देश के प्रत्येक राज्य में लाखों की संख्या में लड़कियों, महिलाओं एवं बच्चों का गायब होना, कोई सामान्य घटना नहीं है। इसके पीछे राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय स्तर पर किसी बड़े माफिया गिरोह का हाथ है। लव जिहाद, यौन शोषण, मानव तस्करी, धर्मांतरण जैसी राष्ट्रविरोधी गतिविधियों से भी इसके तार जुड़े हुए हैं।
स्त्रियों के साथ केवल बलात्कार के मामले ही नहीं, बल्कि देश भर में महिलाओं और लड़कियों के लापता होने के मामले भी बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन 345 लड़कियां गायब हो जाती हैं। इनमें से 170 का अपहरण होता है, 172 का पता नहीं चलता और लगभग 3 लड़कियां तस्करी का शिकार हो जाती हैं। संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष द्वारा जारी 2020 की वैश्विक जनसंख्या की स्थिति रिपोर्ट के अनुसार भारत में साल 2020 तक 4.58 करोड़ और चीन में 7.23 करोड़ महिलाएं लापता हुई हैं। इतनी बड़ी संख्या में लड़कियां और स्त्रियां कहां गईं, इनके साथ क्या हुआ, इसके बारे में किसी को कुछ भी नहीं पता है।
2019 से 2021 के बीच मध्य प्रदेश से 1,60,180 महिलाएं और 38,234 लड़कियां लापता हुईं। इसी अवधि में पश्चिम बंगाल से 1,56,905 महिलाएं और 36,606 लड़कियां लापता हुईं। महाराष्ट्र से 2019 से 2021 के बीच 1,78,400 महिलाएं और 13,033 लड़कियां लापता हुईं। केंद्रीय गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2019 से 2021 के बीच देश भर में 18 वर्ष से अधिक आयु की 10,61,648 महिलाएं और उससे कम आयु की 2,51,430 लड़कियां लापता हुईं। इसी तरह, इसी अवधि के दौरान ओडिशा में 70,222 महिलाएं और 16,649 लड़कियां लापता हुईं, जबकि छत्तीसगढ़ से 49,116 महिलाएं और 10,817 लड़कियां लापता हुईं।
वहीं दिल्ली में इसी अवधि में 61,054 महिलाएं और 22,919 लड़कियां लापता हुईं, जबकि जम्मू कश्मीर से 8,617 महिलाएं और 1,148 लड़कियां लापता हुईं। गैर सरकारी संस्था क्राई की 2022 की एक रिपोर्ट की मानें तो 2021 में सिर्फ राजस्थान और मध्य प्रदेश में लापता लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना में पांच गुना अधिक थी। उत्तराखंड पुलिस मुख्यालय की ओर से आरटीआई में दिए एक उत्तर के अनुसार उत्तराखंड में जनवरी 2021 से लेकर मई 2023 तक 29 महीनों में 3,854 महिलाओं और 1,134 लड़कियों के गुमशुदा होने की रिपोर्ट दर्ज की गई, लेकिन गुमशुदगी के हजारों मामले ऐसे भी हैं जो पुलिस तक नहीं पहुंच पाते।
भारत में लापता और अपहृत बच्चों में लड़कियों का उच्च अनुपात गम्भीर चिंता का विषय है। 2022 में कुल 83,350 लापता बच्चों में से 62,946 लड़कियां थीं। इसका अर्थ है कि लापता बच्चों में 75 प्रतिशत से अधिक लड़कियां थीं। अखिल भारतीय स्तर पर कुल लापता बच्चों में लड़कियों का अनुपात 2016 में लगभग 65 प्रतिशत से बढ़कर 2022 में 75 प्रतिशत हो गया है। ऊपर बताए गए सभी राज्यों में यही रुझान रहा है।
लापता मामलों के कारण जटिल और बहुआयामी हैं, जैसे व्यावसायिक यौन कार्य, घरेलू हिंसा/दुर्व्यवहार, यौन हिंसा या उपेक्षा के कारण लड़कियों का खुद भाग जाना। कई मामलों में ये लड़कियां अपनी पसंद के साथी से विवाह करने के लिए स्वेच्छा से अपना घर छोड़ देती हैं, जो प्राय: उनके परिवारों या सामाजिक मानदंडों के विरुद्ध होता है। जबकि कुछ भागने में शामिल लड़कियों द्वारा वास्तव में सहमति से निर्णय होना भी सम्भव हो सकता है, अन्य में जबरदस्ती या हेरफेर का मामला भी हो सकता है। एनसीआरबी डेटा एक परेशान करने वाली वास्तविकता को दर्शाता है- अपहरण और तस्करी के लिए युवा लड़कियों का असुरक्षित होना।
भारत में बाल तस्करी का एक महत्वपूर्ण कारण गरीबी भी है। वंचित समुदायों के लिए गरीबी और अवसरों की कमी कमजोर परिवारों को हताशा में धकेलती हैं, जिससे वे तस्करों के लिए अति संवेदनशील और आसान शिकार हो जाते हैं। साथ ही भारतीय समाज में लैंगिक भेदभाव के कारण भी लड़कियां तस्करी की शिकार होती हैं, खासतौर पर यौन शोषण और जबरन मजदूरी के लिए।
आंकड़ों से पता चलता है कि 37 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से केवल 18 ही 2017 और 2021 के बीच लापता हुई 50 प्रतिशत से अधिक महिलाओं का लगातार पता लगाने में सफल रहे हैं। पंजाब और चंडीगढ़ में पिछले पांच वर्षों में लापता हुई कुल महिलाओं में से केवल एक चौथाई से भी कम का पता लगाया गया है। लापता महिलाओं का पता लगाने में खराब प्रदर्शन करने वाले अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में बिहार, छत्तीसगढ़, गोवा, दिल्ली, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, लद्दाख, जम्मू और कश्मीर और अंडमान और निकोबार द्वीप समूह शामिल हैं, जहां बरामदगी का प्रतिशत 50 प्रतिशत से कम बताया गया है।
अपनी मर्जी से घर छोड़ने वाली महिलाओं के साथ जुड़ी सामाजिक छींटाकशीं के भय से माता-पिता प्रायः समाज में अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए गुमशुदगी की शिकायत दर्ज कराते हैं। हालांकि अधिकतर दर्ज मामले पारिवारिक विवादों, जबरन शादी से बचने की चाहत और बेहतर जीवन या करियर की चाहत के कारण होते हैं। मामले दुर्घटना के भी हो सकते हैं, जहां अज्ञात शवों को गुमशुदा व्यक्ति के रूप में दर्ज किया जाता है।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट ‘महिलाओं और बच्चों की तस्करी: चुनौतियां और समाधान’ के अनुसार श्रम और यौन तस्करी के लिए, भारत एक स्रोत, गंतव्य और ट्रांजिट देश है। भारत में 90 प्रतिशत मानव तस्करी देश के भीतर होती है, जबकि 10 प्रतिशत राष्ट्रीय सीमाओं के पार होती हैैं। आंकड़ों के अनुसार भारत में मानव तस्करी के शिकार 95 प्रतिशत लोगों को जबरन सेक्स ट्रैफिकिंग में डाल दिया जाता है। चिंता वाली बात यह है कि दर्ज 16 प्रतिशत मामलों में पुलिस आरोपपत्र ही दाखिल नहीं कर पाती। करीब 80 प्रतिशत मामलों में आरोपी कोर्ट से बरी हो जाते हैं। तेलंगाना और महाराष्ट्र में मानव तस्करी की सबसे ज्यादा शिकायतें दर्ज होती हैं।
इन्हीं सब कारणों से भारत को दुनिया में टीयर-2 श्रेणी में रखा गया है। टीयर-2 श्रेणी उन देशों के लिए है, जहां सरकारें मानव तस्करी को रोकने के लिए न्यूनतम मानकों का पूरी तरह से पालन नहीं कर पाती हैं। हांलाकि भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली में हाल ही में किए गए क्रांतिकारी परिवर्तनों से स्थिति में सुधार की सम्भावनाएं बढ़ी हैं। महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अपराधों को बीएनएस के एक अध्याय में समेकित किया गया है। दोनों वर्गों के खिलाफ अपराधों को पीड़ित और अपराधी दोनों के संदर्भ में लिंग तटस्थ बनाया गया है।
स्त्रियों को भले ही हमने देवी के रूप में मंदिरों में स्थापित कर रखा है या नवरात्रों में कन्या-पूजन का मानक बना रखा है, बावजूद इसके स्त्रियां पहले से ही भ्रूण हत्या, यौन हिंसा, दहेज, मानसिक प्रताड़ना जैसी यातनाओं से एक लम्बे समय से जूझ रही हैं। स्त्रियों और लड़कियों का गायब होना एक गम्भीर समस्या है, जो सामाजिक मानदंडों से जुड़ी हैैं। इसलिए इसे सिर्फ कानूनी उपायों, सरकारी कार्यक्रमों या पहलों के जरिए हल नहीं किया जा सकता। हमें रोजगार, आजीविका की सम्भावनाओं की कमी, लैंगिक भेदभाव जैस गम्भीर चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए इसकी रोकथाम के लिए सोचना होगा।