजनीति का एक बड़ा भाग निश्चय ही अल्पसंख्यक वोट बैंकों से प्रभावित होने के कारण बांग्लादेशी हिंदुओं के अस्तित्व के इन सवालों से आंखें चुराता है. लेकिन विश्व में सुरक्षित एनक्लेव जैसी व्यवस्थाओं के उदाहरण बहुत से स्थानों पर हैं. सिंध व बांग्लादेश के हिंदुओं ने न तो कोई संघर्ष छेड़ा न ही उनमें सुरक्षित स्वायत्त परिक्षेत्रों की समझ ही विकसित हुई. वे अत्याचार शोषण झेलते रहे.
शर्म की बात यह है कि तुम बंगाली व सिंधी हिंदुओं ने बलोचों और पख्तूनों के आजादी के संघर्ष के उदाहरण से कुछ भी नहीं सीखा ! कोई संघर्ष नहीं खड़ा किया.
पाकिस्तान व बांग्लादेश की सीमाओं में संयुक्त राष्ट्र संघ के तत्वावधान में स्वायत्त सिंध हिंदू परिक्षेत्र एवं स्वायत्त बंगाल या चटगांव हिंदू परिक्षेत्र जैसी राजनैतिक व्यवस्था कायम की जा सकती है. हमने देखा है कि सैन मारिनो और लेसोथो क्रमशः इटली व दक्षिण अफ्रीका में स्वायत्त एनक्लेव हैं. युद्ध के दौरान ही रूस ने अभी अभी यूक्रेन के रूसीबहुल क्षेत्रों के लिए डोनबास में दो परिक्षेत्रों लोहांस्क व डोनास्क की घोषणा कर भी दी है.
सन् 1950 मे हुए नेहरू-लियाकत पैक्ट के समझौते से पूर्व पाकिस्तान में हिंदू-ईसाई की प्रताड़ना चरम पर थी. उस समय नेहरू को स्वायत्त परिक्षेत्रों के विचार पर बल देकर अल्पसंख्यकों की स्वायत्तता सुनिश्चित करानी चाहिए थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. भारत में तो अल्पसंख्यकों की आदर्श स्थिति बनी रही जबकि पाकिस्तान में वह कौन सा अत्याचार है जो वहां के अल्पसंख्यक समाज पर चाहे वे हिंदू हो या ईसाई जो उन पर नहीं टूटा. तो मक्कार नेहरू ने उस लियाकत समझौते को खारिज नहीं किया. अल्पसंख्यकों की सुरक्षा व मानवाधिकार भारत की आजादी का मौलिक दायित्व था. लेकिन जहां तक पाकिस्तान व अब बांग्लादेश का प्रश्न है, इन देशों के नेतृत्व ने धार्मिक अत्याचार की मशीनरी का साथ दिया या उसकी ओर से आंखें बंद कर लीं.
राजनैतिक दृष्टि से भी देखें तो अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार की दृष्टि से पाकिस्तान व बांग्लादेश में स्वायत्त सुरक्षित परिक्षेत्रों की मांग को यदि भारत द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ में पुरजोर तरीके से उठाया जाता तो कठमुल्लों से संचालित इन देशों को रक्षात्मक होने को बाध्य करता. वे अल्पसंख्यकों को मौलिक अधिकार देने को मजबूर हो जाते. लेकिन तुष्टीकरण की नीति को अपना मजहब मानने वाली भारतीय राजनीति समस्याओं के समाधान के लिए शक्ति व राजनय के विवेकपूर्ण उपयोग से गुरेज करती रही. परिणाम यह हुआ कि वह तारीख जो देश की आजादी की तारीख बनी वह पाकिस्तान बांग्लादेश के अल्पसंख्यकों के लिए दुर्भाग्यपूर्ण तिथि बन कर रह गयी.
1971 में बांग्लादेश बनवाने के लिए भारतीय सेनाओं ने पूर्वी पाकिस्तान में दखल दिया था. आज डेढ़ करोड़ प्रताड़ित हिंदू समाज के लिए भारत के नेतृत्व से सैन्य दखल की अपेक्षा है. चटगांव एवं रंगपुर डिवीजनों को अपने अधिकार में लेकर उसे स्वायत्त अल्पसंख्यक परिक्षेत्र घोषित किया जाना एक बहुत बड़ा कदम होगा. सेनाओं के प्रवेश करते ही बांग्लादेश में पूर्ण शांति छा जाएगी. और हिंदुओं को स्वायत्त बनाना एक बड़ा राजनैतिक निर्णय होगा जो बांग्लादेश की भारत समस्या का, इस क्षेत्र में विदेशी दखल, चीन पाकिस्तान की कुटिल चालों का स्थायी अंत कर देगा.
– कैप्टेन आर. विक्रम सिंह (पूर्व सैनिक पूर्व प्रशासक)