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तकनीक की दुनिया में हिंदी का बढ़ता दायरा

तकनीक की दुनिया में हिंदी का बढ़ता दायरा

by अभिषेक कुमार सिंह
in ट्रेंडींग, विशेष
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रोजी-रोजगार से जुड़े हर क्षेत्र में अंग्रेजी के छा रहे वर्चस्व को देखकर हिंदी के भविष्य को लेकर आशंकित रहने वाले लोग भी यह कहकर राहत की सांस लेते रहते हैं कि यदि हिन्दुस्थान में अंग्रेजी की इतनी चलती तो बॉलीवुड में भी उसका राज होता। वे इस सच्चाई की ओर ध्यान दिलाना नहीं भूलते कि लाख कोशिशों के बावजूद हमारे देश के सिनेमा और ओटीटी पर हिंदी का राज चलता है। सिनेमा की तरह एक दुनिया इंटरनेट की भी है जहां गूगल, फेसबुक, ट्विटर के बाद व्हाट्सएप और यूट्यूब तक को हिंदी के आगे घुटने टेकने पड़े और हिंदी बोलने-समझने वालों के लिए तकनीकी इंतजाम करने पड़े। पर क्या हिंदी वास्तव में तकनीक और साइबर दुनिया में जीत गई है? क्या उसने अंग्रेजी को उसी तरह पीछे छोड़ दिया है, जैसे कि सिनेमा में? साथ ही, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का बोलबाला होने के इस दौर में क्या हिंदी एआई की दुनिया में भी अपनी कोई छाप छोड़ पाएगी।

इतिहास में शायद यह बात पुरजोर ढंग से दर्ज की जाएगी कि हिंदी का एक स्वरूप इंटरनेट पर चिठ्ठों यानी ब्लॉगों, अखबारों-पत्रिकाओँ की हिंदी वेबसाइटों और फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब आदि में दिखाई देता रहा है। आज इंटरनेट पर हिंदी वेबसाइटों की संख्या हजारों में है। स्मार्टफोन के जरिये इंटरनेट की सहूलियत मिल जाने के बाद हिंदी में ईमेल ही नहीं, फेसबुक-ट्विटर-व्हाट्सएप के माध्यम से हिंदी में खतो-किताबत करने वालों की संख्या भी लाखों-करोड़ों में पहुंच चुकी है। हालांकि हिंदी का साइबर संसार इससे कहीं ज्यादा बड़ा है। उसमें ब्लॉगों के अलावा हिंदी में ईमेल करने और ट्वीट करने और सामग्री खोजने (सर्च करने) के कई और आयाम जुड़ चुके हैं। पूरी दुनिया के लगभग 5 करोड़ यूट्यूब चैनलों की तुलना में हमारे देश में करीब 20 लाख से ज्यादा यूट्यूब चैनल हैं। हालांकि देश में जो करीब 61 करोड़ लोग हिंदी भाषा को बरतते हैं, उनके लिए अब भी इंटरनेट पर कम ही कंटेंट (सामग्री) मौजूद है, जो कुल इंटरनेट ट्रैफिक का करीब 2 प्रतिशत ठहरती है। इससे लगता है कि हिंदी का तकनीकी और साइबर संसार कई विसंगतियों और दुविधाओं का शिकार भी है। इसलिए जब तक ये दुविधाएं और इनसे जुड़े सारे संशय दूर नहीं होते, हिंदी के ज्यादा विस्तार की गुंजाइश नहीं बनेगी क्योंकि अब किसी भाषा के लिए सबसे ज्यादा संभावनाएं तकनीक के क्षेत्र में ही बनती हैं।

जहां तक ब्लॉगों की बात है तो हिंदी में ब्लॉगिंग शुरू हुए दो दशक से ज्यादा का अरसा बीत चुका है। तथ्यों के मुताबिक 2003 में पहली बार लोगों ने हिंदी के अपने ब्लॉग बनाने शुरू किए थे। ब्लॉग का फायदा यह था कि दुनिया के किसी भी कोने में बैठा व्यक्ति इंटरनेट पर कुछ भी लिखकर अपने ब्लॉग में डालता है, तो वह तुरंत संबंधित एग्रीगेटर (ब्लॉग संचालक नेटवर्क) पर नजर आ जाता था। ब्लॉग को आप इंटरनेट पर निजी डायरी जैसी चीज मान सकते हैं, जिसे बनाने और चलाने में कंप्यूटर और इंटरनेट के इस्तेमाल के अलावा कोई खर्च नहीं होता। इस पर आसानी से प्रतिक्रिया भेजी जा सकती है। साइबर हिंदी के विस्तार में सबसे पहले ब्लॉगिंग का उल्लेख इसलिए जरूरी है क्योंकि इंटरनेट पर हिंदी के विस्तार में ब्लॉगिंग की परंपरा ने ही सबसे अहम भूमिका निभाई थी। आज की तारीख में लिखे गई सामग्री के रूप में ब्लॉग का स्थान दृश्यात्मक सामग्री (विजुअल कंटेंट) ने ले लिया है जो यूट्यूब और इंस्टाग्राम के रूप में हमारे सामने हैं।
अंग्रेजी और दूसरी पश्चिमी भाषाओं के मुकाबले हिंदी की तकनीकी क्षेत्र में उपस्थिति बेहद सीमित होने का एक बड़ा कारण यह था कि उस पर हिंदी कैसे लिखी जाए। लेकिन यूनिकोड के वजूद में आने के बाद से यह दुविधा तकरीबन खत्म हो गई। यूनिकोड यानी मंगल और कृतिदेव जैसे फॉन्ट के अस्तित्व में आ जाने के बाद कंप्यूटर और स्मार्टफोन पर लिखी जाने वाली हिंदी में कमोबेश एकरूपता आ गई है। इसका एक प्रत्यक्ष लाभ यह हुआ है कि अब ज्यादातर हिंदी अखबारों के ऑनलाइन संस्करण प्रकाशित होने लगे हैं।

उनके लेखक-पत्रकारों का काम भी पहले के मुकाबले काफी आसान हो गया है। अब वे स्मार्टफोन से अथवा लैपटॉप आदि के जरिए कहीं से भी और कभी भी अपनी रिपोर्ट और लेख सीधे अखबारों-पत्रिकाओं को भेज सकते हैं। अखबारों में भी अब यूनिकोड का प्रचलन हो जाने के कारण उन रिपोर्टों-लेखों को फॉन्ट परिवर्तन किए बगैर प्रकाशित किया जा सकता है। यूं साइबर हिंदी का सवाल सिर्फ भाषा और शब्दावली की एकरूपता तक सीमित नहीं है। एक बड़ा सवाल यह भी रहा है कि आखिर कब हम किसी वेबसाइट का पता यानी यूआरएल हिंदी (देवनागरी) में लिखने पर खोल पाएंगे। वैसे तो इस संबंध में सरकार ने अपनी ओर से कमी नहीं रखी है। उसने वर्ष 2014 में ही यह ऐलान कर दिया था कि लोग हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में किसी वेबसाइट का यूआरएल टाइप करके उसे खोल सकते हैं। हालांकि ज्यादातर मामलों में अब भी कोई भी वेबसाइट खोलने के लिए उसका पता या यूआरएल अंग्रेजी में ही टाइप करना पड़ता है।

इसी तरह अब से करीब दो साल पहले चैटजीपीटी के रूप में ओपन एआई की ओर कृत्रिम बुद्धिमता की जो नई हलचल शुरू हुई थी, उसमें अब हिंदी की मौजूदगी का सवाल भी उठने लगा है। यहां एक सवाल पूछा जा सकता है कि क्या एआई के जरिए हिंदी में पूछी गई जिज्ञासाओं का कोई उत्तर इसी भाषा में मिल सकता है। असल में, यहां एक तकनीकी प्रावधान ने हिंदी की मुश्किलें थोड़ी आसान कर दी हैं। उल्लेखनीय यह है कि आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस एक तकनीक नैचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग (एनएलपी) की तरह इसे भाषा विज्ञान से जोड़ने वाला नया आविष्कार है। यानी यह एक ऐसी तकनीक है, जिसकी मदद से लोग अपनी स्वाभाविक भाषाओं के जरिए मशीनों से संवाद कर सकते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि एआई को जिस भाषा में संवाद करने के हिसाब से विकसित किया जाएगा, यह तकनीक इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्रियों में से बेहतर का चुनाव करते हुए उसी भाषा में उत्तर उपलब्ध कराएगी। एआई को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कोई सवाल या जिज्ञासा किस भाषा में उसके सामने रखी गई है। वह सवाल के मुताबिक इसकी खोज करती है कि क्या संबंधित भाषा के अलावा अन्य भाषाओं (जैसे कि हिंदी में पूछे गए सवाल के जवाब हिंदी के अलावा अंग्रेजी आदि) में उपलब्ध हैं या नहीं। यदि वे सामग्रियां वहां मौजूद हैं, तो एआई तुरत-फुरत सभी सामग्रियों को संयोजित करते हुए हिंदी अथवा अन्य वांछित भाषा में समाधान प्रस्तुत कर देती है।

लेकिन तकनीक और साइबर क्षेत्रों में साइबर हिंदी के विस्तार में जो चीजें बाधक हैं, वे असल में देश के बुनियादी विकास, गरीबी और साक्षरता आदि से जुड़ी हैं। अभी भी चूंकि हिंदी पट्टी का समाज बिजली और इंटरनेट कनेक्शन आदि बुनियादी सुविधाओं से महरूम है, इसलिए उसका इंटरनेट की हिंदी से कोई प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं हो पा रहा है। ऐसे में इंटरनेट या तकनीक के क्षेत्र में होने वाली तरक्की में यह तबका हिस्सेदार नहीं बन पा रहा है। इंटरनेट पर हिंदी के लिए जितने प्रबंध हैं, उनमें से ज्यादातर हमारे शहरों तक सीमित हैं। देश के करोड़ों हिंदीभाषियों के नजरिए से देखने पर यही लगता है कि यदि इंटरनेट पर इस विशाल आबादी को अपनी बातें कहने का मंच मिल जाए और इंटरनेट से जुड़ी मौलिक सुविधाएं मिल जाएं, तो सच में देश में एक बड़ी क्रांति आ सकती है। हिंदी का यह साइबर और तकनीक का संसार एक दायरे में बंधकर नहीं रह जाए, इसके लिए जरूरी है कि आम जनों की इंटरनेट साक्षरता की दिशा में काम किया जाए और बिजली व सस्ते ब्रॉडबैंड कनेक्शन जैसी सहूलियतें गांव-देहात में भी पहुंचाई जाएं जहां खेती-किसानी से लेकर राजनीति के बड़े फायदे के सूत्र रचे जा सकते हैं। हिंदी के साइबर संसार को फिलहाल इसे पेश आ रही दिक्कतों-अड़चनों से बाहर निकालना होगा और इसके सतत विकास का मार्ग प्रशस्त करना होगा।

 

 

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