न्यायलय में अब न्याय की देवी आंखों पर पट्टी बांध कर न्याय नहीं करेंगी। वह खुली आंखों से हाथों में तलवार की जगह संविधान की किताब पकड़ कर न्याय करेंगी।
जब भी मैं लेडी ऑफ जस्टिस यानी न्याय की देवी की मूर्ति देखती थी तो मेरे मन में यह प्रश्न अवश्य आता है कि न्याय की देवी, जो इंसाफ की मूर्ति हैं जो सबके साथ न्याय करती हैं तो उसकी आंख पर पट्टी क्यों है? भला आंख बंद करके उचित न्याय कैसे हो सकता है? अनेक भारतीयों के हृदय में भी ऐसा प्रश्न आता होगा। लेडी ऑफ जस्टिस की प्रतिमा रोमन अवधारणा में देवी जस्टिशिया की प्रतिमा है। जिसे औपनिवेशिक काल में अंग्रेजों द्वारा भारतीय न्यायालयों में स्थापित किया गया था। स्वतंत्रता के बाद भी औपनिवेशिक मानसिकता के कारण वही यूरोपीय शैली की प्रतिमा न्याय की देवी के रूप में स्थापित रही। जिसकी मूल अवधारणा रोमन सभ्यता की रही।
हर्ष की बात है कि आजादी के इतने वर्ष बाद अंग्रेजों के समय से चली आ रही इस प्रतिमा को महत्वपूर्ण एवं सकारात्मक परिवर्तन करके एक नया रूप प्रदान किया गया है, जो निश्चित ही प्रशंसनीय है। न्याय के प्रति नैतिक दृष्टिकोण में सकारात्मक परिवर्तन कर एवं प्रतिमा को भारतीयता का रंग देकर यह नई मूर्ति सुप्रीम कोर्ट के जजों की लाइब्रेरी में स्थापित की गई है। यह प्रतिमा न्याय की गरिमा का प्रतीक है।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड के आदेश से लेडी ऑफ जस्टिस अर्थात न्याय की देवी की नई मूर्ति में कई आवश्यक परिवर्तन किए गए हैं। चीफ जस्टिस ने कहा था कि नई प्रतिमा कुछ ऐसी हो जो हमारे देश की धरोहर, संविधान और प्रतीक से जुड़ी हुई हो। इसलिए इस मूर्ति में जो परिवर्तन किए गए हैं वे न केवल न्यायिक व्यवस्था का संदेश दे रहे हैं, अपितु सांस्कृतिक, सामाजिक, मानवाधिकारों की सुरक्षा एवं भारतीयता का भी संदेश दे रहे हैं।
यदि तुलना करें तो पहले न्याय की देवी की प्रतिमा की आंखों पर पट्टी बंधी थी जिसे अब हटाकर यह सिद्ध किया गया है कि कानून अंधा नहीं होता। वह खुली आंखों से भली प्रकार देख व सुनकर न्याय करता है। साथ ही वह सबको समान दृष्टि से देखता है। अमीर, गरीब और समाज में वर्चस्व रखने वाले सभी लोग उसके लिए एक समान होते हैं।
मूर्ति के बाएं हाथ में पहले तलवार थी, जिसे हटाकर संविधान रखा गया है। इससे यह संदेश दिया गया है कि भारतीय न्याय केवल कठोर नहीं है अपितु संविधान के नियमों के अनुसार न्याय करने वाला है। यह केवल सजा का प्रतीक नहीं है। इसलिए हर आरोपी के प्रति विधि सम्मत ही कार्रवाई हो। कोर्ट में संवैधानिक कानूनों के अनुसार ही न्याय हो। भारतीय संविधान ने समानता और न्याय के मूल सिद्धांतों को स्थापित किया है इसलिए न्याय की मूर्ति को इस संविधान की भावना को प्रतिबिंबित करने के लिए समर्पित किया गया है। पुरानी मूर्ति के दाएं हाथ में तराजू है जिसे नई मूर्ति के हाथ में भी रखा गया है, क्योंकि तराजू यह दर्शाता है कि न्याय करते समय दोनों पक्षों के तथ्यों एवं दलीलों को सुनकर ही न्याय किया जाए।
ब्रिटिश काल की विरासत की न्याय की देवी ने गाउन धारण किया हुआ था किंतु अब इस नई मूर्ति न्याय की देवी को साड़ी में दर्शाया गया है। जो भारतीयता का प्रतीक है। भारतीय परिधान में होने के कारण मूर्ति का आम आदमी से जुड़ाव बढ़ जाता है। इस नई मूर्ति के सिर पर मुकुट सुशोभित है। न्याय की यह देवी विदेशी नहीं बल्कि स्वदेशी लगती है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए न्याय की देवी को सशक्त होते हुए सौम्य रूप में प्रस्तुत किया गया है।
सुप्रीम कोर्ट में स्थापित नई मूर्ति को मशहूर शिल्पकार विनोद गोस्वामी और उनकी टीम ने बनाया है। सफेद रंग की 6 फुट ऊंची यह नई मूर्ति फाइबर ग्लास से बनाई गई है। जो अत्यधिक मजबूत है। इसका वजन सवा सौ किलो है। इस मूर्ति को बनाने में 3 महीने का समय लगा था। पहले प्रतिमा की ड्रॉइंग बनाई गई फिर एक छोटी मूर्ति बनाई गई थी। जब वह मूर्ति सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड ने पसंद कर ली तब बड़ी मूर्ति का निर्माण किया गया।
इस प्रकार, भारत में न्याय की मूर्ति में हुए परिवर्तन केवल भौतिक रूपांतरण नहीं है बल्कि ये समाज के नैतिक, सांस्कृतिक और कानूनी मूल्य प्रणाली को भी दर्शाते हैं। ये परिवर्तन समावेशी और न्यायपूर्ण समाज की दिशा में बढ़ने का संकेत है। भारत की न्याय व्यवस्था अब न केवल कानून के राज का प्रतीक है, बल्कि यह मानवाधिकारों की रक्षा और सामाजिक न्याय के प्रति समर्पण का भी प्रतीक बन चुका है। ब्रिटिश काल से चली आ रही लेडी ऑफ जस्टिस की मूर्ति में आवश्यक परिवर्तन करके न्यायपालिका ने भारतीयता की गरिमा को बढ़ाया है। निश्चित ही यह एक सकारात्मक परिवर्तन है। जिसका अधिकतर लोगों ने स्वागत किया है। प्रतिमा में हुए ये परिवर्तन गुलामी की यादों को दूर कर संविधान में समाहित समानता के अधिकार को दृढ़ता प्रदान करते हैं साथ ही स्वतंत्र भारत के गौरव को बढ़ाते हैं।
-सुनीता माहेश्वरी