अब तक दलील दी जाती रही थी कि देश में 80 प्रतिशत पुल प्राकृतिक आपदाओं के कारणों से गिरते हैं। उदाहरण स्वरुप बाढ़ व भूकम्प आदि का तर्क दिया जाता है कि 50 प्रतिशत पुल बाढ़ की वजह से गिरते हैं। खनन माफिया द्वारा अत्याधिक बजरी व बालू खनन से पुलों का आधार कमजोर हो जाता है। सही अर्थों में पुलों के गिरने की एक बड़ी वजह घटिया सामग्री का निर्माण कार्य में प्रयोग होना भी है। यह विडंबना ही है कि देश में 10 प्रतिशत पुल समय से पहले गिर जाते हैं। दरअसल पुलों के गिरने में 4 प्रतिशत भूमिका पुल के डिजाइन व निर्माण की खामी की भी होती है।
हमारे देश में जब भी किसी सार्वजनिक निर्माण के असमय ध्वस्त होने का समाचार आता है तो जन-धन की हानि विचलित करती है। बहुमूल्य जीवन नहीं लौटाए जा सकते, लेकिन ये हादसे हमारे समाज में व्याप्त कदाचार व जीवन मूल्यों के पराभाव की ओर इंगित करते हैं। प्राय: लोग दुहाई दिया करते हैं कि ब्रिटिशकालीन निर्माण कार्य आज भी वैसे ही बने हुए हैं और स्वतंत्र भारत में हुए निर्माण कार्य जब-तब दरकते रहते हैं। कभी ओवर ब्रिज, कभी पुल तो कभी सार्वजनिक भवनों का ध्वस्त होना नीति नियंताओं के लिए बड़ी चुनौती है।
भले ही तर्क कुछ भी दिए जाएं, ये भ्रष्टाचार और अनियोजन की पराकाष्ठा है। विगत 3 जुलाई बुधवार को बिहार में एक ही दिन में पांच पुल गिर गए। जिसमें सिवान जनपद की छाड़ी नदी पर बने दो पुल भी शामिल थे। इसी दिन सारण जिले में गंडकी नदी पर बने दो पुल भी नदी में गिर गए। इन पुलों के गिरने से दर्जनों गांव का मुख्य मार्ग से सम्पर्क कट गया। राज्य में 15 दिनों में 10 पुलों का गिरना, बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया। ये पुल बिहार के अररिया, सिवान, पूर्वी चम्पारण, किशनगंज और मधुबनी जिलों में गिरे थे, जिनमें 3 पुल निर्णाणाधीन थे। प्रशासन की ओर से इन पुलों की गिरने की वजह हादसे व तेज बारिश बताई जा रही है। जांच की जा रही है और दोषियों पर कार्रवाई की जाएगी, के नारे सदा से हवा में गूंजते रहते हैं।
अब तक दलील दी जाती रही थी कि देश में 80 प्रतिशत पुल प्राकृतिक आपदाओं के कारणों से गिरते हैं। उदाहरण स्वरुप बाढ़ व भूकम्प आदि का तर्क दिया जाता है कि 50 प्रतिशत पुल बाढ़ की वजह से गिरते हैं। खनन माफिया द्वारा अत्याधिक बजरी व बालू खनन से पुलों का आधार कमजोर हो जाता है। सही अर्थों में पुलों के गिरने की एक बड़ी वजह घटिया सामग्री का निर्माण कार्य में प्रयोग होना भी है। यह विडंबना ही है कि देश में 10 प्रतिशत पुल समय से पहले गिर जाते हैं। दरअसल पुलों के गिरने में 4 प्रतिशत भूमिका पुल के डिजाइन व निर्माण की खामी की भी होती है।
नि:संदेह बरसात आने से पहले और बाद में कई पुलों का गिरना सार्वजनिक निर्माण में व्याप्त भ्रष्टाचार व धांधलियों की भूमिका को तो उजागर करते ही हैं। बात साफ है कि लगातार धड़ाधड़ गिरते पुल न केवल ठेकेदारों बल्कि उन्हें संरक्षण देने वाले स्थानीय राजनेताओं पर भी प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
जून माह के दूसरे पखवाड़े में एक सप्ताह के भीतर बिहार के मोतिहारी में पुल गिरने की तीसरी घटना हुई। इससे पहले अररिया और सिवान में भ्रष्टाचार के पुल गिरे थे। पूर्वी चम्पारण के मोतिहारी में डेढ़ करोड़ की लागत से बनने वाला जो पुल गिरा, उसकी एक दिन पहले ही ढलाई हुई थी। रात में पुल ताश के पत्तों की तरह भरभरा कर गिर गया। यदि यह पुल यातायात खुलने के बाद गिरा होता तो न जाने कितनी जानें चली जातीं। आरोप है कि घटिया सामग्री के कारण पुल बनने से पहले गिर गया।
विडंबना देखिए कि बिहार में निर्माण कार्यों में धांधलियों की स्थिति यह है कि पिछले 5 सालों के दौरान 10 पुल निर्माण के दौरान या निर्माण कार्य पूरा होते ही ध्वस्त हो गए। उल्लेखनीय है कि बीते साल जून में भागलपुर में गंगा नदी पर लगभग पौने दो हजार करोड़ की लागत से बन रहे पुल के गिरने पर भारी शोर मचा था, लेकिन उसके बाद भी हालात नहीं बदले। पुलों के गिरने का सिलसिला यूं ही जारी है, जो बताता है कि नियम कानून ताक पर रखकर ठेकेदार बेखौफ घटिया सामग्री वाले सार्वजनिक निर्माण कार्य जारी रखे हुए हैं। कमीशनखोरी और जनता की कीमत पर मोटा लाभ कमाने वाले ठेकेदारों की मनमानी जारी है। इन ठेकेदारों में शासन-प्रशासन का भय होना चाहिए ताकि पुल यूं धड़ाधड़ न गिरें।
वास्तव में असली प्रश्न यह है कि स्वतंत्रता के 7 दशक बाद भी हम देश की विकास परियोजनाओं की गुणवत्ता की औचक निगरानी करने वाला तकनीक क्यों विकसित नहीं कर पाए? यह जरूरी है कि सार्वजनिक निर्माण गुणवत्ता का हो और उसका निर्माण कार्य समय पर पूरा हो। इन योजनाओं को इस तरह डिजाइन किया जाए, जिससे कई पीढ़ियों को उसका लाभ मिल सके। साथ ही वह दुर्घटनामुक्त और जनता की सुविधा बढ़ाने वाला हो, मगर विडंबना देखिए कि पुल उद्घाटन से पहले ही धराशायी हो रहे हैं। स्पष्ट है कि मोटे मुनाफे के लिए घटिया निर्माण सामग्री का उपयोग किया जा रहा है।
वहीं दूसरा निष्कर्ष यह है कि जिन लोगों का काम निर्माण सामग्री की गुणवत्ता की निगरानी करना होता है, वे आंखें मूंदे बैठे हैं। जो हमारे समाज में जीवन मूल्यों के पराभव व माफिया तत्वों की निर्माण कार्यों में गहरी पैठ को ही दर्शाता है। यही वजह है कि भारी यातायात के दबाव वाले दौर में पुल अपना ही बोझ नहीं सम्भाल पा रहे हैं। यूं तो कभी किसी हादसे की वजह से भी पुल गिर सकते हैं, मगर निरंतर कई पुलों का कुछ ही दिनों में गिरना साफ बताता है कि दाल में काला नहीं बल्कि पूरी दाल ही काली है, जिसमें भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका है।
वहीं देश में मोदी सरकार के दो कार्यकाल में गुणवत्ता वाला हजारों किलोमीटर का हाईवे और एक्सप्रेसवे का निर्माण एक बड़ी मिसाल है, क्योंकि शीर्ष नेतृत्व की ईमानदार निगरानी है, लेकिन कमोबेश राज्यों के स्तर पर ऐसी सख्ती व निगरानी नजर नहीं आती। दरअसल सार्वजनिक निर्माण की गुणवत्ता की यदि समय-समय पर जांच होती रहे तो ऐसे हादसों से बचा जा सकता था। इन हादसों की वजह यह भी है कि स्थानीय राजनेताओं व दबंगों के गठजोड़ से ऐसे लोगों को ठेके मिल जाते हैं, जिनको न तो बड़े निर्माण कार्यों का अनुभव होता है और न ही गुणवत्ता को लेकर किसी तरह की प्रतिबद्धता होती है। नि:संदेह यह नागरिकों के जीवन से जुड़ा गम्भीर मामला है। इसलिए सरकार और निर्माण कार्य से जुड़ी एजेंसियों को इसे गम्भीरता से लेना चाहिए।
वहीं दूसरी ओर यदि निर्माण कार्य यूं ही ध्वस्त होते रहे तो इससे सरकारी निर्माण कार्य की लागत में बहुत ज्यादा वृद्धि हो जाएगी। सरकारी राजस्व की भी हानि होगी। अब समय की मांग है कि सार्वजनिक निर्माण में भ्रष्टाचार रोकने के लिए सख्त कानून बनाए जाएं। निश्चित रूप से सख्त कानून ही रोकेंगे सार्वजनिक निर्माण में भ्रष्टाचार की कुत्सित मानसिकता को। देश के नीति नियंताओं को इस संकट के समाधान और जन-धन की हानि रोकने के लिए कारगर और स्थायी प्रयास करने होंगे।
–अर्णव नैथानी