प्रति वर्ष हम 14 सितम्बर को हिंदी दिवस मनाते हैं, तो क्या हिंदी दिवस सम्पूर्ण भारत में मनाया जाता है, या यह केवल केन्द्रीय सरकार के विभागीय समारोह तक ही सीमित रह गया है। आज हम इन पर विचार नहीं करेंगे, विचारणीय तो यह है कि क्या भारत के दक्षिण राज्यों में केरल, तमिलनाडु, पुदुचेरी, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में भी उसी उल्लास से हिन्दी दिवस मनाते हैं। इसका उत्तर हां तो हो ही नहीं सकता है। इसका कारण क्या हो सकता है, जब इसकी गहराई में परख करने का प्रयत्न किया तो दृश्य स्पष्ट होने लगा, भारत के दक्षिणी राज्यों में आमजन किसी भी भाषा का विरोध नहीं करते हैं, हां, यह जरूर है कि दक्षिणेतर लोगों की ओर से जब-जब भाषा हो या फिर उनकी जीवनशैली और खान-पान पर विपरीत टिप्पणियां की जाती हैं तो उसकी प्रतिक्रिया में विरोधी गतिविधियां आरंभ हो जाती हैं। लेकिन इस विरोधी गतिविधियों को प्रचन्डता तभी मिलती है जब इसे राजनीतिक स्वार्थ के कारण अलगाववादी भावनाओं को उभारा जाने लगता है।
भारत के दक्षिणी राज्यों में हिन्दी साहित्य के विद्वानों की लम्बी श्रृंखला ही है। जो अपनी-अपनी मातृभाषा के साथ ही हिन्दी भाषा को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। मुझे केरल प्रवास के समय हिंदी भाषा को लेकर जो अनुभव हुआ, उसका उल्लेख करना आवश्यक समझता हूं। हिन्दी भाषा के अध्ययन और अध्यापन कार्य जिस गति से होता दिखाई दिया उससे तो यही लगा कि मलयालम भाषा के साथ ही यहां के हिन्दी साहित्य के विद्वानों ने तथ्यात्मक रूप से अगली संततियों को यह समझाया है कि समग्र भारत में सम्पर्क की भाषा तो हिन्दी ही है। यही कारण है कि यहां हिन्दी का विरोध राजनीतिक स्वार्थ के कारण कुछ नेताओं का पसंदीदा मुद्दा है।
जब भी कोई भाषा रोजगार का साधन बनती है तो निश्चित ही उसकी लोकप्रियता केवल और केवल जीविकोपार्जन तक ही सीमित रहती है, भाषा के विभिन्न आयामों की समृद्धि की बात तभी हो सकती है जब अपनी मातृभाषा से इतर अन्य भाषाओं के सीखने के प्रति मन में ललक पैदा हो, भारत के दक्षिणी राज्यों में हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए अनेक संस्थाएं काम कर रही हैं। यहां के सरकारी और निजी शिक्षण संस्थानों और विश्वविद्यालयों में भी हिन्दी भाषा को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है।
स्वातंत्र्य आन्दोलन में पूर्व पश्चिम और उत्तर दक्षिण के क्षेत्रों में महात्मा गांधी ने हिन्दी को ही सम्पर्क की भाषा के निमित्त उपयोग किया था।
देश के हिन्दी भाषी राज्यों में जिस तरह से भारत के दक्षिणी राज्यों में हिन्दी विरोधी छवि को प्रस्तुत किया जाता है, उसका कारण है, भारत सरकार द्वारा 14 सितम्बर 1949 को हिन्दी को राजभाषा घोषित किया जाना। दक्षिणी राज्यों में भारत सरकार द्वारा राजभाषा की घोषणा को “हिन्दी थोपने” की बात कर,तमिल भाषियों में हिन्दी के प्रति विद्रोह पैदा करना, यद्यपि उस समय की कांग्रेस सरकारों ने हिन्दी विरोध की भावनाओं को समाप्त करने की दिशा में कारगर कदम नहीं उठाया। चुनावों में क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने हिन्दी विरोध को मुख्य मुद्दा बनाया, फलस्वरूप 1967 के बाद से ही कांग्रेस तमिलनाडु की राजनीति से लगभग साफ हो गई। अब भाषा, अस्मिता, लोककथा और लोककला की पहचान को बचाने के लिए जनता को उद्वेलित कर अपनी सत्ता बरकरार रखने की रणनीति पर क्षेत्रीय दल चल रहे हैं।
हिन्दी पूरे भारत में सामाजिक समरसता की महत्वपूर्ण भूमिका तभी निभा सकती है जब हिन्दी भाषी राज्यों के शैक्षणिक संस्थानों में अन्य भारतीय भाषाओं के पठन-पाठन की सुविधा उपलब्ध कराई जाएं और परस्पर साहित्यिक गतिविधियों को संचालित किया जाए। साहित्यिक कृतियों के अनुवाद करवाकर उन्हें पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए।