केवल कट्टर वहाबी इस्लाम का दुराग्रह व दूसरे पंथों व धर्मों को एक सिरे से नकारने का प्रशिक्षण देने का कार्य सऊदी अरब जैसे तेल संपन्न राष्ट्र भारत जैसे अनेक गरीब देशों में कर रहे हैं। इसे बदलने का कार्य केवल राष्ट्र की जनशक्ति ही कर सकती है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों और विचारकों को इसमें पहल करनी चाहिए।
आंतरिक सुरक्षा का प्रश्न भारत के लिए कोई नई बात नहीं है। १९६० के दशक में ईशान्य भारत में फिजो के नेतृत्व में प्रारंभ हुए नागालैण्ड के आंदोलन के साथ यह समस्या अस्तित्व में आई। जिसका अंत असम के विभाजन एवं सात छोटे राज्यों की स्थापना के साथ हुआ। उस समय प्रारंभ हुए नागालैण्ड आंदोलन का साया मणिपुर एवं बोडोलैण्ड में भी दिखाई दे रहा है। १९६० के दशक से ही नक्सलवादियों ने सत्ता को ललकारना प्रारंभ कर दिया था। आजतक इस समस्या पर नियंत्रण के प्रयास की बात तो छोड़ दें, २०० से अधिक जिलों तक यह समस्या फैल चुकी है। यह समस्या निकट भविष्य में नियंत्रित हो सकेगी ऐसा कहीं दिखाई भी नहीं देता। समस्या ने पूर्वी पंजाब में भी सिर उठाया था।
जम्मू-कश्मीर पिछले दो दशक से अशांत था। २०१४ के जम्मू- कश्मीर के चुनावों में यद्यपि जनता ने प्रजातंत्र को मजबूत किया हुआ दिखा देता है पर जम्मू तथा कश्मीर इन दो क्षेत्रों में धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण होने का चित्र स्पष्ट दिखाई दे रहा है। आंतरिक सुरक्षा के मामले में देश को कई मोर्चे पर लड़ना पड़ रहा है। नियमित चुनाव तथा मतदान में पर्याप्त जन भागीदारी आदि सकारात्मक पहलुओं के बावजूद आंतरिक सुरक्षा के बढ़ते संकट कहीं लक्ष्मण रेखा लांघते दिखाई देते हैं तो देश की एकात्मता को खतरे में देख जन सामान्य के हृदय में टीस उठना स्वाभाविक है। प्रस्तुत लेख में इस्लाम के संदर्भ में उत्पन्न आंतरिक सुरक्षा के संकट के विषय में विचार किया गया है।
नया धार्मिक ध्रुवीकरण
धार्मिक ध्रुवीकरण तो भारत में पहले से ही चल रहा है परंतु अब उसका उग्रवादी चरित्र बहुत तेजी से सामने आ रहा है। इस समस्या को वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण से नहीं देखा जाना एक बड़ी भूल है। इस देश के लगभग २०-२५ करोड़ मुसलमान सामाजिक अन्याय की भावना से मुख्य धारा से दूर हटते दिखाई दे रहे हैं। इसकी चिंता करते हुए न तो यहां का इंटेलेक्चुअल मीडिया दिखाई दे रहा है न राजनीतिक पार्टियां। इसके विपरीत इसको कोई समस्या न मानते हुए केवल बहुसंख्यक हिंदू समाज ही इसके लिए जिम्मेदार है ऐसी धारणा बनाई जा रही है। दूसरी ओर जन सामान्य इस धारणा से सहमत होता दिखाई नहीं देता। यह सच है कि कुछ मुस्लिम लेखक व चिंतक इसके विरोध में खड़े होते दिखाई देते हैं पर उनकी अवाज अप्रभावी सिद्ध हो रही है।

मुस्लिम समाज में बदलाव
पिछले दो दशकों से दक्षिण एशिया के भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका तथा आग्नेय एशिया के मलेशिया, इंडोनेशिया आदि देशों में एक नया सामाजिक बदलाव जड़ पकड़ रहा है। सऊदी अरब जैसे तेल संपन्न राष्ट्र के द्वारा उस देश में पिछले दो शताब्दियों से पनप रही वहाबी पंथ की इस्लामिक विचारधारा को अन्य देशों में प्रचारित-प्रसारित करने की कोशिश चल रही है। केवल एक ही प्रकार के इस्लाम का दुराग्रह व दूसरे पंथों व धर्मों को एक सिरे से नकारने का प्रशिक्षण देने का कार्य इस पंथ के मुल्लाओं ने गरीब देशों से प्रारंभ किया। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश आदि देशों में बड़े-बड़े मदरसों का निर्माण कर उसमें आर्थिक दृष्टि से कमजोर बच्चों को आवास देकर उन्हें परधर्म-परपंथ विद्वेष की जहरीली भावना उत्पन्न करने वाला प्रशिक्षण दिया जा रहा है। भारत के सीमावर्ती क्षेत्रों में शस्त्र लूटने का प्रशिक्षण भी योजनापूर्वक दिया जा रहा है। यह बात पिछले दो महीने पहले वर्दमान में हुए विस्फोट के बाद सामने आई। उस घटना पर ममता बनर्जी द्वारा परदा डालने का प्रयास भी किया गया। इसके पीछे केवल राजनीतिक स्वार्थ एवं वोट की राजनीति थी। इसके पहले भी ममता ने मदरसों के बहुत चक्कर लगाए पर वहां चलने वाली गतिविधियों को अनदेखा किया।
कांग्रेस ने केवल वोट की राजनीति के चलते इस देश की आम जनता को बांटने का बड़ा पाप किया है ऐसा ही कहना उचित है। दो दशक पहले मंडल आयोग की स्थापना कर जाति-जाति के बीच वैमनस्य बढ़ाकर समाज विशेष का वोट बैंक अपने लिए सुरक्षित करने की देशद्रोही नीति भी कांग्रेस ने अपनाई। परंतु मंडल आयोग का लाभ न मिलने के कारण कांग्रेस ने सच्चर कमेटी/आयोग बनाकर बहुजन व मुस्लिमों के एकमुश्त वोट बटोरने के लिए मुसलमानों को अलग-थलग करने का कुत्सित प्रयास किया। अवसरवादी मुस्लिम नेता इस बात का लाभ उठाकर मुसलमानों पर अन्याय हो रहा है ऐसी भावना फैलाकर मुस्लिम समाज में असंतोष पैदा करने का प्रयास करते रहे। आज उसका परिणाम दिखाई दे रहा है। ‘पुलिस सुरक्षा हटा दो हम १०० करोड़ हिंदुओं को देख लेंगे’ इस ओवैसी बंधुओं की ललकार को सभा में उपस्थित हजारों मुसलमान दाद देते हैं। आंध्र व महाराष्ट्र में राक्षसी रजाकारों की पृष्ठभूमि रखनेवाली एमआईएम राजनीतिक पार्टी चुनावों के माध्यम से अपने विधायक चुनकर ला सकती है। व्यवसाय से वकील, कांग्रेस का एक नेता जिसके बाप दादा स्वतंत्रता संग्राम में भागीदार थे, जो खुद सालों कांग्रेस में केंद्रीय मंत्री रहा, वह सभी क्षेत्रों में मुसलमानों को धर्म के आधार पर आरक्षण मिलने की संविधान विरुद्ध मांग करता है। ये सब बातें केवल २०१४ की घटनाएं नहीं हैं तो पिछले दो-तीन दशकों से इस समस्या से आंख मूंदकर रहने का परिणाम है। जिससे भारतीय समुदाय के एक बड़े साम्प्रदायिक जनसमूह में अपने अलग अस्तित्व होने की व अन्य समाज से अलग रहने की मानसिकता पैदा हुई।
अब पिछले वर्ष इसिस (Islamic State of Iraq & Syria) के तेजी से बढ़ते प्रभाव एवं उससे स्थापित खिलाफत का एक नया आयाम जुड़ गया। वहाबी विचारधारा में खलीफा के अकेले के वर्चस्व के नीचे सभी मुसलमानों को आने का कालबाह्य विचार समाहित है। इन विचारों में पली बढ़ी और प्रेरणा ले रही पीढ़ी ने आधुनिक तकनीकी ज्ञान के साथ उग्रवाद की विचारधारा भी आत्मसात की। उसमें कल्याण के इंजीनियरिंग या आईटी विशेषज्ञ जैसे उच्च शिक्षा प्राप्त युवा भी सक्रिय हैं। हसन सरूर के कहे अनुसार कट्टर इस्लामिक विचारधारा से प्रेरित मुसलमान खासकर सुन्नी मुसलमान युवकों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। अब ये तरुण केवल आर्थिक कारणों से नहीं तो धर्म के नाम पर उग्रवादी हिंसा की ओर बढ़ रहे हैं।
संकट का अपर्याप्त आंकलन

इस अहम सवाल को अनदेखा करने के कारण हमारी सुरक्षा एजेंसियों को इस संकट का कैसे सामना करना इसका ज्ञान नहीं है। मुस्लिम समाज में, खासकर सुन्नी, वहाबी संप्रदाय में सिर उठा रहे विद्रोह को किस प्रकार दूर किया जाए इसकी कोई योजना नहीं है। इतना ही नहीं भारत नीति प्रतिष्ठान दिल्ली द्वारा प्रकाशित ‘आंतरिक सुरक्षा: चुनौतियां एवं समाधान’ इस पुस्तक में भी इस प्रश्न को अनदेखा किया गया है।
जन सहयोग
मुस्लिम समाज की आंखों पर पहले से ही धार्मिकता का परदा पड़ा है। जब तक यह समुदाय १०-१२ प्रतिशत तक सीमित था, तब तक बहुसंख्यक समाज के साथ हिल-मिलकर जीने का स्वभाव था। परंतु २० प्रतिशत के ऊपर जनसंख्या हो जाने के बाद खासकर सुन्नी संप्रदाय में एक प्रकार का सामाजिक उन्माद दिखाई दे रहा है। इस सत्य को जब तक भारतीय जनसामान्य स्वीकार नहीं करता तब तक आंतरिक सुरक्षा के इस सवाल को सुलझाना आसान नहीं है। अब तो जिस प्रकार मुस्लिम युवा खिलाफत के इसिस के राजनीतिक प्रभाव में आ रहे हैं उससे तो उग्रवाद की दस्तक हमारे आपके घर तक पहुंचने में देर नहीं है। इसका हम और आप निर्भयतापूर्वक सामान करें यही एक विकल्प है।
दिनांक २९ सितंबर २०१४ के ‘द हिंदू’ में हसन सुरूर लिखते हैं कि कुरान तथा हदीस इन मुस्लिम धर्मग्रंथों के दर्शन से दोनों प्रकार का आशय निकाला जा सकता है। हसन लिखते हैं, ‘Muslims can cite Koranic verses and Hadith to underline Islamic injunctions against violence, its command to treat women with respect and accord them equality, its message of tolerance… It also has another, less pleasent, face. For, the Islam preached by the taliban and their fellow travellers is also Islam; and if you ask them, they will also cite Koranic verses and Hadith to back their philosophy does derive legitimately from the same Islamic Theology that the good face of Islam does. Muslims must stop being in denial about it.’ यही वह बिंदु है जहां गैर सुन्नी मुस्लिम समुदाय के साथ हिंदू समाज के सामाजिक चिंतन के द्वारा परस्पर सहयोग व आंतरिक सुरक्षा की शुरुआत हो सकती है।
जिस प्रकार हिंदू समाज में सामाजिक विषमता फैलाने वाले ग्रंथों, स्मृतियों को दूर रखने का प्रयास किया गया, इसके लिए सामाजिक जागृति पैदा की गई, वही काम मुस्लिम समाज में करने की आवश्यकता है। कुरान, हदीस में जो सामाजिक सद्भाव पैदा करने वाले परिच्छेद हैं उनको मुस्लिम समाज के सामने विभिन्न माध्यमों के द्वारा व विचारों के आदान-प्रदान के द्वारा सामने लाना होगा। कुरान, हदीस के जिन भागों का उल्लेख तालिबानी उग्रवादी अपने समर्थन में करते हैं उन भागों का महत्व अब काल के साथ खत्म हो गया है इस बात की समझ भी आम मुसलमानों के बीच पैदा करनी होगी। कुरान शरीफ की एक आयत है अब जब कुफ्र करने वालों से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो (उनकी) गर्दन पर मारना यहां तक कि जब तुम उन्हें बंधनों में डालो।‘‘कु.४७.४‘‘। मस्लिम समाज में यह समझ पैदा करनी होगी कि ये आयतें अब कालबाह्य हो चुकी हैं। न सुनने वाली पत्नी पर हाथ डालने वाली आयतें भी अब कालबाहय हो गई हैं। पिछली एक डेढ़ शताब्दी से जैसा हिंदुओं ने सामाजिक स्तर पर आत्मनिरीक्षण किया वैसे ही आत्मनिरीक्षण की प्रक्रिया से मुस्लिम समाज को भी गुजरना होगा। इसके लिए भी हिंदू समाज को प्रयत्न करने होंगे। प्रत्येक धर्मग्रंथ में कुछ निर्देश तात्कालिक होते हैं तो कुछ तत्व शाश्वत होते हैं। तात्कालिक निर्देशों का काल व परिस्थिति के अनुसार ही प्रयोग किया जाना चाहिए वरन वे समाज के लिए घातक हो सकते हैं। इसिस ने यजीदी महिलाओं को बेचने, उन पर बलात्कार अत्याचार करने का समर्थन किया। यह बात उस समय भी, आज भी कितनी विसंगत है यह सवाल सामान्य मुस्लिम समाज के सामने रखना होगा। यदि उग्रवाद अब हमारे आपके दरवाजे तक पहुंचने वाला होगा तो उसका मुकाबला शस्त्रों से करने के बजाय सामूहिक स्तर पर वैचारिक रीति से करना होगा। इसके लिए बहुसंख्यक जनता को सुजान मुस्लिम विचारकों को साथ लेकर आगे आना होगा। जो सामान्य मुसलमान कट्टरपंथियों के भय से मुंह बंद करके रहता है उसको इस प्रकार के सार्वजनिक विचार मंथन से ताकत मिलेगी। धार्मिक कट्टरपंथियों के विरोध में खुलकर सामने आने का साहस कर सकेंगे। पाकिस्तान में भी कट्टर मुल्लाओं को ‘‘बदमिजाजी दीनी बंदा’’ “Muslim becoming – narida khan”(Page No. 147) कहकर अनदेखा किया जाना शुरू हो गया है।
इस विषय पर शासन प्रशासन कुछ अधिक नहीं कर सकता। उसके लिए बहुसंख्य मुस्लिम नागरिकों के बीच विचार मंथन, यथोचित विचारों का आदान-प्रदान कर एक सार्थक समझ विकसित करने की आवश्यकता है। आज धार्मिक मुद्दों पर चर्चा को टालने की प्रवृत्ति बढ़ रही हैं। हसन सुरुर के इस कथन की पुष्टि करते रहना पड़ेगा, “Not only muslim but all of us stop being in denial about it” केवल मुस्लिम समाज ही नहीं तो सभी समाजों की कुप्रथाओं पर खुलेआम चर्चा किए जाने की आवश्यकता है। अंतत: आंतरिक सुरक्षा के राजमार्ग पर जाने वाला यही एक रास्ता है। उस रास्ते पर लोक प्रवाह को आगे बढ़ाना होगा।
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