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आईना झूठ न बोले

आईना झूठ न बोले

by निहारिका पोल
in फ़ैशन, फैशन दीपावली विशेषांक - नवम्बर २०१८, महिला
1

मैं आईना…वैसे मेरा और आपका रिश्ता तो सदियों पुराना है। मुझे देखे बिना आपका एक दिन भी गुजरता नहीं, और मुझ से बातें किए बिना आपको चैन भी नहीं पड़ता। तो अगर कभी श्रृंगार में कोई कमीं रह जाए तो खरी-खोटी मुझे ही सुननी पड़ती है, और कभी आप अति सुंदर लगें तो डिठूला कभी-कभी आपके साथ मुझे भी लग जाता है। तो ऐसा है हमारा रिश्ता सदियों पुराना। आज इसी रिश्ते की एक कहानी सुनाने जा रहा हूं… मेरी और उसकी कहानी…
वह बहुत छोटी थी, कुछ तीन चार महीने की। एक बार हंसी-मजाक में पिताजी ने उसे मुझ से मिलवाया, अपना ही प्रतिबिंब देख कर वह कुछ सहम सी गई, उसके लिए तो यह सब नया ही था। यूं अचानक अपने-आप को इस तरह देखना उसके लिए किसी अचंभे से कम तो न था। लेकिन तब से जो हमारी दोस्ती जुड़ी वह अब तक। जिस तरह परिवार के बाकी लोगों के साथ मेरी नोंकझोंक, हंसी-मजाक चलता रहता था, वैसा उसके साथ भी था। लेकिन उसकी मुझ से दोस्ती कुछ खास थी। 6-7 महीने की होते-होते तक वह मुझमें अपने आप को देखकर खिलखिलाती थी, उसकी हंसी से, उस प्यार भरी हंसी की खनक से मानो सारा परिवार खिल उठता था। हर कोई उसे गोद में उठाए मेरे सामने ले आता था, और वह हंसती रहती थी। परिवार के हर सदस्य के लिए यह एक खास कार्यक्रम हो गया था, उसे मेरे सामने लाना और उसका खिलखिलाना।
समय भी कितना दगाबाज है, बस पंख लगाकर उड़ जाता है, मैंने उसके कितने रंग देखे हैं मैं बता नहीं सकता। वह धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी। अब कुछ 4-5 बरस की हो चुकी थी, मां की चुनरी ओढ़े, उसे साड़ी बनाकर मेरे सामने खड़े होकर उसे टीचर-टीचर खेलना बहुत पसंद था, और उसे इस तरह अपने-आप में मशगूल देखना, उसकी मासूमियत भरी आंखों में बड़े होने की जल्दी देखना मुझे भी बहुत अच्छा लगता था। कभी-कभी मां उसे डांट कर जाती थी, सारे दुपट्टे खराब कर देती हो कह कर उसे एक फटकार लगा जाती थी, और वह अपना सा मुंह लेकर मेरे सामने आकर बैठ जाती थी। फिर अपनी मां की नकल उतारते हुए घंटों पुटपुटाती रहती थी, और मन ही मन मुझे बहुत हंसी आती थी। सोचता था ना जाने जब यह बड़ी हो जाएगी तब भी क्या ऐसे ही करेगी? इसका पुटपुटाना, थोड़ी देर बाद मान जाना और वापस मेरे सामने आकर नाचते रहना, क्या दिन थे वे! उसकी मासूमियत आज भी मेरे सामने है।
उसकी उम्र बढ़ती जा रही थी, और उसका और मेरा रिश्ता भी बदलता जा रहा था, पहले उसे मुझे देखकर हंसी आती थी, फिर मुझ में उसे एक खेल नजर आता था, लेकिन अब मुझ में उसे अपना एक सच्चा दोस्त नजर आने लगा था, मैं उसका राजदार था, उसके पहले पिंपल का साक्षी, उसके लिए उसने किए कई उपायों का साक्षी, और उन उपायों का रंग लाना या न लाना और उससे उसके चहरे पर उठने वाले भावों का साक्षी मैं बन चुका था। अब केवल मां का दुपट्टा ही नहीं, तो उनके जेवर, उनका श्रृंगार का सामान उनकी नजरों से बचा कर वह ले आती, और घंटों मेरे सामने बैठ कर अपने-आप को निहारती, कभी बाल संवारती, तो कभी कान की बाली छू कर देखती, सही तो लग रहा है ना? बार-बार परखती। उसमें आया यह बदलाव उसके कई राज खोल रहा था, नन्ही गुडिया अब बड़ी हो रही थी, और इसका सब से बड़ा साक्षीदार मैं था, वह घंटों मुझ से बातें करती थी, और उसकी सारी बातें मुझे बड़ी प्यारी लगती थीं।
मुझे आज भी वह दिन याद है, जब वह कॉलेज में पहले दिन जाने के लिए तैयार हो रही थी, कितनी तैयारियां की थीं उसने, ये नहीं वो पहनूंगी, बाल ऐसे नहीं ऐसे बनाऊंगी कहते-कहते करीब 20 बार वह

 

कपड़े बदल चुकी थी, और दर्जनों बार अपने बाल संवार चुकी थी। पहली बार गणवेश की दुनिया से बाहर निकल कर वह सतरंगी दुनिया में जा रही थी, अपना एक अलगपन, अपना एक अलग अस्तित्व शायद उसे पहले दिन से ही बनाना था, और इन सब से भी ज्यादा वह आज के दिन सुंदर लगना चाहती थी, क्या यह एक कारण उसकी इस भागदौड़ के लिए काफी न था? उसने कॉलेज के कितने राज केवल मुझे बताए थे, कॉलेज फेस्ट के नृत्य में उसे पुरस्कार मिला तब भी कितनी खुश हुई थी वह, आखिर नृत्य के लिए तैयार होते वक्त उसने सारी बातें मुझे ही तो बताई थीं। उसकी खासियत यह थी कि वह बहुत ही साधारण और मासूम थी, कॉलेज की अन्य लड़कियों की तरह मेक अप वह कतई नहीं करती थी, हां लेकिन उसे मेरे सामने तैयार होना, टिपटॉप कॉलेज जाना पसंद था। जब नए कपडे बन के आते थे तो उसकी खुशी देखने लायक होती थी।
बीच में जब उसका वजन थोड़ा बढ़ गया था, बाप रे बाप कितना नफरत करती थी वह मुझ से, मैं बताने की कोशिश करता था, कि ‘अरे लड़ने से अच्छा कुछ करो इसके लिए, कोई उपाय करो.. सुंदर तो तुम हो ही.. हमेशा रहोगी भी.. लेकिन वजन कम करना है तो रोज मैं सच्चाई तो दिखाऊंगा ही भाई..’ लेकिन वह कहां सुनती थी, बस नफरत करती थी मुझ से। शायद इस नफरत से ही प्रेरणा लेकर वह जोरशोर से वजन कम करने में लग गई। जो भी हो प्यार या नफरत आता सब मुझ पर ही था।
उसकी अल्हड़ मुस्कान, उसकी मासूमियत और मुझ पर उसका विश्वास मुझे कई राज बता गया। पता है, जब वह नौकरी के इंटरव्ह्यू पर जाने वाली थी, एक रात पहले से मेरे सामने खड़े होकर उसने कितनी तैयारी की थी, मैंने भी उसका उतना ही साथ दिया, आखिरकार मैं कंपनी के बॉस का किरदार जो निभा रहा था। जब नौकरी मिली तब मेरे सामने खड़े होकर ही उसने यस्स तूने कर दिखाया.. बोला था.. अब उसने मुझे बोला या खुद को पता नहीं.. । आज मुझे लग रहा था, केवल वह अकेली नहीं, यह कमरा भी और साथ में मैं भी बड़ा हो गया हूं, क्योंकि आज उसे लड़के वाले देखने आने वाले थे। आज तो उसकी सुंदरता देख कर मैं भी हैरान था। बचपन की खिलखिलाती वह याद आई और आज का उसका रूप देख कर समय की ताकद पता चली। मां के दुपट्टे की साड़ी बनाकर पहनने वाली नन्ही परी आज साड़ी में खूबसूरत तैयार होकर खड़ी थी। उसके इस रूप पर तो मैं भी फिदा था। आखिरकार उसकी आज शादी तय हो ही गई। श्रृगांर उतारते वक्त उसकी लज्जा से भरी आंखें मुझमें अपने आपको देख रही थी। और उसकी नजरें अभी तक मेरे जहन में बसी हुई हैं।
उसकी शादी की दिन था और आज भी वह मुझ से मिले बिना नहीं गई, आज उसका साजो-श्रृंगार अलग ही था, उस दिन से भी ज्यादा खूबसूरत लग रही थी वह। आज उसकी सासू मां ने भी उसका पहला दर्शन मुझ में ही किया।  शायद आज भी अपने-आप को मुझ में वह देख कर शर्मा गई। उसकी आंखों का काजल, बिंदी, जेवर, दुपट्टा सभी को जब तक मैंने प्रमाणित नहीं किया, तब तक वह कमरे के बाहर भी नहीं गई थी, और इसीलिए आज मैं भी अपने आप को कुछ ज्यादा ही महत्वपूर्ण महसूस कर रहा था।
कहा ना उसके इतने रंग देखे हैं मैंने क्या बताऊं, आज जब उसकी नन्ही परी मेरे सामने उसी की तरह खिलखिलाती है ना, कसम से उसी का बचपन याद आता है। आईना याने कि मैं केवल सुंदर दिखने का प्रमाणपत्र नहीं देता, मैं दोस्त हूं, मैं राजदार हूं, सखा हूं, सच्चाई दिखाता हूं, जब सच्चाई दिखाऊं तो कई बार मुझे नफरत भी मिलती है, लेकिन कुछ भी हो उससे मेरा जो नाता है वह हमेशा खास रहेगा।
और आप सोच रहे होंगे इस कहानी में वह कौन है? शायद वह आप हैं, या शायद आप में से ही एक कोई.. । यह कहानी किसी एक की नहीं, मेरा यह नाता कई नन्ही परियों से है…
दर्पण से रिश्ता अनमोल है…
सच्चाई का नाता ऐसा,
एक दोस्त से दोस्त का जैसा..
हर पडाव पर साथ निभाए,
तभी तो सच्चा मित्र कहलाए।
सदियां बीतीं, कई साथ छूटे,
लेकिन आईने से रिश्ता कभी न टूटे..
कोई साथ निभाए ना निभाए..
दर्पण की दोस्ती सदैव काम आये।
आज कल और हमेंशा.. मुझे याद रखना मैं साथ जरूर निभाऊंगा – आपका अपना ‘आईना’!!

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लक्ष्मी आई मेरे द्वार

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Comments 1

  1. Neerja Bodhankar says:
    7 years ago

    वाह!क्या बात है!!बहुत खूबसूरत रिश्ता है आईने से।निहारिका ऐसे ही लिखती रहो।

    Reply

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