स्वयंसेवक अटल जी

“अटल जी ने रा.स्व.संघ के एक स्वयंसेवक के रूप में इस देश की सांस्कृतिक विरासत को आत्मसात किया था। वैश्विक स्तर पर नेताओं में अटल जी के प्रति आत्मीयता की भावना थी। इस प्रकार का व्यक्तित्व विकसित करने में उन्हें उनके “स्वंयसेवकत्व” की भावना के कारण लाभ मिला।”

भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री, एक महान राजनीतिक नेता, विकास पुरुष की अटलजी की पहचान समाज में थी, साथ ही साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक यह पहचान भी थी। संघ के स्वयंसेवक होने का उन्हें सार्थ अभिमान था। ”संघ मेरी आत्मा है” ऐसा वे कहते थे। 1939 में पहली बार वे संघ के संपर्क में आए। उस समय वे आर्य कुमार सभा में जाते थे। वहां उनकी मुलाकात भूदेव शास्त्री से हुई। उन्होंने अटल जी से सहज पूछा, ”शाम को तुम क्या करते हो”। उन्होंने कहा, ’‘विशेष कुछ नहीं”। शास्त्रीजी ने उन्हें संघ की शाखा में जाने को कहा। अटल जी रोज शाखा जाने लगे। शाखा के खेल तथा अन्य कार्यक्रम उन्हें बहुत अच्छे लगे। पर इससे भी अधिक हफ्ते में एक बार होने वाले बौद्धिक कार्यक्रम में उनकी विशेष रुचि थी।

उस समय अटल जी संघ प्रचारक नारायणराव तर्टे से बहुत प्रभावित हुए। नारायणराव तर्टे ने ही देशभक्ति पर कविताएं लिखने को उन्हें प्रेरित किया। बाद में किसी समय कार्यक्रम में अटल जी ने इस गुरु-शिष्य के रिश्ते को प्रगट रूप से व्यक्त किया। उस समय उन्होंने कहा था कि मैं आज जो कुछ भी हूं वह नारायणराव तर्टे के कारण ही हूं।

अटल जी को प्रभावित  करने वाले अन्य वरिष्ठ कार्यकर्ताओं में श्री बाबासाहब आप्टे, भाऊराव देवरस तथा पं. दीनदयाल उपाध्याय शामिल थे। 1940 का संघ शिक्षा वर्ग देखने के लिए अटल जी सन 1940 में गए थे तब उन्होंने प. पू. डॉक्टरजी का प्रथम बार दर्शन किया। अटल जी ने संघ का प्रथम वर्ष सन 1942 में किया। जब उनका तृतीय वर्ष संघ शिक्षा वर्ग हुआ उस समय वे बी.ए. में पढ़ रहे थे। जब वे दसवीं कक्षा में थे तब ही उन्होंने अपनी प्रसिद्ध कविता ’हिंदू तन मन, हिंदू जीवन…’ लिखी थी। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में उन्होंने भाग लिया था एवं उन्हें सजा भी हुई थी। उस समय उनकी उम्र सोलह वर्ष की थी। 1947 में वे संघ के प्रचारक (पूर्ण कालिक कार्यकर्ता) बने। ’जनसंघ’ की स्थापना के बाद उन्हें जनसंघ में काम करने हेतु भेजा गया।

भाऊराव देवरस का 15 अप्रैल 1992 को निधन हुआ। निगमबोध घाट पर उनका अंतिम संस्कार किया गया। उस समय उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए अटल जी ने कहा, ”पू. डॉक्टरजी के विषय में  कहा जाता है कि चलते-चलते वे स्वयं राह बने गए। भाऊराव भी उसी श्रेणी के कार्यकर्ता थे।” उस समय अटल जी ने भाऊराव के विषय में एक संस्मरण सुनाया। एक बार किसी कार्यक्रम में करीब 40 स्वयंसेवक एकत्रित हुए थे। अल्पोपहार चल रहा था एवं एक स्वयंसेवक दही परोस रहा था। अचानक उसका पैर फिसल गया एवं उसके हाथ का दही का मटका जमीन पर गिर गया और फूट गया। सब का ध्यान उस ओर गया परंतु किसी के भी कुछ कहने के पूर्व भाऊराव तुरंत बोले, ”देखिए, उसके पैर में चोट तो नहीं आई है।” उनकी इस बात से सब का ध्यान दही से हट कर स्वयंसेवक के पैर की तरफ गया। अटल जी ने ताड़ लिया कि यह व्यक्ति ”कुछ और ही है।” व्यक्तियों की चिंता करने वाला, व्यक्तियों को संतुष्ट करने वाला यह मानव है। अपने एक वाक्य से पूरा वातावरण बदल डालने वाला सामर्थ्य इसमें है। भाऊराव का प्रभाव अटल जी पर आगे भी सतत रहा।

पं. दीनदयाल उपाध्याय के साथ भी अटल जी के सम्बंध आत्मीयतापूर्ण थे। अटल जी के व्यक्तित्व पर उनका भी प्रभाव पड़ा। जनसंघ की स्थापना के समय जो उनका जुड़ाव था वह आखिर तक  रहा। इस तरह संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के साथ रह कर उनके मार्गदर्शन में विकसित होकर एक स्वयंसेवक इस देश का प्रधानमंत्री बना और देश का गौरव बढ़ाया। यह सभी  स्वयंसेवकों के लिए गर्व की बात है।

“स्वयंसेवकत्व” यह अपने व्यक्तित्व का आधार है, अटलजी ने इस बात को सदैव ध्यान में रखा। ’राजनीति की रपटीली राहें’ इस पुस्तक में अटल जी कहते हैं, “लाखों स्वयंसेवकों के कष्ट, परिश्रम त्याग व समर्पण के कारण आज हमें यह दिन देखने को मिल रहा है। जो आज हमारे बीच नहीं हैं उनको मैं विनम्र श्रद्धांजलि अर्पण कर रहा हूं और जो स्वयंसेवक आज अपने सााथ हैं उन सब को मैं आश्वासन देता हूं कि जिस किसी कार्य से संघ की धवल कीर्ति को दाग लगेगा ऐसा कोई भी कार्य मैं कादापि नहीं करूंगा।”

सन 1996 में जब उनकी सरकार मात्र तेरह दिन चली थी उस समय संसद में विश्वास प्रस्ताव पर बोलते हुए उन्होंने कहा, ”जो संगठन राष्ट्रोत्कर्ष एंव व्यक्तित्व निर्माण के कार्य मे लगे हैं उनका नाम जबरदस्ती इस चर्चा में लाने का प्रयत्न किया गया है। मेरा इशारा रा.स्व.संघ की ओर है। रा.स्व.संघ के विचारों से किसी का मतभेद हो सकता है; परंतु संघ पर जो आरोप किए गए हैं उनकी तनिक भी आवश्यकता नहीं थी। संघ के रचनात्मक कार्यों के विषय में कांग्रेस तथा अन्य दलों के मन में आदर एवं सहकार्य की भावना है। यदि संघ के लोग दीनदु:खी लोगों की बस्ती में जाकर कार्य कर रहे हैं या वनवासियों के बीच शिक्षा का प्रसार कर रहे हैं तो इसके लिए उनकी प्रशंसा ही करनी वाहिए तथा उनकी पूरी सहायता करनी चाहिए।”

चर्चा में आगे बोलते हुए अटल जी ने कहा, ”मैं एक ताजा उदाहरण देता हूं। मैं इस बात का उल्लेख नहीं करता कि चीन के आक्रमण के बाद पं. नेहरू के नेतृत्व में राष्ट्र की एकता दर्शाने हेतु 26 जनवरी की परेड में भाग लेने हेतु जिन संस्थाओं को बुलाया गया था उसमें रा.स्व.संघ का समावेश था। कम्युनिस्ट तब क्या कहते थे यह मैं बताना नहीं चाहता। लाल बहादुर शास्त्री भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री थे। उनके कार्यकाल में पाकिस्तान के साथ हमारा जब युद्ध हुआ तब दिल्ली में यातायात नियंत्रण हेतु प्रशिक्षित व्यक्तियों की आवश्यकता हुई तब वह करने के लिए संघ के स्वंयसेवक ही आगे थे।

बंगलोर में आपातकाल के विरोध में एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। उसमें देवेगौड़ाजी उपस्थित थे। उन्होंने अपने भाषण में बताया कि, ”रा.स्व.संघ एक निष्कलंक संगठन है। चालीस साल से अधिक के मेरे राजनीतिक जीवन में मैंने एक बार भी संघ पर टीका-टिप्पणी नहीं की।” यह बात उन्होंने अत्यंत जवाबदारी से कही और आपातकाल में संघ की सक्रिय भूमिका का भी उन्होंने जिक्र किया। उन्होंने आगे कहा कि आपातकाल में जो लोग इंदिराजी के साथ थे तथा आपातकाल का समर्थन कर रहे थे वे लोग आज हमारे साथ हैं। वे पहले सत्तासुख भोग रहे थे। जिसे कोई कलंक नहीं लगा ऐसा एकमात्र संगठन था रा.स्व.संघ। अन्य लोग तो कभी इधर तो कभी उधर भटक रहे हैं। अपने एक भाषण में अटल जी ने कहा था, इस देश के जो लोग देशभक्त हैं, विवेकी हैं और अंत:करण से इस देश का भला चाहते हैं तथा संघ के संपर्क में आए हैं वे सभी लोग जानते हैं कि ऐसा संगठन देशहित के लिए समर्पित है।

अटल जी ऐसे पहिले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने पूर्वी देशों का प्रवास  किया था। उदा. थाईलैण्ड, कंबोडिया, इंडोनेशिया इ.। उनकी इस यात्रा से इन देशों के साथ हमारे सांस्कृतिक संबंध और मजबूत हुए। कारण उन देशों की संस्कृति एंव हमारी संस्कृति की समानताएं वे जानते थे। अटल जी ने एक स्वयंसेवक के रूप में इस देश की सांस्कृतिक विरासत को आत्मसात किया था। वैश्विक स्तर पर नेताओं में अटल जी के प्रति आत्मीयता की भावना थी। इस प्रकार का व्यक्तित्व विकसित करने में उन्हें उनके ”स्वंयसेवकत्व” की भावना के कारण लाभ मिला।

भारतीय संस्कृति विश्व के सामने सही तरीके से प्रतिपादित करने में वे सफल रहे। भारत में अल्पसंख्यक सुरक्षित नहीं हैं ऐसी आवाजें कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा बार-बार उठाई जाती रही हैं। परंतु  इसकी निरर्थकता अटल जी ने बार-बार इंगित की थी। भारतीय संस्कृति एंव सभ्यता बहुत पुरातन है और सहिष्णुता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यह गुण भारतीयों के रक्त में व्याप्त है और इसलिए यहां अल्पसंख्यक समाज को डरने का कोई कारण नहीं है। वे यहां हमेशा सुरक्षित रहेंगे यह अटल जी ने स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया। भारतीय संस्कृति का महत्व बताकर उन्होंने एक प्रकार से संघ विचार ही देश के समुख प्रगट किया था।

अटल जी के व्यक्तित्व का एक और पहलू याने निगर्वित्व एवं ॠजुता है। 1959 के संघ शिक्षा वर्ग में मैंने पहली बार उनको देखा था। पू. श्रीगुरुजी के बैद्धिक वर्ग के समय पू. श्रीगुरुजी ने सभी प्रशिक्षार्थियों से उनका परिचय कराया था। पू. श्रीगुरुजी बता रहे थे कि वे एक योग्य एंव निष्णात सांसद हैं, जनसंघ के बड़े नेता हैं तब पू. श्रीगुरुजी के मुख से अपनी प्रशंसा सुन कर अटल जी को बहुत संकोच हो रहा था।

मैं उनको बहुत करीब से जानता था। मैं उनसे 20 वर्ष छोटा हूं, परंतु संघ के वरिष्ठ अधिकारी के नाते मुझे हमेशा सम्मान दिया था। केवल मेरा ही नहीं तो अन्य लोगों का अनुभव भी ऐसा ही है। चमनलाल जी संघ के वरिष्ठ प्रचारक थे। उनके अंतिम समय उनकी बीमारी में उन्हें योग्य उपचार मिले इस पर अटल जी स्वयं ध्यान दिया था।

अटलजी के स्वभाव का एक विशेष गुण और था। कोई उनके बारे में किसी भी प्रकार की प्रतिकिया व्यक्त करें उससे वे विचलित नहीं होते थे। संघ परिवार की अन्य संस्थाओं के विषय में उन्होंने कभी भी कटु उद्गार व्यक्त नहीं किए। अटल जी विरुद्ध आडवाणी जी ऐसा विवाद उत्पन्न करने का प्रयास किया गया, परंतु सहयोगी कार्यकर्ता के रूप में उन्होंने आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया। राजनीति मेें एक उच्च आदर्श उन्होंने प्रस्तुत किया। उसका कोई पर्याय नहीं है। ऐसे अटल जी का समर्थ नेतृत्व हमें प्राप्त हुआ था।

 

This Post Has 4 Comments

  1. कप्तान गजानन करंजीकर

    बहोत खूब। सही लिखा है।

    हिंदू तन मन, हिंदू जीवन

  2. Murlidhar mishra

    सुंदर अति सुंदर धन्यवाद

  3. ब्रह्मानंद डी पांडेय

    बहुत अच्छा

  4. Mahendra

    Bahut accha

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