दक्षिण भारतीय, भोजपुरी सहित अन्य क्षेत्रीय भाषाई फिल्मों की तरह मैथिली भाषी फिल्मों के लोकप्रिय एवं सफल होने की बहुत अधिक सम्भावना है। हालांकि मैथिली फिल्मोद्योग की यात्रा संघर्षों व चुनौतियों से भरी हुई हैं, लेकिन इसमें अवसरों की कोई कमी नहीं है। मैथिली प्रेमी दर्शक अच्छी फिल्मों की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
मैथिली सिनेमा की यात्रा आज से ठीक 60 वर्ष पूर्व आरम्भ हुई थी। कालक्रमानुसार देखें तो यह यात्रा बांग्ला, मराठी व तमिल जैसी भाषाओं की तुलना में विलम्बित है। यदि मात्र बिहार की ही बात करें तो आरम्भ और वर्तमान दोनों मामले में मैथिली सिनेमा भोजपुरी की भी तुलना में बहुत पीछे है। यह स्थिति तब है जब मैथिली को संविधान की अष्टम अनुसूची में जगह मिले दो दशक बीत चुके हैं। दूसरी ओर भोजपुरी को इस उपलब्धि की प्रतीक्षा ही है। बीसवीं शताब्दी का सातवां दशक मैथिली और भोजपुरी दोनों ही फिल्म उद्योग का टर्निंग प्वाइंट कहा जा सकता है। भोजपुरी की पहली फिल्म ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’ 1963 में बिहार की राजधानी पटना में रिलीज हो चुकी थी, वहीं सन् 1964 में चार मैथिली फिल्में ‘अपराजिता’, ‘नैहर भेल मोर सासुर’ (कालांतर में ‘ममता गाबय गीत’ नाम से रिलीज), ‘कन्यादान’ और ‘उगना रे मोर कतय गेलाह’ के निर्माण की योजना बनी। इस वर्ष इन फिल्मों के मुहूर्त तो हुए, लेकिन पहली मैथिली फिल्म को परदे पर आने में लगभग 7 वर्ष और लग गए।
प्रथम मैथिली फिल्म के रूप में ‘कन्यादान’ वर्ष 1971 में रुपहले पर्दे पर रिलीज हुई। वीरेंद्र प्रसाद सिंह निर्मित इस फिल्म के निर्देशक थे फणी मजूमदार। नवेंदु घोष लिखित अंग्रेजी पटकथा के आधार पर हिंदी संवाद फणीश्वर नाथ रेणु ने लिखा था, जिसे मैथिली संवाद के रूप में चंद्रनाथ मिश्र अमर ने ढाला था। मैथिली की पहली रंगीन फिल्म 1979 में ‘जय बाबा वैद्यनाथ’ नाम से रिलीज हुई, जिसके निर्माता व निर्देशक थे प्रहलाद शर्मा। इसके बाद ‘ममता गाबय गीत’ 1981 में (निर्माण शुरू होने के 17 वर्ष बाद) रिलीज हो सकी। इसके निर्देशक थे सी परमानंद। इस फिल्म में प्रस्तुत रवींद्रनाथ ठाकुर के कुछ गीत मिथिला में जन-जन के कंठ में बस गए। मैथिली की पहली वीडियो फिल्म ‘एना कत्ते दिन’ 1986 में बन कर तैयार हुई। अरविंद अक्कू लिखित इस विडियो फिल्म को ‘इजोत’ नाम से फीचर फिल्म के रूप में सिनेमा हॉल में उतारने की योजना तो बनी, किंतु यह योजना सफल नहीं हो सकी।
इस तरह 1964 से 1986 के बीच लगभग दो दशक से अधिक के कालखंड में लगभग एक दर्जन मैथिली फिल्मों के निर्माण का उपक्रम आरम्भ हुआ, कुछ की शूटिंग मात्र हो सकी, कुछ के गीत रिकॉर्ड होकर जन-जन तक पहुंच गए, लेकिन फिल्म बन न सकी और कुछ बनकर भी रिलीज न हो सकी। इस कालखंड के बाद मैथिली फिल्मोद्योग एक तरह से सुषुप्तावस्था में जाने लगा और यह तंद्रा टूटी 1990 के दशक के उत्तरार्ध में। निर्माता बालकृष्ण झा और निर्देशक मुरलीधर झा के परिश्रम से 1999 में रिलीज ‘सस्ता जिनगी महग सेनूर’ ने मैथिली के दर्शकों और कलाकारों दोनों को उम्मीद की नई किरण दी। हालांकि यह सब सूखे के मौसम में आई स्वाति की बूंदों जैसा ही था। इस बीच कुछ और फिल्में बनीं अवश्य, पर उनका रजत पट तक पहुंच पाना या दर्शकों पर अपनी छाप छोड़ पाना लगभग नहीं के बराबर रहा।
सन् 2000 के बाद मैथिली फिल्मों के निर्माण व प्रदर्शन की गति अपेक्षाकृत तेज हुई। इसी समय ‘गरीबक बेटी’ (2006) फिल्म ने भी दर्शकों को लुभाया। ‘ममता’, ‘सेनुरक लाज’, ‘दुलरुआ बाबू’, ‘खगड़िया बाली भौजी’, ‘सिंदूरदान’, ‘मायक कर्ज’ जैसी दर्जनों फिल्मों ने वर्ष 2000 से 2010 के बीच दस्तक दी, लेकिन कोई खास उपलब्धि नहीं प्राप्त कर सकी। इस बीच प्रवीण कुमार द्वारा निर्मित और निर्देशित ‘नैना जोगिन’ (2005) ने रजत कमल श्रेणी में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीतकर समानांतर फिल्म की दुनिया में मैथिली का पदार्पण करा दिया। इसकी प्रेरणा से वर्ष 2010 के बाद मैथिली में फिल्मों के निर्माण की गति और भी बढ़ गई तथा वर्ष 2016 में नितिन चंद्रा की ‘मिथिला मखान’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिलने से तो मैथिली फिल्म से जुड़े कलाकारों में नया ही उत्साह आ गया। ‘मिथिला मखान’ ओटीटी पर रिलीज होने वाली पहली फिल्म भी बनी। इस बीच ‘हाफ मर्डर’, ‘घोघ में चांद’, ‘प्रेमक बसात’, ‘लव यू दुल्हिन’ आदि फिल्में एकाधिक राज्यों में रिलीज हुई, दर्शकों का प्यार भी पाया और चर्चा का केंद्र भी बनीं।
कोविड के संक्रमण काल ने कम संसाधनों में बनने वाले फिल्मों को बढ़ावा दिया। इस कालखंड में बनी नीरज मिश्र की ‘समानांतर’ को सर्वश्रेष्ठ मैथिली फीचर फिल्म के रूप में 69वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के लिए चुना गया। अचल मिश्र निर्देशित ‘गामक घर’ और प्रतीक शर्मा निर्देशित ‘लोटस ब्लूम्स’ की भी राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में खूब चर्चा रही। नवीनतम मैथिली फिल्मों को देखें तो पता चलता है कि कथानक/विषय वस्तु के स्तर पर भी अब मैथिली में प्रयोग होने लगे हैं। ‘प्रेमक बसात’, ‘जैक्सन हॉल्ट’, ‘नून रोटी’ जैसी फिल्मों ने नए विषयों को नए तेवर से उठाने का प्रयोग कर मैथिली के दर्शकों को नया स्वाद उपलब्ध कराया। वहीं हाल ही में रिलीज ‘राजा सलहेस’ जैसी फिल्म ने वंचित समाज में प्रतिस्थापित लोक देवताओं के प्रति जागरूकता का एक संदेश दिया है।
तकनीकी तौर पर देखें तो मैथिली फिल्में अन्य भाषाओं की तुलना में अब भी बरसों पीछे हैं। प्रोफेशनल अप्रोच का अभाव इसे पीछे की ओर जकड़े हुए है। साथ ही भाषाई इको सिस्टम के स्तर पर शून्यता इसमें पूंजी लगाने वालों को डराती रहती है।
यद्यपि इन स्याह चुनौतियों के बाद भी भाषा से अनुराग रखने वाले कलाकारों, उद्यमियों, पूंजीपतियों की ओर से प्रयास लगातार जारी है और ‘मिथिला मखान’ के नायक की तरह अपनी मातृभूमि पर डटकर तस्वीर बदलने की हठ में सभी जुटे हुए हैं। कुल मिलाकर देखें तो मैथिली फिल्मों का स्वर्णिम दौर आना अभी बाकी है।
-ऋतेश पाठक