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मिथिला का गौरवशाली इतिहास

मिथिला का गौरवशाली इतिहास

by हिंदी विवेक
in नवम्बर २०२४, विशेष, संस्कृति
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मिथिला का वैभवशाली इतिहास यह बताता है कि हम क्या थे और क्या हो गए? यदि बिहार राज्य और केंद्र सरकार चाहे तो मिथिला का स्वर्णिम युग पुन: लौट सकता है। राजा जनक, माता जानकी, प्रभु श्रीराम और भगवान बुद्ध के चरणकमल से पावन मिथिला भूमि सरकार की उपेक्षा के कारण अब तक विकास से वंचित है।

भारतवर्ष में मिथिला (तीरभुक्ति अथवा तीरहुति वा तिरहुत) का स्थान विशिष्ट एवं प्राचीनतम है। इस जनपद के प्राचीन निवासी एवं भूपतिगण अपने शुद्धाचार, ज्ञान, विज्ञान, विभव तथा न्यायप्रियता के लिए प्रसिद्ध थे। उनका शौर्य एवं पराक्रम भी अदम्य था। उनके आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही पक्ष श्लाघ्य और आदर्श थे। प्रागैतिहासिक काल से मिथिला का आर्थिक, औद्योगिक एवं सामरिक विकास भी होता रहा। इसका उल्लेख ‘शतपथ ब्राह्मण’, ‘रामायण’, ‘महाभारत’, ‘पुराण’ आदि प्राचीन साहित्य में उपलब्ध है। मिथिला जनपद की लम्बाई 24 योजन अथवा 192 मील तथा चौड़ाई 16 योजन अथवा 128 मील थी। बृहद् विष्णुपुराण के मिथिला खण्ड में मिथिला (तीरभुक्ति) की सीमाओं के विषय में निम्नांकित रूप में वर्णन किया गया है –

गंगाहिमवतोर्मध्ये नदी पंचदशान्तरे।

तैरभुक्तिरिति ख्यातो देश: परमपावन:।

मिथिला के प्रख्यात विद्वान कविवर पं. चंदा झा ने मिथिला व तीरहुति अथवा तिरहुत की सीमाओं का अंकन नीचे लिखे छंद में किया है :

गंगा बहथि जनकि दक्षिण दिशि पूर्व कौशिकी धारा।

पश्चिम बहथि गंडकी उत्तर हिमवत बलविस्तारा॥

कमला त्रियुगाअमृता धेमुरा, वाग्मती कृत सारा।

मध्य बहथि लक्ष्मणा प्रभृत्ति, से मिथिला विद्यागारा॥

इस भूभाग के प्रथम नृपति प्राचीन ग्रंथों के अनुसार सूर्यकुलोद्भव महाराज मनु के तनय इक्ष्वाकु के पुत्र निमि थे। मिथिला नाम महाराजा मिथि के नाम पर हुआ है। वैदिक उपनिषद काल में मिथिला की विदेह राज्य सभा अति सम्माननीय एवं सर्वमान्य थी, जिसके प्रधान सभासद अध्यात्म, विद्या तथा दर्शन शास्त्र विशारद अरुणी शिष्य देवरथ पुत्र ऋषि याज्ञवल्क्य थे, जो वेदों की अनेक ऋचाओं के कर्ता थे। उस काल का विदेह राज्य विद्या कला में अति समुन्नत था। राज्य में स्त्री शिक्षा चरम सीमा तक पहुंच चुकी थी। अति गहन दार्शनिक विषयों पर हुए मैत्रेयी-याज्ञवल्क्य तथा याज्ञवल्क्य-गार्गी संवादों का उक्त ‘वृहदारण्यकोपनिषद्’ में जो वर्णन आया है, वह उस प्राचीन काल में भी स्त्रियों के अपरिमित वैदिक एवं दार्शनिक ज्ञान का द्योतक है।

विदेह भूमि मिथिला का सर्वांगीण विकास (आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं भौतिक) ब्राह्मण काल तथा सूत्र काल के बहुत पूर्व संहितायुग के आदि में ही हो चुका था। वैदिक समाज में विशेषकर ब्राह्मण-काल में, विदेहों की मान प्रतिष्ठा अत्यधिक हो चुकी थी, जिसके फलस्वरूप वे अति पुराकाल में आर्य संस्कृति के प्रतीक माने जाते थे। बौद्ध जातक ग्रंथों से विदेहों के भौतिक विकास पर भी प्रकाश पड़ता है। उन ग्रंथों में विदेह जनपद के अतुल बल-विभव, नगर-निर्माण, पुर-द्वार, प्राकार, वीथियों, मनोरम उपवन, सेवा, सामरिक सामान, योद्धा, गोधन, अश्व, गज, रथादि, राजकर्मचारी एवं पदाधिकारीगण आदि का अलौकिक वर्णन किया गया है। शुकदेव ऋषि राजा जनक की मिथिला नगरी में पहुंचकर तथा उसके वैभव को देखकर भौंचक से रह गए थे। उस काल की मिथिला का वर्णन ‘महाभारत’ में किया गया –

‘पत्तनानि च रम्याणि स्फीतानि नगराणि च।

रत्नानि च विचित्राणि शुक: पश्यन्न पश्यति।

मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के साथ कौशलेश दशरथ कुमार राम ने सानुज मिथिला की यात्रा की थी। तपोवन में उत्पाती राक्षसों का वध कर सभी ने गंगा नदी पार की और मिथिला पहुंचे। वैशाली में नरेश सुमति ने उन सभी का आतिथ्य किया। भगवान राम ने मार्ग में एक सुंदर एवं परित्यक्त आश्रम में पति श्राप से शिलाभूत गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार किया। अहिल्या उद्धार का स्थान दरभंगा जिले के सदर अनुमंडल में कमतौल रेलवे स्टेशन के निकट अहियारी ग्राम में है। वाल्मीकीय रामायण के 49वें तथा 50वें सर्गों में भगवान राम के मिथिलागमन का वर्णन किया गया है।

अहिल्या उद्धार के पश्चात राम और लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ जनकपुर की दिशा में अग्रसर हुए। उन सभी को जनक नगर के सन्निकट वर्तमान फुलहर एवं विसौल ग्राम मिला। राजा सीरध्वज जनक की फुलवारी फुलहर में ही थी। यहां बाग-तड़ाग था और देवी गिरि-राजकुमारी का पवित्र मंदिर भी था। विसौल ग्राम विश्वामित्र आश्रम का बोध कराता है, जहां ऋषि प्रवर ने सबंधु राम के साथ विश्राम किया था तथा समाचार पाकर राजा जनक ब्राह्मण मंडली के साथ उनसे मिलने आए थे। फुलहर में गिरिजा पूजन हेतु राजकुमारी जानकी आती-जाती थीं। विदेह राज का मिथिला नगर, जिसका नाम ‘जनकपुर’ पड़ गया, कोशलेश कुमार राम का पावन श्वसुरालय था, जहां चारों भाइयों के विवाह हुए थे। उसी नगर से कुछ दूरी पर दुष्काल से प्रजावर्ग के त्राण हेतु लक्ष्मणा नदी के किनारे पुनौरा (पुण्डरीक आश्रम) अथवा सीता-मही (वर्तमान सीतामढ़ी) में हलकर्षण यज्ञ करते समय सम्राट् सीरवध्वज जनक ने स्वयं हल चलाया था, जिससे प्रजा का कष्ट तो मिटा ही और साथ ही राजा के हल की नोंक की उर्वी (पृथ्वी) के वक्षस्थल में लगते ही एक दिव्य शक्ति प्रादुर्भूत हुई, जिसने तत्काल पैशाचिक वृत्तियों का विनाश किया और वह सदा के लिए भविष्य पथ को आलोकित करनेवाली अलौकिक ज्योति उर्वीजा, सीता के रूप में विश्व को दे गई। ‘बृहद् विष्णु पुराण’ के अनुसार राजा सीरध्वज जनक ने वह अनुष्ठान अपने दुर्ग से पश्चिम दिशा में जाकर किया था –

‘दुर्गात्पश्चिमतो भागे योजनत्रितयं परम्

यज्ञस्थलं नरेन्द्रस्य यत्र लांगलपद्धतौ।

संस्कृत में ‘सीता’ उस रेखा को कहते हैं जो जमीन जोतते समय हल की फाल से पड़ती जाती है। जानकी की उत्पत्ति हल जोतने के कारण फल की नोंक से बनी चीरा से हुई थी। जनश्रुति बताती है कि माया स्वरूपिणी उर्वीजा सीता के उत्पन्न करने के कारण वहां की उर्वी (भूमि, पृथ्वी) पुण्यम हो गई और इसी कारण उस भूमि का नामकरण पुण्य-उर्वी हुआ जो आगे चलकर बिगड़ते-बिगड़ते विकृत रूप में ‘पुनौरा’ कहा जाने लगा।

आरम्भ में मिथिला और वैशाली, दोनों ही राज्यों में राजतंत्र शासन था। ऐतिहासिक युग में राजतंत्र के स्थान पर हम वहां उच्चकोटि का विकसित गणतंत्र पाते हैं। राजनीतिक उथल-पुथल के कारण वैशाली में गणतंत्र ने राजतंत्र का स्थान ले लिया, किंतु यह घटना कब घटी, इसका पता ठीक-ठीक बताने में इतिहास सक्षम न हो सका है। वैशाली का गणतंत्र भिन्न-भिन्न कई गणों के नेताओं का संघ शासन था, जो वज्जिसंघ के नाम से प्रख्यात था।

मगध नरेश बिम्बिसार ने ईसा-पूर्व 530 में लिच्छवि-भूप चेतक की कन्या चेल्लना से विवाह किया। बिम्बिसार को चेल्लना रानी से अजातशत्रु (कुणिक) नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस अजातशत्रु ने 590 वर्ष ई.पू. अपने मातामह लिच्छवि नरेश चेतक के विरुद्ध उसकी राजधानी वैशाली पर आक्रमण किया। उस चढ़ाई के पूर्व उसने अपने प्रधान मंत्री वर्षकार (वस्साकार) को छलछद्म के साथ वैशाली भेजा था, जिसने अपनी कपट एवं कूटनीति से संघ में फूट उत्पन्न कर उसकी एकता को नष्ट कर दिया। फलत: लिच्छवी और मल्लकी की संयुक्त संघ सेना की हार हुई। अजातशत्रु ने अपने मातामह (नाना) के संघ राज्य पर अधिकार कर लिया। वैशाली में गणतंत्र के स्थान पर पुन: राजतंत्र की स्थापना हुई। एक बार वैशाली में भयंकर महामारी का प्रकोप हुआ। उससे त्राण पाने हेतु भगवान बुद्ध को वैशाली निवासियों ने आमंत्रित किया। उनके वहां पदार्पण करते ही महामारी के प्रकोप से पीड़ित एवं भयभीत प्रजा की रक्षा हुई। उनके उस प्रभाव ने वहां की जनता को उनका अनन्य भक्त बना दिया। लोगों का आकर्षण उनके प्रति हुआ। परिणामस्वरूप वैशाली में बौद्ध धर्म का विकास हुआ और उनके शिष्य समुदाय की संख्या में वृद्धि हुई। उस समय भगवान बुद्ध वैशाली से लौट गए, परंतु अपने जीवनकाल में पुन: दो बार उन्होंने वहां पधारने की कृपा की। महानिर्वाण प्राप्ति हेतु कुशीनगर की यात्रा करते समय तथागत वैशाली होकर ही मल्लों के उस ग्राम में गए थे। अपने मौसेरे भाई एवं प्रिय शिष्य आनंद तथा उसकी वृद्धा विधवा माता के अनुरोध करने पर वैशाली में ही सर्वप्रथम भगवान गौतम बुद्ध ने स्त्रियों को संघ की शरण में लेना स्वीकार किया था, जो आगे चल कर बौद्ध धर्म के विकास तथा प्रसार में बाधक एवं घातक सिद्ध हुआ। हालांकि लिच्छवियों ने भी तथागत तथा उनके अनुयायी शिष्यों के प्रति श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेम रखते हुए उनके लिए अपने नगर एवं राज्य में अनेक चैत्य, मठ और विहार बनवाए तथा अनेकानेक सरोवर खुदवाए। ‘महावस्तु’ तथा ‘बुद्ध चरित्र’ के वर्णनानुसार गौतम बुद्ध ने वैशाली के महाज्ञानी आचार्य अलार के आश्रम में विद्याध्ययन समाप्त कर राजगृह की यात्रा की थी। ‘ललित विस्तर’ तथा ‘दीघनिकाय’ का महासच्चक सुत्त भी उपर्युक्त कथन का अनुमोदन करता है कि बुद्धदेव ने अनुप्रिया से चलकर अलार एवं उद्रक के आश्रमों में शिक्षा प्राप्त की और तब वे मगध आए। अलार कलाम और उद्रक दोनों भाई थे और उनका आश्रम वैशाली जनपद में था।

पुराकाल में नेपाल की तराई भूमि का अखंड सम्बंध मिथिला से था। सम्भवत: मिथिला और नेपाल के विजेता कर्णाट कुल के सूर्यवंशीय क्षत्रिय राजा नान्यदेव के पौत्र नरसिंह देव के शासनकाल में उसके चचेरे भाई मल्लदेव का पुत्र जो नेपाल का शासक था, ने गृहकलह में फंसकर अपने द्वारा शासित भू-भाग को स्वतंत्र कर दिया। मिथिलेश्वर नरसिंह देव एवं उसके बीच झगड़े के कारण नेपाल का वह भाग सदा के लिए मिथिला से पृथक होकर स्वतंत्र राष्ट्र बन गया। भाई-भाई के बीच विरोध का यह दुस्सह एवं दुखद परिणाम था, जिसने स्थायी रूप धारण कर अभिन्न अंग को सदा के लिए भिन्न कर दिया। आज भी मिथिला का इतिहास, पुराण कालीन प्रसिद्ध राजधानी जनकपुर नेपाल राज्य में है, जहां सारे भारत के लोग बड़ी श्रद्धा के साथ तीर्थाटन करने एवं उस पावन भूमि के रज-कणों को स्पर्श कर अपने को पवित्र करने हेतु पहुंचते रहते हैं।

-भैरव लाल दास

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