शहरों में खानपान की विविधता बहुत कम मिलती है, लेकिन गांव में और वो भी खास मिथिला क्षेत्र में तो भोजन की विविधता की भरमार है। यहां के खाद्य पदार्थों की विशेषता यह है कि स्वादिष्ट व्यंजनों के साथ उत्तम स्वास्थ्य भी आपको अवश्य मिलेगा।
‘मिथिलाक भोजन तीन- कदली, कबकब, मीन’ : किसी भी प्रांत के भोजन में वहां की भूमि और जलवायु का प्रभाव होता है। कदली यानी केला, कबकब यानी ओल या सूरन और मीन यानी मछली। इसके साथ ही ‘माछ, पान और मखान, ई तीन ता ऐच्छ मिथिला के जान’ कहावत भी बहुत प्रसिद्ध है।
आज हम पकौड़े के जिस रूप से परिचय करवा रहे हैं वह असल में पकौड़े जैसा दिखता तो है, पर पकौड़ा नहीं है। यह है मिथिला क्षेत्र का मशहूर व्यंजन तरूआ।
यह जो ओल है उसको तलकर पकौड़े की तरह भी यानी तरूआ बनाकर भी खाया जाता है। शायद अचंभा लगे पर मिथिला के भोजन भंडार का यह तो महज एक नमूना है। वैसे तरूआ को आमतौर पर विशेष अवसरों पर तैयार किया जाता है और यहां तक कि देवता और कुलदेवी को भी प्रसाद के रूप में चढ़ाया जाता है। दिवाली की रात इसके खास व्यंजन काली देवी को उत्सर्ग करने के लिए तैयार किए जाते हैं और तरुआ इस भोजन का मुख्य आकर्षण है। इसे परिवार के सदस्यों के भोजन करने से पहले देवी को अर्पित किया जाता है। इसी तरह छठ पूजा के समापन की पूर्व संध्या पर जब व्रती अपना उपवास तोड़ती हैैं, तो उनके भोजन में तरूआ शामिल होता है। जब बाद में दोस्त और रिश्तेदार प्रसाद खाने आते हैं, तो उन्हें तरुआ परोसा जाता है।
तरूआ को तरूआ ही कहा जाता है, यह पकौड़ा नहीं। तरूआ को लेकर एक अन्य लोकगीत है,
भिंडी भिनभिनायत भिंडी के तरुआ,
आगु आ ने रे मुंह जरुआ
हमरा बिनु उदास अछि थारी,
करगर तरुआ रसगर तरकारी
तरूआ के लिए अमूमन बेसन या चावल के आटे (जिसको मैथिली में पिठार कहा जाता है) का प्रयोग किया जाता है। मिथिला में कहते हैं कि किसी अतिथि (घर का दामाद/बहनोई/फूफा हों तो थाली के संग दस-बारह कटोरी सजनी चाहिए) का स्वागत तरुआ के साथ भोजन परोसे बिना पूरा नहीं होता है, जो मिथिला क्षेत्र की पाक परम्परा में इस व्यंजन के महत्व को दर्शाता है।
तरूआ तो लगभग सभी सब्जियों का बनता है – आलू, बैंगन, गोभी, लौकी, कुम्हड़ा (काशीफल), परवल, खम्हार, ओल (सूरन), अरिकंचन (अरबी के पत्ते), लेकिन मिथिला में अतिथि के सत्कार में सबसे महत्वपूर्ण तरूआ होता है तिलकोर का। तिलकोर एक किस्म का कुंदरू जैसे फल का पत्ता होता है, जिसके औषधीय गुण भी होते हैं। मिथिला में तिलकोर की बेल आपको हर घर की बाड़ी में मिल जाएगी। जानकारों का दावा है कि तिलकोर टाईप वन डायबिटीज के लिए रामबाण है। मैथिल लोग बताते हैं कि तिलकोर के नियमित सेवन से इंसुलिन का स्राव नियमित हो जाता है।
चूड़ा-दही/दही चूड़ा – मिथिला के कई घरों में दिन की शुरूआत प्रसिद्ध पौराणिक व्यंजन चूड़ा-दही से होती है। बिहार के मिथिला क्षेत्रों के बाहर के लोग साल में केवल एक बार ‘मकर संक्रांति’ पर चूड़ा-दही खाते हैं, लेकिन मैथिल इसे साल भर खाते हैं।
मैथिल व्यंजनों में खाना पकाने की तकनीक और उपयोग की सामग्री में समय के साथ क्षेत्र की भूमि और जलवायु का अच्छा प्राकृतिक अनुकूलन देखा जाता है। अधिकांश सामग्री स्थानीय रूप से उगाई और खाई जाती है। मिथिला के लगभग सभी घरों में अपनी सब्जी-बाड़ी होती है, जहां गृहस्वामी मौसमी साग और सब्जियों को उगाते हैं। मैथिली भोजन विभिन्न पत्तेदार सब्जियों के लिए जाना जाता है, जैसे – बथुआ, गेनहारी साग, लाग साग, खेसारी साग, सरसों साग इत्यादि। मिथिला क्षेत्र हिमालय की तलहटी में स्थित है और बाढ़ वाली नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी कृषि और मछली पालन के लिए भूमि को परिपूर्ण बनाती है।
मैथिल भोजन की विशेषताएं : मिथिला क्षेत्र हमेशा कृषि प्रधान समाज रहा है। गाय और भैंस को दूध के लिए पाला जाता है। दिन के हर भोजन में किसी न किसी रूप में दूध का सेवन किया जाता है।
मौस (मांस)
मिथिला के सभी समुदायों के मैथिल लोग ज्यादातर मांस का सेवन करते हैं। मछली और बकरी का मांस पसंद किया जाता है। विशेष रूप से मांसाहारी व्यंजनों में सरसों तेल में काली सरसों और सूखी लाल मिर्च का उपयोग किया जाता है।
भुनी हुई दाल या उलायल दाल भारतीय व्यंजनों में दाल एक प्रमुख सामग्री है, लेकिन मिथिला में दाल तैयार करने का एक अनोखा तरीका है। इसे पकाने से पहले गर्म तवे पर भूनते हैं। इस प्रक्रिया से दाल को एक अनोखा स्वाद मिलता है। मिथिला में कई प्रकार की दालें खाई जाती हैैं, जैसे अरहर, मूंग, मसूर, खेसारी, चना, कुरथी और उड़द इत्यादि।
मिथिला अपने सामुदायिक दावतों के लिए भी जाना जाता है। जिसे भोज-भात भी कहा जाता हैं। कोई भी धार्मिक समारोह, जहां सैकड़ों लोग दोपहर या रात के खाने में शामिल होते हैं। ये भोजन ज्यादातर समुदाय के पुरुष सदस्यों द्वारा बहुत अलग शैली में तैयार किया जाता है। ज्यादातर भोजन प्याज और लहसुन के बिना सात्विक शैली में तैयार किया जाता है। भोजन केले या कमल के पत्तों में परोसा जाता है और पंक्तियों में जमीन पर बैठकर खाया जाता है।
पिसी हुई अलसी (तीसी) का उपयोग – पिसी हुई अलसी को इसके अपार स्वास्थ्य लाभों के कारण सुपर फूड कहा जाता है। परम्परागत रूप से मैथिल रसोई में हमेशा भूनी हुए तीसी के बीज होते थे।
धूप में सुखाई और संरक्षित सब्जियां
मैथिल महिला सूरज की धूप में सूखी सब्जियों और कई प्रकार की बड़ियां तैयार करती हैं। जैसे कुम्हारूरी, मुरौरी, अदौड़ी, बिरिया, मेथी, उरद, बेसन के पेस्ट को धूप में सुखाया जाता है। फूलगोभी जैसी मौसमी सब्जियां भी धूप में सुखाई जाती है।
मिथिला के सभी समुदाय मैथिल मधुर प्रेमी हैैं। उन्हें मिठाई खाने के बहाने चाहिए, लेकिन मिठाइयां ज्यादातर घर में ही बनाई जाती हैं। मैथिल महिलाएं त्योहारों और अन्य विशेष अवसरों के लिए मिठाइयों की किस्में बनाती हैं। जैसे पिरुकिया (गुजिया) खाजा, बालूशाही, लड्डू, मालपुआ, शकरपारा इत्यादि।
मिथिला में भुजा (भुना या तला हुआ अनाज, जैसे कि चिवड़ा, चावल, छोले), कचरी (पकौड़े), चोप (मॅरड आलू पकौड़ा), घुघनी इत्यादि। कंसार की एक बहुत ही दिलचस्प परम्परा भी मैथिल के साथ जुड़ी हुई है। कंसार मैथिल महिलाओं द्वारा संचालित एक गांव का स्थान है। वे एक छोटे से शुल्क के लिए आपके लिए किसी भी अनाज को भूनेंगे। आप उनके द्वारा भुना हुआ चना, चावल चिवड़ा, गेहूं, मक्का आदि प्राप्त कर सकते हैं। यह मैथिल महिलाओं के लिए सामाजीकरण का एक स्थान है। मैथिल हमेशा अपने भोजन में दूध उत्पादों को अत्यधिक प्राथमिकता देते हैं और इसकी एक प्रचलित कहावत है –
आदि घी और अंत घी।
उइ भोजन के भोजन कहीं॥
-विभा रानी श्रीवास्तव