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भारतीय सेना के आधार

भारतीय सेना के आधार

by मल्हार कृष्ण गोखले
in फरवरी-२०१५, सामाजिक
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१५ जनवरी यह दिन प्रति वर्ष ‘सेना दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। सन १९४९ में १५ जनवरी को जनरल करिअप्पा ने अंतिम अंग्रेज सेनापति से सेना के सूत्र स्वीकार किए। स्वतंत्र भारत के वे पहले भारतीय सेना प्रमुख थे। इस घटना की स्मृति में दि. १५ जनवरी को ‘सेना दिवस’ मनाया जाता है।
थल सेना किसी भी फौज का सब से महत्वपूर्ण अंग होता है। आधुनिक काल में नौसेना एवं वायु सेना का भी महत्व है यह सही है, लेकिन थल सेना का महत्व अनन्यसाधारण है, क्योंकि अपने देश की भूमि को सही माने में अपने नियंत्रण में रखना, उसकी रक्षा करना यह काम स्थल सेना ही करती है। वायु सेना दुश्मन के इलाके को बमवर्षा से भून डालेगी, दुश्मन के अड्डे ध्वस्त करेगी, नौसेना दुश्मन के व्यापार की नाकाबंदी करते इुए उसे अपंग बना देगी, लेकिन उसके पश्चात का चरण अर्थात दुश्मन की भूमि पर कब्जा करना है। यह काम तो थल सेना ही करती है।
प्राचीन परम्परा
भारत की सैनिकी परम्परा बड़ी ही प्राचीन है। हमारे सभी देवता शस्त्रधारी ही हैं। भगवान विष्णु ‘शारंग’ धनुष्य से अथवा सुदर्शन चक्र से, भगवान शिव ‘पिन्मक’ धनुष्य से अथवा त्रिशूल से, माता जगदम्बा अपने खड्ग से अथवा भाले से युद्ध करते हैं। रामायण, महाभारत काल के रथी, अतिरथी, महारथी आदि महान योद्धा अपनी चतुरंग सेना समेत युद्ध किया करते थे। सम्राट चंद्रगुप्त, सम्राट विक्रमादित्य, सम्राट शालिवाहन आदि दिग्विजयी राजाओं ने ग्रीक-शक-हूण-कुशाण आदि विदेशी आक्रमणकारियों को पराजित करते हुए नष्ट कर दिया। छत्रपति शिवाजी ने अपनी भवानी तलवार के तेज से पांचों पादशाहों को आतंकित किया, तो बाजीराव पेशवा ने अपनी तूफानी घुड़दौड़ से मुगल बादशाही को अस्तव्यस्त कर दिया।
आधुनिक सेना
फिर भी स्वतंत्र भारत के वर्तमान अत्याधुनिक सेना की नींव अंग्रेजी शासन के दौरान डाली गई। अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी ने वेतनभोगी सैनिकों के रूप में बड़े पैमाने पर भारतीय लोगों को अपनी सेना में भर्ती कर लिया। अंग्रेज सेनापतियों के मार्गदर्शन में इन जवानों ने यूरोप का युद्ध तंत्र आत्मसात किया।
पहले से ही वीर भारतीय सैनिक आधुनिक युद्ध तंत्र में प्रवीण बनने पर यूरोपियों पर भी हावी हो सकता है, इसकी प्रतीति सन १९१४-१९१८ के पहले विश्व युद्ध के दौरान मिली। अंग्रेजी पलटन जहां पराजित हुई थी उस रणक्षेत्र में भारतीय पलटन भेजी गई। इस पलटन ने संयम, जिद तथा उचित मौका देखकर ही भारी आक्रमण करते हुए तेज जर्मन सेना को पीछे हटने मजबूर किया। यह मामला था फ्रांस का। फ्रांसीसी जनता भारतीय सैनिकों के इस पराक्रम को देख ऐसी खुश हुई कि उसके पश्चात कहीं भी भारतीय सैनिक दिखाई देते ही ‘हिंदू आये, हिंदू आये’, इन शब्दों में उनका स्वागत किया जाता था।
भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का पारखी नेतृत्व अंग्रेजों की नौकरी में जुटे इन भारतीय सैनिकों की ओर कैसे देखा करता था इसका एक बढ़िया किस्सा लेफ्टिनेंट जनरल शंकरराव पाटील-थोरातजी ने अपनी आत्मकथा में बताया है। इंग्लैंड की सैण्डहर्स्ट मिलिटरी अकादमी से अपना प्रशिक्षण पूरा कर थोरातजी भारत लौट रहे थे। उन्हीं के जहाज में संयोगवश लाला लाजपत राय भी थे। दोनों में अच्छी दोस्ती हुई। लालाजी के व्यक्तित्व से युवा थोरात बहुत ही प्रभावित हुए। उन्होंने लालाजी से कहा, ‘भारत पहुंचने पर मैं भी अंग्रेजों की नौकरी से त्यागपत्र देता हूं और आपके साथ स्वाधीनता संग्राम में सम्मिलित होता हूं।’ उस पर लालाजी ने तुरंत कहा, ‘नहीं! नहीं! अजी! ये अंग्रेज आज या कल भारत से बिदा होने वाले ही हैं। उसके पश्चात स्वाधीन भारत को आपके जैसे कुशल-प्रवीण सेनानायकों की बड़ी जरूरत होगी। इसलिए उस क्षण पर नजर रखते हुए अपनी गुणवत्ता को निरंतर बढ़ाते रहना!’
सन १९४७ की कसौटी
गुणवत्ता बढाते रहने के लालाजी के इस आदेश का थोरातजी के साथ सभी भारतीय सेनानायकों ने पालन किया, इसका प्रत्यय स्वाधीनता प्राप्ति के बाद तुरंत मिला। उसी समय कश्मीर को छीनने के इरादे से पाकिस्तानी सेना ने कबालियों के लिबास में कश्मीर पर आक्रमण किया था।
दूसरे विश्व युद्ध में प्रसिद्ध हुए ब्रिटिश सेनानायक जनरल क्लॉड ऑचिनलेक, ूउस समय भारत के मुख्य सेनापति थे, लेकिन वे सेवानिवृत्ति की मोड़ पर थे। उसका ख्याल करते हुए लेफ्टिनेंट जनरल करिअप्पा को सेना के पश्चिम विभाग के प्रमुख पद पर फौरन नियुक्त किया गया। करिअप्पाजी तेजी से अपने काम में जुट गए। अवस्था बड़ी ही विपरीत थी। विभाजन के फलस्वरप सेना की रचना अस्तव्यस्त हुई थी। साधन-सामग्री अधूरी थी। प्रकृति का साथ था नहीं। और तो और राजनीतिक नेतृत्व सैनिकी पराक्रम को ‘लड़ाकूपन’ ही मान रहा था।
फिर भी जनरल करिअप्पा और उनके सहायक अधिकारियों ने साबित कर दिखाया कि विपरीत अवस्था में भी आगे ही बढ़ता है, वही सच्चा सैनिक होता है। वे अपनी अनोखी बहादुरी से पाकिस्तान से कश्मीर का कुछ हिस्सा बचा पाने में सफल हुए। करिअप्पा के साथी सेनानी मेजर जनरल थिमय्या ने तो दुनिया की सब से ऊंची (११,५७५ फीट) जोजिला घाटी में अपनी ‘७ वीं लाइट कैवेलरी’ की टैंक टुकड़ी ले जाकर खड़ी की। सारी दुनिया के सभी सेनानी चकित हुए, क्योंकि किसी भी सेनानी ने तब तक इतनी ऊंचाई पर किसी जगह टैंक ले जाने का साहस किया न था। और तो और ये टैंक भी दूसरे विश्व युद्ध के बाद ब्रिटन ने भंगार में डाल दिए थे।
प्रमुख विभाग
थल सेना के खास तौर पर दो विभाग होते हैं। पहला लड़ाकू विभाग अर्थात कॉम्बट आर्म्स। इसमें इन्फैन्ट्री, एयरबोर्न इन्फैन्ट्री, मेकनाइज्ड इन्फैन्ट्री, पैराशूट रेजिमेंट, आर्मर्ड कोअर, एविएशन कोअर, आर्टिलरी, एअर डिफेन्स आर्टिलरी, इंजीनियर्स कोअर, सिग्नल कोअर आदि उपविभाग होते हैं।
दूसरा विभाग अर्थात रसद विभाग या सपोर्टिंग सर्विसेस। इसमें आर्मी सर्विस कोअर, मेडिकल कोअर, ऑर्डिनेन्स कोअर, इलेक्ट्रिकल एण्ड मैकेनिकल कोअर, मिलिटरी पुलिस आदि उपविभाग होते हैं। लड़ाकू विभाग जितना ही रसद विभाग का भी महत्व होता है।
सन १९४७-४८ के युद्ध में ये दोनों विभाग आपस में पर्याप्त समन्वय रखते हुए उटे रहे या जनरल करिअप्पा के समर्थ नेतृत्व ने उनका आपस में समन्वय बनाया। तभी तो हर तरह की प्रतिकूलता पर भी हावी होते भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को परास्त किया। राजनीतिक नेतृत्व अगर हिम्मत न हारता, तो भारतीय सेनानी पूरे कश्मीर को मुक्त कर ही दिखा देते।
सन १९६२ के भारत-चीन युद्ध के दौरान रसद विभाग अपना काम सही तरीके से कर न पाया। उसके लिए भी राजनीतिक नेतृत्व ही जिम्मेदार है। परिणाम यह हुआ कि नेफा की सीमा पर डटे अपने सैनिकों को गर्म कपड़े, अनाज, बारुद आदि सही मात्रा में पहुंचाया ही गया नहीं जा सका।
सन १९४७-४८ के भारत-पाकिस्तान के युद्ध के दौरान भारत के सेना प्रमुख पद पर एक के बाद एक तीन अंग्रेज सेनानी आए। जनरल क्लॉड ऑचिन्लेक की जगह जनरल रॉब लॉकहार्ट और उनके पश्चात् जनरल रॉय बुचर आए। ये तीनों काफी अच्छे सेनानी थे। दूसरे विश्व युद्ध में उन्होंने अपने पराक्रम से प्रसिद्धि प्राप्त की थी। पर आखिर वे ठहरे तो अंग्रेज ही। वे भारत सरकार के अनुशासन में न रह कर, लॉर्ड लुई माउंटबैटन के अनुशासन में काम कर रहे थे। और तो और माउंटबैटन की नीति खुल्लमखुल्ला भारतविरोधी और पाकिस्तान समर्थक थी।
आखिर यह पक्षपात उस समय का उच्चतम राजनीतिक नेतृत्व भी सह न सका। जनरल रॉय बुचर को विदा किए जाने पर १५ जनवरी १९४९ को जनरल कोदंडेरा मदाप्पा करिअप्पा स्वतंत्र भारत के पहले भारतीय सेना प्रमुख बन गए। इसकी स्मृति में वह दिन को ‘सेना दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

मल्हार कृष्ण गोखले

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