मैथिली लोकगीत इतना समृद्ध है कि केवल विवाह संस्कार के दौरान ही कई प्रकार के लोकगीत गाए जाते हैं। मानव जीवन से जुड़ा कोई भी पहलू इन लोकगीतों से अछूता नहीं है। इसलिए इन्हें कालजयी माना जाता है और आदिकाल से श्रव्य परम्परा ने ही इसे लोकप्रिय बनाने एवं प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मिथिला आदिकाल से मानव सभ्यता के सांस्कृतिक ध्वजवाहक के रूप में विख्यात रहा है। मिथिला की परम प्रतापी भूमि पर सहस्त्रों विद्वानों ने कोटि-कोटि ज्ञान कोष का सृजन किया। दर्शन एवं न्याय की भूमि के रूप में विख्यात मिथिला की अपनी लोक संस्कृति भी विरल रही है। किसी भी भौगोलिक भूभाग की लोक चेतना की समझ विकसित करने हेतु वहां की लोक संस्कृति पर दृष्टिपात करना नितांत आवश्यक है। मिथिला की लोक चेतना में मैथिली लोक गीत चिरकाल से रचा-बसा हुआ है। लोकगीतों के माध्यम से मिथिला के दैनिक जनजीवन, दिनचर्या तथा विधि-व्यवहार को सरलता से समझने का सहज अवसर प्राप्त होता है। मैथिली लोकगीत मिथिला के आम जनजीवन में किस तरह घुला हुआ है उसे निम्नांकित पंक्तियों में समझा जा सकता है-
कोकटा धोती पटुआ साग।
तिरहुत गीत बड़े अनुराग॥
भाव भरल तनु तरुणी रूप।
एतबे तिरहुत होयछ अनूप॥
भिन्न-भिन्न कालखंडों में उत्सर्जित मैथिली लोकगीत मिथिला संस्कृति का वास्तविक प्रतिबिम्ब है। लोकगीतों के प्रसार का माध्यम प्रायः श्रव्य तंत्र होता है। मिथिला में अनादि काल से विचार-व्यवहार को चित्रित करते हुए मैथिली लोकगीत एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक हस्तांतरित होता रहा है। शास्त्रीय संगीत के उलट लोकगीतों के प्रसार हेतु ना तो निरंतर अभ्यास की आवश्यकता होती है, ना ही इनके गायन में किसी खास राग, ताल अथवा सुर का कड़ाई से अनुपालन ही करना होता है। अतः मैथिली लोकगीत लोकाचार में सुरम्यता तथा बोधगम्यता के साथ मैथिली लोक संस्कृति का संवाहक बना रहा।
प्राग विद्यापति काल से ही प्रेम-विरह, विवाह-संस्कार, बटगमनी-रोपनी आदि भिन्न-भिन्न विषयों पर मैथिली लोकगीतों का सृजन तथा गायन होता रहा है। चूंकि लोक संस्कृति का वास्तविक संवाहक कम अभिजात्य वर्ग, अल्प शिक्षित वर्ग तथा निम्न वर्ग के लोग अधिक होते हैं इसलिए उनके जीवन से जुड़े हर्ष-विषाद, उत्थान-पतन, सुख-दुःख आदि विषयों पर भी अनेकानेक लोकगीत श्रव्य परम्परा में सुनने को मिल जाते हैं, जो प्रायः शास्त्रीय संगीत में अनछुआ ही रहा है।
मिथिला की भूमि पर षड्दर्शनों में से चार दर्शनों का सृजन हुआ, इसलिए यहां के लोकगीतों में भी ज्ञान तथा दर्शन की झलक मिलती है। गुण-निर्गुण तथा प्रत्यक्ष-प्रतीकात्मक काव्य शैली में रचित अनेक लोकगीतों में गुह्यतम रहस्यों को भी समेटने का अनन्य उदाहरण दिखता है। सामान्यतः लोकगीतों में भावों की अभिव्यक्ति में अलंकार-छंद अथवा अन्य साहित्यिक मानकों पर खड़ा उतरने का प्रयत्न कम ही दिखता है इसलिए अभिव्यक्ति छायावादी ना रहकर प्रत्यक्ष ही दिखती है, परंतु ऐसे भी कई उदाहरण मैथिली लोकगीतों में द्रष्टव्य होता है जहां मोक्ष एवं मृत्यु जैसे विषयों को अप्रत्यक्ष रूप में व्यक्त किया गया है, उदाहरणस्वरूप –
पिया अयला जे हमार, भेजल दोलिया कहार।
अब तड जैबे ससुरारि, सुनु हे सजनी॥
इस गीत में पिया का अर्थ मोक्ष प्रदान करने वाले भगवान, दोलिया-कहार का अर्थ अर्थी तथा ससुरारि का अर्थ मोक्ष-धाम से है।
मैथिली लोकगीत में शुरुआत से ही प्रगतिशील चेतना की झलक दिखती रही है। देश भर में आज नदियों के संरक्षण हेतु विभिन्न अभियान चलाए जा रहे हैं। गंगा नदी के जल के निर्मलता तथा प्रवाह को बचाने के लिए सरकार द्वारा योजनाएं चलाई जा रही हैं, परंतु मैथिली गीतों में इस चिंता को 14वीं शताब्दी में ही महाकवि विद्यापति द्वारा अभिव्यक्त कर दिया गया था। कवि कोकिल विद्यापति ने अपनी रचना गंगावाक्यावली में गंगा के स्मरण, अर्चन-वंदन सम्बंधी रचनाएं की हैं। उनके द्वारा रचित निम्न गीत आज भी गंगा आरती के लिए मैथिली जनमानस द्वारा व्यापक रूप से प्रयोग किया जाता है-
बड़ सुखसार पाओल तुअ तीरे।
छोड़इत निकट नयन बह नीरे॥
करजोरि बिनमओ बिमल तरंगे।
पुनि दरसन होए पुनमति गंगे॥
समस्त विश्व की मंगलकामना के लोकगीतों की एक अहम विशेषता होती है। मैथिली लोकगीतों में भी विश्व भर में शांति का आह्वान किया जाता है। लोकगीतों के माध्यम से भाई-बहन के प्रेम व वात्सल्य भाव को भी उद्घाटित किया जाता रहा है। भाई के बहन के प्रति कर्तव्य तथा बहनों का भाई के प्रति स्नेह-वात्सल्य भाव अनेक लोकगीतों में चित्रित किया गया है। भाई-बहन के स्नेह पर जितनी रचनाएं मैथिली लोक साहित्य में देखने को मिलती हैं वह शायद ही दूसरे किसी साहित्य में द्रष्टव्य हो। ये सारी रचनाएं कब और किनके द्वारा की गई यह तथ्य अस्पष्ट है, किंतु प्रायः लोकगीत कालजयी हैं और आज भी जनमानस में अह्लादपूर्ण वातावरण में गाई जाती हैं। भाई-बहन के प्रेम का प्रतीक माने जाने वाले मैथिली लोक पर्व सामा-चकेवा का यह गीत प्रेम के उद्गार को परिलक्षित करता है-
चनन बिरिछ तर ठाढ़ भेली बहिनो से फलना बहिनो
ताकथि बहिनो भाय के बटिया
एहि बाटे अओता भैया से फलना भैया
देखि लेबन्हि भरि अंखिया
बहियां पसारि जनु कनहक हे फलना बहिनो
फाटत बहिनो भाइ के छतिया
कहा जाता है सबसे सुंदर व नैसर्गिक भाव काम करते हुए और राह चलते हुए पथिकों को आता है। कार्य तथा राह की दुर्गमता एवं दुरुहता को दूर भगाने हेतु स्त्री-पुरुष संग में गीत गाते चलते हैं। उन लोकगीतों में वे अपने कष्ट का वर्णन करते हैं, दुखों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं तथा लोक देवताओं से सुमति के पथ पर उन्मुख करने की मनोकामना व्यक्त करते हैं। ऐसे गीतों को बटगमनी कहा जाता है। निम्न बटगमनी में ऐसे ही मनोभाव को व्यक्त किया गया है-
कोन गति हैत मोरा प्रभु हो की गति लिखल मोरा
सगर जनम हम दुखहि गमाओल सुख सपना भेल मोरा
सगर जनम हम पाइ बटोरल भजियो ने भेल मुख तोरा
सगर जनम हम पिलौं विष रस तैयो नै तृषा होय थोड़ा
आबहु सुमति दियड त्रिभुवनपति आबहु भजब मुख तोरा
मैथिली लोकगीतों में ऋतुओं का वर्णन भी वृहत रूप से किया गया है। ऋतु वर्णन करने वाले लोकगीतों में तिनमासा, चौमासा, पचमासा तथा बारहमासा गीतों का सृजन किया जाता रहा है। हर ऋतु की अपनी विशेषता होती है। ऋतु गीत में प्रायः प्रेम में आकुल नायक-नायिकाओं के प्रेम तथा विरह का भी वर्णन आता है तथा दूसरी ओर अन्य ऋतु गीतों में कृषि कार्य का वर्णन किया जाता है। ऐसे ऋतु गीत कृषकों के मानस में इस तरह अंकित रहते हैं कि बूढ़े-जवान सभी लोग प्रसंग आने पर तुरंत ही उनका पाठ कर देते हैं, ऐसे ही एक ऋतु गीत को देखा जा सकता है-
पूस गोइठा डाहि तापब, माघ खेसारी केर साग यौ
फागुन हुनका छिमरि माकरि चैत खेसारी केर दालि यौ
बैसाख टिकुला सोहि राखब जेठ खेरहि केर भात यौ
अषाढ़ गाड़ा गारि खायब सावन कटहर कोब यौ
भादव हुनको आंठी मांठी आसिन मरुआ केर रोट यौ
कार्तिक दुःख-सुख संगहि खेपब अगहन दुनु सांझ भात यौ।
मैथिली लोकगीतों की बहुत ही समृद्ध विरासत है। पुरानी पीढ़ियों से नई पीढ़ियों तक ये गीत आज भी हस्तांतरित हो रहे हैं। ऐसे बहुत सारे गीत जो पूर्णरूप से श्रव्य परम्परा से ही ज्योतिरीश्वर, विद्यापति, गोविंददास, कविश्वर होते हुए आज की पीढ़ियों तक पहुंची हैं। अब उनको संकलित कर पुस्तकाकार भी किया जा रहा है। युवा गायक-गायिकाएं भी इन गीतों को प्रचारित करने में महत्वपूर्ण योगदान कर रहे हैं। मैथिली लोक गीतों के समृद्ध वितान को इसी तथ्य से समझा जा सकता है कि सिर्फ विवाह संस्कार गीत को ही विस्तार से देखा जाए तो अपटन, उचिती, चुमाओन, कन्यादान, परिछन, समदाउन आदि विभिन्न गीतों के पचासों प्रकार है। ऋतु गीत में भी कजली, मलार, चैतावर, बसंत समेत प्रायः सभी ऋतुओं पर लिखे गए स्वतंत्र लोक गीतों की अनंत सूचि है। लगनी-रोपनी, झूमर-रास आदि विविध प्रकार की लोकगीत मैथिली जनजीवन के विभिन्न आयामों को स्पर्श कर उसमें स्पंदन प्रदान करते हैं। मैथिली लोकगीत मिथिला संस्कृति के प्राण समान है।
– डॉ. भास्कर ज्योति