एक समय माता जानकी के नाम से विख्यात मिथिला अब यहां की लोकप्रिय चित्रकला के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है। मिथिला मधुबनी पेंटिंग कला की देश-विदेश में खूब प्रशंसा होती है। मिथिला की जगदंबा देवी, सीता देवी, बौवा देवी, गंगा देवी, महासुंदरी देवी, गोदावरी दत्त आदि चित्रकारों को उनके उल्लेखनीय योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार से भारत सरकार ने सम्मानित भी किया है।
किसी भी क्षेत्र की लोक कला वहां के लोक समुदाय और स्थानीय संस्कृति के मध्य के अंतर्संबंधों की अभिव्यक्ती होती है, जो सदैव हमें अपनी सांस्कृतिक जड़ों से ना केवल जोड़ के रखती है बल्कि समय-समय पर हमें यह स्मरण कराती रहती है कि हम कौन हैं, हम क्यों हैं और हम कहां हैं। सरल शब्दों में कहें तो ये हमें बदलते समय के पहिए के साथ अपनी पहचान को विस्मृत होने से बचाती है।
बिहार में गंगा के उत्तर और नेपाल स्थित हिमालय के दक्षिण का मैदानी भाग मिथिला के नाम से जाना जाता है। 15 जनवरी 1934 की दोपहर बाद 2 बज कर 13 मिनट पर भूकंप आया, लोगों को ऐसा लगा मानो अचानक प्रलय आ गया हो। इसी दौरान भयंकर भूकम्प से हुई तबाही का दृश्य देखने एवं उससे हुए नुकसान को समझने ब्रिटिश अधिकारी विलियम आर्चर (1907-79) क्षेत्र में आए। आर्चर यहां की चित्रकला की सुंदरता को देखकर न सिर्फ दंग रह गए, बल्कि उन्होंने इसकी तुलना पिकासो जैसे आधुनिक पश्चिमी चित्रकारों से कर दी। 1949 में जब उन्होंने इंडियन आर्ट जर्नल में चित्रकला पर एक लेख लिखा, उसके बाद यह कला दुनिया के सामने ‘मिथिला चित्रकला’ के नाम से आई। एक प्राकृतिक आपदा से जहां विश्व में इस पेंटिग को पहचान मिली वहीं दूसरे प्राकृतिक विपदा ने इसे व्यवसायिक रूप दिया। 1960 के दशक में पड़े भीषण सूखे के दौरान ऑल इंडिया हैंडीक्राफ्ट बोर्ड की सलाह पर इस क्षेत्र की महिलाओं ने दीवारों के स्थान पर कागज पर पेंटिंग्स बनाकर इस पेशे को एक आय का जरिया बना दिया। इनमें से कुछ महिलाएं शानदार चित्रकार बनीं और उन्होंने कुछ दिन बाद ही यूरोप, रूस और अमरीका के सांस्कृतिक मेले में भारत का प्रतिनिधित्व किया, लेकिन इस पेंटिंग को सही अर्थों में राष्ट्रीय पहचान तब मिली जब 1970 में भारत के राष्ट्रपति ने मधुबनी के निकट जितवारपुर गांव की जगदम्बा देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया।
मिथिला चित्रकला के ये भित्तिचित्र रामायण काल से ही ग्रामीण जनमानस के विचारों की अभिव्यक्ति का पटल रहे हैं। मिथिला क्षेत्र में मिट्टी की दीवारों पर पाई जानेवाली यह कला मुख्यतः दो तरह के उद्देश्यों के लिए बनाई जाती थी। प्रथम, घर के अंदरूनी हिस्से, प्रांगण की सुंदरता तथा घर एवं आंगन की घेराबंदी के लिए प्रयुक्त बाहरी दीवारों की सुंदरता हेतु की जानेवाली नक्काशी एवं द्वितीय, लोक संस्कार के पर्व जैसे मुंडन, जनेऊ, विवाह, मृत्यु आदि शुभ और अशुभ अवसरों पर की जानेवाली चित्रकारी। यहां एक बात स्पष्ट कर दूं कि मिथिला चित्रकला का प्रयोग मिथिला के मृत्यु सम्बंधी कर्मकांड (द्वादशाह कर्म) के अनुसार अशुभ कार्यों के समय भी किया जाता है। जिस मृत्यु को अशुभ माना जाता है, उसे मिथिला जो बड़े-बड़े दार्शनिकों के दर्शन ज्ञान का केंद्र रहा, वहां अशुभ नहीं माना जाता। इस प्रकार यह बहुत ही साफ है कि मिथिला में भित्तिचित्र दो तरह के कामों में प्रयुक्त होते थे। प्रथम, आनुष्ठानिक कर्मकांडों में तथा द्वितीय प्रयुक्त सजावट एवं सुंदरता हेतु।
सजावट वाले भित्तिचित्र में प्राकृतिक चीजें (पेड़-पौधे, जीव-जंतु आदि), घर-गृहस्थी के आर्थिक, गैर आर्थिक क्रियाकलापों (मछली बेचनेवाली स्त्री, चरवाहे का चित्र, फसल कटाई और देवी-देवता से सम्बंधी चित्रों में कृष्ण द्वारा गोपियों के वस्त्र को स्नान के समय कदम्ब के पेड़ पर छुपाने का चित्रण, कालिया मर्दन, माखन चोरी, जयमाल, डोली कहार, सिंह सवार देवी दुर्गा का चित्रण आदि) का चित्रण होता था। आनुष्ठानिक कर्मकांडों में प्रयुक्त भित्तिचित्र में कोबर लिखिया में प्रयुक्त विभिन्न चित्र (जैसे कमलदह, पुरैन, बांस, नैना-जोगिन, नवग्रह, मछली, कछुआ आदि), पूजा पाठ के दौरान घर की दीवारों पर बनने वाला शुभफलदायी चिह्न आदि शामिल हैं।
मिथिला में भित्तिचित्र बनाने के तरीके तथा प्रयुक्त सामग्रियों के आधार पर भी इनमें स्पष्ट रूप से अंतर दिखाई देता है। मिथिला में भित्तिचित्र के निरूपण में चिकनी जलोढ़ मिट्टी, गेहूं या धान की भूसी के मिश्रण, गोबर आदि से तैयार मिट्टी को दीवार पर थोप (चिपका) कर उसे फिर भिन्न-भिन्न आकृतियों में काट और तरास कर हाथी, घोड़ा, बाघ, फूल, पेड़, लताओं आदि का रूप दिया जाता था। इसी तरह मिट्टी की दीवार पर गीली मिट्टी का कई स्तर लेप चढ़ा (छछारना) उसके सूखने के बाद ईंट या खपड़ा को महीन चूर्ण के रूप में पीस उसे पानी मे घोल कर तैयार गेरुवा रंग, कोयले को घिसकर उससे तैयार काला रंग तथा चूने से तैयार उजला, गोबर के घोल से भूरा रंग आदि का प्रयोग कर घर की बाहरी दीवारों पर भिन्न-भिन्न तरह की आकृतियों को उकेरकर दीवारों की सुंदरता बढ़ाई जाती थी।
इस तरह का चित्रण मिथिला में निम्न आय वर्गों के घरों पर पहले भी बनते थे, आज भी ये कहीं-कहीं मिल जाते हैं। इस तरह के भित्तिचित्रों में प्रयुक्त सामग्रियों के साथ कई प्रकार के फूल-पत्तियों से कई तरह के रंग तैयार कर मिथिला की महिलाओं द्वारा अपने घर आंगन में होनेवाले आनुष्ठानिक कर्मकांडों से सम्बंधित चित्रों को बनाया जाता था। आनुष्ठानिक कर्मकांडों में प्रयुक्त भित्तिचित्र में मांगलिक चिन्हों का चित्रण सूती कपड़े के टेमी (सूती कपड़े के छोटे से टुकड़े को हथेली पर रगड़कर गोल लंबाकार तैयार ब्रश की जगह प्रयुक्त वस्तु) से किया जाता था। कालांतर में यही वर्तमान में विश्व प्रसिद्ध मधुबनी पेंटिंग/मिथिला पेंटिंग के तौर पर जग प्रसिद्ध हुआ।
-राकेश कुमार झा