आखिर क्या कारण है कि बिहार का सबसे समृद्ध क्षेत्र रहा मिथिला आज भी विकास से वंचित है। स्वास्थ्य, शिक्षा, बेरोजगारी, पलायन, उद्योग-व्यवसाय की कमी, भ्रष्टाचार, दहेज प्रथा आदि यहां की प्रमुख चुनौतियां हैं। राजनीतिक और सामाजिक दिशाबोध के अभाव के कारण मिथिला अब भी पिछड़ा हुआ है। बिहार सरकार को इसका संज्ञान लेकर तत्काल उचित पहल करनी चाहिए।
मिथिला की संस्कृति वैदिक संस्कृति है व सनातन है, जिसकी क्षति तो सम्भव है, परंतु नाश सम्भव नहीं है। 800 वर्षों के मुगल राज में भी यहां की संस्कृति अक्षुण्ण रही है, परंतु 1857 की क्रांति के बाद इस संस्कृति का थोड़ा क्षय होने लगा, जिसका मुख्य कारण था आर्थिक रूप से कमजोर होना। प्रत्येक संस्कृति की सुरक्षा का आधार है अर्थ। यदि किसी संस्कृति के पास अर्थ पर्याप्त है तो वह संस्कृति फलती-फूलती रहती है व अपनी रक्षा भी करती है।
1857 की क्रांति में जिन प्रदेशों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई उसमें मिथिला भी था। यहां के आम नागरिक इस विद्रोह में कूद पड़े थे। उसी समय से मिथिला को कुचलना अंग्रेजों की नीति बन गई जो आज तक वर्तमान सरकार द्वारा भी चलाई जा रही है।
मिथिला में बाढ़ का संकट रहता है तो लोग पहले से ही कुम्हरौरी, बिरिया, अदौरी, अमोट आदि बना कर रखने लगे ताकि बाढ़ के समय सब्जियों के अभाव में इन्हीं चीजों से सब्जी बनाई जा सके। वर्ल्ड बैंक की शाखा आईएमएफ ने इस बाढ़ के संकट को देखते हुए कोसी डैम परियोजना के लिए फंड दिया तो सरकार द्वारा उस फंड से भाखड़ा नांगल बांध बना दिया गया। अंग्रेजों की मिथिला विनाश की नीति को आगे बढ़ाते हुए सरकारों द्वारा मिथिला को मात्र उपनिवेश बना कर रखा गया।
आजादी के बाद भी अब तक मिथिला के साथ सौतेला व्यवहार होता आ रहा है। 1954 ई. में राज्य पुनर्गठन आयोग ने तर्क दिया कि मैथिली को भाषा के रूप में मान्यता नहीं है, अतः पृथक मिथिला राज्य की मांग उचित नहीं है। तब दरभंगा राजा से लेकर उसके कट्टर विरोधी समाजवादी नेताओं ने मिथिला राज्य के लिए आंदोलन चलाया था। आज मैथिली की संवैधानिक भाषा के रूप में मान्यता है तो राज्य क्यों नहीं मिलना चाहिए?
हुमायूं से लेकर शेरशाह सूरी के आरम्भिक काल तक मुगलों और पठानों में लड़ाई के कारण मुगलसराय से पूर्व मुगल नहीं जा सके, जिस कारण पठानों का राज्य बिहार नाम से प्रसिद्ध हो गया, जिसका मुख्य कारण था बिहार में बौद्ध विहार (नालंदा) का होना, जिसे नष्ट करना पठानों के लिए गर्व की बात थी। बिहार पठानों का दिया हुआ नाम है जिसे मुगलों, अंग्रेजों और वर्तमान सरकारों ने भी जारी रखा। प्राचीन काल में कहीं भी बिहार नाम नहीं मिलेगा, मगध, मिथिला, काशी, जैसे राज्यों के नाम मिलेंगे, जिनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान रही है। औपनिवेशिक दृष्टि से जनता पर शासन करने वालों ने गैर-सांस्कृतिक प्रशासनिक प्रांत बनाए ताकि जनता में परस्पर एकता न हो सके।
परिणाम यह निकला कि मिथिला उपनिवेश बन कर रह गया और इसकी बौद्धिक शक्ति रोजगार की खोज में इससे दूर चली गई। पंजाब, मुम्बई, दिल्ली आदि सभी जगह मैथिली हैं और वे अपनी संस्कृति को संजोए हुए हैं।
दरभंगा में ब्रिटिश काल में 6 कारखाने थे, आज एक भी नहीं है। दरभंगा उत्तर बिहार का सबसे बड़ा शहर था, लेकिन जानबूझकर मुजफ्फरपुर को आगे बढ़ाने के लिए यातायात की सुविधाएं दी गईं। हाल में भी दरभंगा का नाम काटकर बिहारशरीफ का नाम स्मार्ट-सिटी में जोड़ा गया, यद्यपि बिहारशरीफ दरभंगा से छोटा है।
वर्तमान में भी सरकार की योजनाएं मगध की सीमा तक ही दम तोड़ देती हैं, मिथिला तक पहुंच ही नहीं पाती हैं। इस बार के बजट में भी बिहार को 3 एक्सप्रेस वे (पटना-पूर्णिया, बक्सर-भागलपुर, वैशाली-बोधगया) मिलने की बात हुई है, परंतु मिथिला उसमें शामिल नहीं है।
आज भी यदि सरकार मिथिला में कारखाने का मार्ग प्रशस्त कर दे तो मैथिली समाज पुनः अपने गौरवशाली संस्कृति में लौट आएगा।
गरीबी और अशिक्षा का दंश झेल रहे मैथिली वर्षों पहले दो वक्त की रोटी और मुट्ठी भर पैसे कमाने के लिए करीब 1900 किलोमीटर दूर महाराष्ट्र के मुम्बई और आसपास को क्षेत्रों में बस गए। वर्षों की मेहनत और ईमानदारी से चौकीदारी और चपरासी का काम कर आज करीब 7 लाख से अधिक मिथिलावासी कला, साहित्य, संगीत, कारोबार, प्रशासन और पत्रकारिता जैसे हर क्षेत्र में उपलब्धियां प्राप्त कर नाम रोशन कर रहे हैं। इसके बावजूद प्रवासी मैथिल समाज के पास आज भी राजनीतिक शक्ति, एकजुटता का अभाव और खुद की ताकत एवं प्रतिभाओं को पहचानने की कला नहीं होने के कारण यह समाज हाशिए पर है।
मैथिल समाज के समक्ष चुनौतियां
- बेरोजगारी : बेरोजगारी आज के समय में एक प्रमुख चुनौती है। मिथिला में रोजगार के अभाव में मैथिलों को अपना गांव छोड़कर अन्य प्रदेश में पलायन करना पड़ता है। जिस कारण मिथिला से एक व्यक्ति के जाने से दो हाथ व एक दिमाग कम हो जाता है। फलस्वरूप मिथिला का विकास अवरुद्ध हो रहा है।
- शिक्षा का अभाव: मिथिला की शैक्षणिक परम्परा प्राचीन काल से ही सुदृढ़ रही है। यहां की सभ्यता, संस्कृति व साहित्य बहुत समृद्ध रहा है। मध्यकाल तक मिथिला की विद्वता और पांडित्य कला का सम्पूर्ण विश्व लोहा मानती रही। देश व प्रदेश के तत्कालीन राज्यों में मिथिला के पंडितों को पद व प्रतिष्ठा प्राप्त थी, किंतु वर्तमान परिवेश में इसमें कमी आई है। इसका प्रमुख कारण है कि विषयवस्तु के अध्ययन में भाषा की दीवार खड़ी है। ऐसी बात नहीं है कि भाषाई दीवार को तोड़ने का प्रयास नहीं किया जा रहा है, लेकिन विषयवस्तु की व्यापकता के समक्ष यह अल्प प्रयास मात्र ही है। अभी हाल ही में नेशनल ट्रांसलेशन मिशन, मैसूर द्वारा उच्च शिक्षा का मार्ग प्रशस्त करने की दृष्टि से आठ पुस्तकों का मैथिली में अनुवाद कराया गया। इसी बीच स्थानीय विज्ञानी डॉ. धीरेंद्र कुमार झा, डॉ. ब्रज मोहन मिश्र व डॉ. प्रेम मोहन मिश्र ने मैथिली भाषा में विज्ञान की पुस्तक लिखकर आम लोगों को विज्ञान से जोड़ने का प्रयास किया है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अध्ययन व अध्यापन की सबसे बड़ी चुनौती विषयवस्तु की समझ विकसित करना है। क्षेत्रीय भाषा में पाठ्य पुस्तकों की कमी इस दिशा में सबसे बड़ी चुनौती है। खासकर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मैथिली भाषा की पुस्तकों का नितांत अभाव है। इसके अलावा विज्ञान की अधिकतर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैैं। फलस्वरुप अंग्रेजी की बारीकियों से अपरिचित लोग उच्च शिक्षा ग्रहण करने से कतराते हैं। इतना ही नहीं उच्च शिक्षा की डिग्री प्राप्त कर लेने के बाद भी विज्ञान की विषयवस्तु की समझ नहीं रखते हैं। जहां तक मैथिली का प्रश्न है तो यह संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है, किंतु पाठ्य पुस्तकों की कमी की वजह से मैथिली अब तक शिक्षण का माध्यम नहीं बन सका है, जबकि प्राथमिक स्तर से ही मैथिली में अध्यापन की मांग उठती रही है। इतना ही नहीं समय-समय पर विभिन्न छात्र संगठनों द्वारा मांग उठती रही है कि किसी भी विषय में स्नातक उतीर्ण छात्रों को उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मैथिली में स्नातकोत्तर करने की छूट दी जानी चाहिए।
- राजनैतिक शक्ति का अभाव : पढ़े-लिखे मैथिलों के पलायन के कारण मिथिला में राजनैतिक शक्तियों का अभाव हो गया है। एक समय था जब स्व. ललित नारायण मिश्र, स्व. भोगेंद्र झा आदि जैसे दिग्गज नेताओं का मिथिला की राजनीति में वर्चस्व था, परंतु वर्तमान समय में मैथिली राजनीति कमजोर पड़ गई है और इसके परिणामस्वरुप मिथिला राजनैतिक व सरकारी लाभ से वंचित रह जाता है। सरकारी विकास परियोजना अथवा रेल परियोजना मिथिला को पर्याप्त नहीं मिल पाता है।
- एकजुटता का अभाव : मैथिली समाज में अभी भी एकजुटता का बहुत अभाव है। यही कारण है कि किसी भी राजनैतिक संगठन में मैथिलों को उचित स्थान नहीं है। दरभंगा एयरपोर्ट पर उड़ान भरने वालों की संख्या अत्यधिक है, बावजूद इसके इसका विस्तार नहीं किया जा रहा है। रेल यात्रियों की संख्या अधिक होते हुए भी डबल लाईन नहीं है।
- दहेज प्रथा : दहेज प्रथा वास्तव में प्राचीन काल के कन्याधन का विकृत रूप है। पिता अपनी सम्पत्ति में से अपनी पुत्री को जीवन निर्वाह में सहायता के लिए कन्याधन देते थे। कालांतर में यह विकृत हो कर वर पक्ष को दहेज के रूप में दिया जाने लगा और कन्याधन के नाम पर बस खोईंचा रह गया। बेहिसाब दहेज की मांग मैथिल समाज के विकास हेतु बाधक है। बेहतर विकल्प की अनुपलब्धता, अधिक आयु में शादी और बेमेल विवाह जैसी समस्याएं समाज के समक्ष गम्भीर चुनौती बनी हुई है। आए दिन महिलाओं को दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है। अयोग्य वर के परिजन गाय-बैल की तरह अपने बेटे का मोल लगा कर शादियां करते हैं। कन्या पक्ष से दहेज के नाम पर लाखों रुपये ऐठें जा रहे हैं।
समय आ गया है जब हम इन चुनौतियों का सामना करें। एकजुट हो कर मिथिला के लिए सरकार से मांग करें कि मिथिला को उसका उचित स्थान मिले। जो विकास पटना, मुजफ्फरपुर तक सीमित रहता है उसे जयनगर तक लाया जाए। मिथिला को भी जनसंख्या के आधार पर उसके हिस्से का आईआईएमएस, एयरपोर्ट, डबल लाईन रेलवे, वंदे भारत, अच्छे महाविद्यालय व रोजगार के नए मार्ग दिए जाएं। कदाचार मुक्त शिक्षा व्यवस्था हो। इससे मैथिलों का पलायन रुकेगा और मिथिला मजबूत बनेगा। शिक्षा व्यवस्था बदलेगी और साक्षर दर बढ़ने से दहेज प्रथा जैसी समाजिक कुप्रथा भी समाप्त होगी।
– साकेत झा