आज हिंदी अपने जिस वैभव के साथ विश्वभाषा बनने की ओर अग्रसर है। वह समस्त भारतीय भाषाओं एवं वैश्विक भाषाओं के मध्य संवाद का माध्यम बनकर विकसित हो रही है। इसके विकास में न केवल देश भर के मध्यकालीन संतो, कवियों और भक्तों की विशेष भूमिका रही है अपितु आधुनिक काल के अनेक विचारकों एवं राजनेताओं ने उसे भारत की सम्पर्क भाषा के रूप में विकसित होने का मार्ग प्रशस्त किया। ऐसा माना जाता है कि सर्वप्रथम बांग्लाभाषी केशवचंद्र सेन ने कहा कि भारत की सम्पर्क भाषा हिंदी बन सकती है। यह भी चिंतनीय है कि केशवचंद्र सेन ब्रह्म समाज के संस्थापकों में से एक थे और अंग्रेजी पर उनका अद्भुत अधिकार था। वे जब अंग्रेजी में भाषण देते थे तो लंदन में उन्हें सुनने के लिए अंग्रेजों की भीड़ से हॉल भर जाते थे। ऐसे व्यक्तित्व ने सर्वप्रथम हिंदी के राष्ट्रीय महत्व को समझा और 1875 में ही कहा था कि हिंदी में भावी भारत की सम्पर्क भाषा बनने की ताकत है। यही विचार हिंदी की मूल ऊर्जा बना। ऐसा माना जाता है कि केशवचंद्र सेन ने ही स्वामी दयानंद सरस्वती को सत्यार्थ प्रकाश हिंदी में लिखने के लिए कहा और यह सर्वविदित है कि हिंदी के विकास में सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य समाज की भूमिका कितनी बड़ी है। स्वामी जी की मातृभाषा गुजराती थी।
यह भी महत्वपूर्ण है कि हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने का पहला सुझाव उन्नीसवीं शती के सुप्रसिद्ध गुजराती कवि नर्मदालाल शंकर दवे ने 1880 में दिया था। उन्हें गुजरात नर्मद कवि के नाम से भी जानता है। हिंदी के विकास में गुजराती भाषियों की युगांतरकारी भूमिका रही है। वह इन्हीं के कारण स्वाधीनता आंदोलन की प्रमुख एवं आधिकारिक भाषा बनी। हिंदी की शक्ति को स्वाधीनता आंदोलन के कठिन संघर्ष के दिनों में सर्वप्रथम महाराष्ट्र से लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने पहचाना था। वे बंगभंग के साल 1905 में वाराणसी की यात्रा करते हैं, नागरी प्रचारिणी सभा की एक सभा को भी सम्बोधित भी करते हैं। हिंदी के विकास में काशी की नागरी प्रचारिणी सभा का अप्रतिम योगदान रहा है। उसी नागरी प्रचारिणी सभा में तिलक ने 1905 में कहा था कि नि:संदेह हिंदी ही देश की सम्पर्क और राजभाषा हो सकती है। इसके बाद महाराष्ट्र के नेताओं, साहित्यकारों, हिंदी प्रचार संस्थाओं और बालीवुड ने हिंदी के विकास में ऐतिहासिक कार्य किया। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान क्रांतिकारियों से लेकर राजनेताओं तक ने हिंदी को राष्ट्रभाषा एवं सम्पर्क भाषा के रूप में प्रयुक्त किया।
इसी तरह स्वामी दयानंद सरस्वती एवं नर्मद कवि के उपरांत गुजरात का अगला बड़ा नाम गुजराती भाषी महात्मा गांधी का आता है, लेकिन बहुत कम लोगों को पता है कि उनसे कई वर्ष पहले गुजराती भाषी नर्मदालाल शंकर दवे भी रहे, जिन्होंने हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने का सुझाव दिया था। महात्मा गांधी बहुभाषी थे, बावजूद इसके वे घोषणा करते हैं कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है। हिंदी हृदय की भाषा है और हिंदी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है। उनका स्पष्ट अभिमत था कि अखिल भारत के परस्पर व्यवहार के लिए ऐसी भाषा की आवश्यकता है जिसे जनता का अधिकतम भाग पहले से ही समझता है। हिंदी इस दृष्टि से सर्वथा उपयुक्त है। राष्ट्रीय व्यवहार में हिंदी को काम में लाना देश की शीघ्र उन्नति के लिए आवश्यक है।
गांधीजी 11 नवंबर 1917 को बिहार के मुजफ्फरपुर में दिए गए अपने भाषण में आह्वान करते हैं कि मैं कहता आया हूं कि राष्ट्रीय भाषा एक होनी चाहिए और वह हिंदी होनी चाहिए। हमारा कर्तव्य है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिंदी में करें। हमारे बीच हमें कानों में हिंदी के ही शब्द सुनाई दें, अंग्रेजी के नहीं। इतना ही नहीं हमारी सभाओं में जो वाद-विवाद होता है, वह भी हिंदी में होना चाहिए। ऐसी स्थिति लाने के लिए मैं जीवन भर प्रयत्न करुंगा। यदि भारतीय संविधान लागू होने तक गांधीजी जीवित रहते तो वे हिंदी को राष्ट्रभाषा बनवाकर ही मानते। हिंदी के प्रति उनकी अनन्य निष्ठा का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि जब एक विदेशी पत्रकार ने उनसे अपने प्रश्न का अंग्रेजी में उत्तर देने का आग्रह किया तो उन्होंने क्रोधित होकर कहा कि जाओ दुनिया से कह दो कि गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।
गांधीजी की भांति सुभाषचंद्र बोस भी हिंदी के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि हमें दूरदर्शी होना चाहिए। जिस तरह से हम स्वतंत्रता के लिए काम कर रहे हैं, उससे लगता है कि जल्दी ही भारत आजाद हो जाएगा। भारत के स्वतंत्र होने के बाद हम भारतीय जनता को अंग्रेजी भाषा से भी मुक्ति दिलाएंगे। ऐसे में हिंदी ही एकमात्र ऐसी भाषा होगी, जिसे ज्यादातर भारतीय समझेंगे और बोलेंगे। इसलिए हिंदी का अच्छा ज्ञान होना जरूरी है। इस तरह हिंदी को लेकर सुभाषचंद्र बोस का दृष्टिकोण अत्यंत सकारात्मक था। इसी तरह आचार्य विनोबा भावे भी हिंदी और नागरी लिपि के प्रबल समर्थक थे। गांधीजी ने जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा दिया तब उन्होंने पहले सत्याग्रही के रूप में विनोबा भावे का ही चयन किया। आचार्य विनोबा भावे की इच्छा थी कि नागरी लिपि भारत की एकता का जरिया बन सकती है, लेकिन राजनीति की दुरभिसंधि के चलते हिंदी को तो किनारे रखा ही गया, नागरी को भारतीय भाषाओं की लिपि बनाने के सुझाव की भी अनदेखी की गई। इस कारण आज तक भारतीय भाषाओं में संवाद की स्वाभाविक प्रक्रिया विकसित नहीं हो पाई।
हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी जिनकी मातृभाषा गुजराती है वे हिंदी के वैश्विक राजदूत और सुपर ब्रांड बन गए हैं। वे सम्पूर्ण विश्व के अलग-अलग हिस्सों में हिंदी में जिस प्रभावी तरीके से भाषण देते हैं और उन्हें सुनने के लिए जिस तरह भारी भीड़ जमा होती है, वह प्रकारांतर से हिंद और हिंदी की बढ़ती शक्ति का भी उद्घोष है। इन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा से लेकर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बिडेन के साथ वार्ता के दौरान ह्वाइट हाउस में भी हिंदी का ही प्रयोग किया। इसके अलावा जी-7, जी-20, एस.सी.ओ., क्वाड देशों, ब्रिक्स और आसियान समेत सभी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर हिंदी में प्रभावी वक्तव्य देकर हिंद और हिंदी का गौरव बढ़ाया है। आप विश्व स्तर पर हिंदी को प्रतिष्ठित कर रहे हैं। इस तरह हिंदीतर भाषियों ने हिंदी के विकास में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है।
आज हिंदी सम्पूर्ण भारत की समन्वयवादी संस्कृति और एकता की प्रतीक बन गई है। वह समस्त भारतीय भाषाओं और अंतरराष्ट्रीय भाषाओं के बीच सेतु का कार्य कर रही है। वह बदलते समय के अनुरूप अपने आपको समायोजित करते हुए भारतीय जन-मन की आकांक्षा को प्रतिबिंबित कर रही है। वह भारतीय संस्कृति का संरक्षण, संवर्धन और पुरस्करण कर रही है। इतना तय है कि आने वाले समय में विश्व की बड़ी भाषाओं का भविष्य और वर्चस्व बढ़ेगा, लेकिन जिन उपभाषाओं और बोलियों के बोलने वाले बहुत कम हैं उनके समक्ष अस्तित्व का संकट उपस्थित होगा। इन बोलियों को भी डिजिटलकरण द्वारा सुरक्षित किया जा सकता है। इस दिशा में विश्व समुदाय को और भी गम्भीर होने की जरूरत है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि हम नवीनतम तकनीक का सदुपयोग करके भारतीय भाषाओं के समक्ष आसन्न संकट का सफलतापूर्वक सामना कर सकेंगे।
इसी दिशा में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के रूप एक बड़ा कदम उठाया गया है। इस दृष्टि से यह स्वाधीन भारत का सबसे बड़ा प्रयास है। हमारी वर्तमान सरकार इसी वर्ष से अभियांत्रिकी और चिकित्सा की पढ़ाई हिंदी में आरम्भ करवाकर एक बड़े लक्ष्य की ओर कदम बढ़ा चुकी है। वर्तमान भारत सरकार में अनेक मंत्रालय अपना कार्य हिंदी के माध्यम से ही सम्पन्न कर रहे हैं। आज सचमुच हिंदी विश्व की सबसे तीव्र गति से बढ़ने वाली भाषा बन गई है।
– डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय