पाक आतंकवाद बरास्ता करतारपुर…

सिखों के तीर्थस्थलों की मुक्त यात्रा के लिए करतारपुर मार्गिका बनाने का भारत-पाकिस्तान का साझा निर्णय स्वागतयोग्य है; लेकिन पाकिस्तान के साथ अपने कटु अनुभवों को देखते हुए भारत को सतर्क रहना होगा। करतारपुर से निकला अमन का यह रास्ता कहीं भारतीय पंजाब में अलगाववाद फैलाने की प्रदीर्घ साजिश का हिस्सा तो नहीं है? पाकिस्तान के मनसूबे आखिर क्या हैं?

पिछले 70 वर्षों से जो विवाद नहीं सुलझ सका वह अब सुलझने की राह पर है। सिख पंथ के संस्थापक गुरु नानक देवजी से जुड़े दो पवित्र स्थल अब एक दूसरे से जुड़ जाएंगे। इनमें से एक डेरा बाबा नानक भारत में है, जबकि दुसरा गुरुद्वारा करतारपुर साहिब पाकिस्तान में है। दोनों का अंतर महज साढ़े चार किमी का है। लेकिन, दोनों के बीच सीमा आड़े आती है। भारत और पाकिस्तान अब दोनों पवित्र स्थानों को जोड़ने के लिए वीजामुक्त मार्गिका बनाने पर सहमत हुए हैं। इस मार्गिका को नाम दिया गया है, ‘अमन का रास्ता।’

रावी नदी दोनों देशों की सीमा-रेखा है। रावी के पूर्वी तट पर सीमा से अंदर महज एक किमी की दूरी पर डेरा बाबा नानक है। गुरु नानक देवजी इस स्थान पर ध्यान-धारणा के लिए आया करते थे। वहीं उन्हें साक्षात्कार हुआ और उन्होंने पंथ की स्थापना का निर्णय किया। सन 1506 में पहली उदासी (याने पंथ के प्रचार के लिए सफर) यहीं से शुरू की थी। वे पूरे आर्यावर्त में ही नहीं, मक्का-मदिना भी गए थे। यह स्थान भारत के गुरुदासपुर जिले में है।

दूसरा पवित्र स्थान रावी के पश्चिमी तट पर अंतरराष्ट्रीय सीमा से कोई चार किमी दूर करतारपुर में दरबार साहिब नाम से है। उदासी से लौट आने के बाद कोई 18 साल तक वे करतारपुर में ही रहे। वहीं उनका 22 सितम्बर 1539 को देहावसान हुआ। इस तरह यह उनका समाधि-स्थल है। विभाजन के बाद यह इलाका पाकिस्तान में चला गया।

भारत का डेरा बाबा नानक स्थान वह है, जहां से सिख पंथ का आगाज हुआ और पाकिस्तान का करतारपुर साहिब वह स्थान है जहां सिख पंथ ने संगठित रूप लिया। इसलिए दोनों के महत्व और दोनों को मुक्त मार्गिका के रूप में जोड़ने पर भारत-पाकिस्तान के निर्णय पर और सकारात्मक भाष्य करने की आवश्यकता नहीं है। इस संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शब्द तो भविष्य को इंगित करते हैं, “जब जर्मनी के बर्लिन में विभाजन की दीवार ढह सकती है, तो यह मार्गिका भी दोनों देशों के जन-जन को जोड़ सकती है।” वर्ष 2019 में गुरु नानक देवजी की 550वीं जयंती मनाई जाएगी। इसलिए दोनों देश सीमा खुली करना चाहते हैं।

कार्य बड़ी तत्परता से आरंभ हुआ है। भारत के उपराष्ट्रपति वेंकय्या नायडू के हाथों गुरुदासपुर के मान गांव में मार्गिका का शिलान्यास किया गया। पाकिस्तान में भी मार्गिका के काम का करतारपुर में भूमिपूजन किया गया। इस अवसर पर पाकिस्तान के वजीरे-आज़म इमरान खान ने भी कहा कि, “दोनों देशों के सम्बंधों में मजबूती आनी चाहिए। हमेशा एक-दूसरे से लड़ने वाले जर्मनी और फ्रांस में दोस्ती और शांति के रिश्तें बना सकते हैं तो भारत-पाकिस्तान के बीच ऐसा क्यों नहीं हो सकता?”

हालांकि, पाकिस्तान का पूर्व-इतिहास देखते हुए इस समारोह को लेकर भारत ने बहुत सावधानी बरती है। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज समेत अनेक वरिष्ठों ने निमंत्रण स्वीकार नहीं किया। पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी नहीं गये। उनका वाजिब कहना था कि, “जब तक भारत में आतंकवाद को पाकिस्तान पनाह दे रहा है, मेरे देश के जवान शहीद हो रहे हैं, तब तक मैं पाकिस्तान का निमंत्रण स्वीकार नहीं कर सकता। नानक देवजी के समाधि-स्थल के दर्शन की इच्छा जरूर है, लेकिन दोनों देशों के सम्बंधों में सुधार आने पर ही मैं वहां जाऊंगा।” लिहाजा, पंजाब के मंत्री नवजोतसिंह सिद्धू जरूर वहां अरदास कर आए।

विभाजन के बाद से ही इस तरह के रास्ते की लगातार मांग होती रही है। यहां तक की सीमा पर लगी कंटीले तारों की बाड़ तक जाने की सिखों को अनुमति मिल गई। वहां टावर बनाकर कैमरे से करतार साहिब का दर्शन कराया जाता रहा है। 1994 से सिख समुदाय का दबाव इतना बढ़ गया कि जिसे नकारना भारत-पाकिस्तान दोनों के लिए संभव नहीं था। भारत-पाकिस्तान के बीच दुश्मनी की अपेक्षा सिख समुदाय की इच्छा अधिक बलवती साबित हुई। वैसे पाकिस्तान सिखों को 1980 के दशक से ही पुचकारता रहा है। मोदी सरकार को भी इस निर्णय से भारत व विश्वभर में फैले सिख समुदाय की सहानुभूति प्राप्त होगी। जाहिर है कि, सिखों को खुश कर अपनी राजनीति सहेजने का काम भारत और पाकिस्तान दोनों देशों की सरकारें कर रही हैं। अपना-अपना लक्ष्य प्राप्त करने का यह मसला है।

एक और बात गौर करने लायक है। पाकिस्तान में हाल में सत्ता परिवर्तन हुआ है। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था इस समय जर्जर है। पाकिस्तान विदेशी कर्ज चुका नहीं पा रहा है। अमेरिका और सउदी अरब से सहायता का झरना सूखता नजर आ रहा है। पाकिस्तान का कभी भी दीवाला पिट सकता है। इस स्थिति में पाकिस्तान को यदि वैश्विक सहायता प्राप्त करनी हो तो उसे अन्य देशों से अपने रिश्तों को सुधारना होगा और इसकी शुरुआत उसे भारत से ही करनी होगी। इसी कारण भारत को दक्षेस सम्मेलन का निमंत्रण देने, करतारपुर साहिब तक मार्गिका बनाने, कश्मीर समेत हर समस्या हल करना संभव होने जैसे बयान पाकिस्तान के वजीरे-आज़म इमरान खान लगातार दे रहे हैं। मार्गिका बनाकर इमरान खान चर्चा के लिए एक हाथ आगे बढ़ा रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर सीमा पर पाकिस्तान युद्ध विराम का उल्लंघन कर लगातार गोलाबारी करता रहा है। आतंकवादियों को पनाह और प्रोत्साहन देने जैसी कारगुजारियों से भी वह बाज नहीं आ रहा है। पाकिस्तान में सत्ता परिवर्तन होकर इमरान खान सरकार आई है, लेकिन इमरान की बात कहां तक चलती है यह यक्ष प्रश्न ही है। हम सब जानते हैं कि पाकिस्तान में आतंकवाद, धर्मांधता और फौज के बिना पाकिस्तान का पत्ता भी नहीं हिलता। पाकिस्तान की इस सच्चाई को सारी दुनिया जानती है। इसलिए फ्रांस व जर्मनी में दोस्ती हो सकती है तो भारत-पाकिस्तान में क्यों नहीं हो सकती, यह इमरान खान का प्रश्न बचकाना ही कहना होगा। इसमें सबसे बड़ा रोड़ा है उत्तर पाकिस्तान में पनपा आतंकवाद। एक ओर भारत और पाकिस्तान के बीच सम्बंधों को सुधारने की बात करना और दूसरी ओर भारत में आतंकवादियों की घुसपैठ करवाकर हमले करवाना पाकिस्तान की रणनीति रही है। भारत में वांछित पाकिस्तानी आतंकवादियों से भारत के खिलाफ निरंतर विष वमन करवाने जैसी बातें निरंतर हो रही हैं। इन सब बातों पर सोचें तो प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या वाकई पाकिस्तान भारत के साथ दोस्ताना रिश्तें चाहता है? यह प्रश्न भारत के ही नहीं, पूरी दुनिया के समक्ष भी है।

पंजाब राज्य और धर्म की राजनीति पर विचार करते समय बेहद सतर्कता जरूरी है। स्वतंत्र खालिस्तान की मांग के कारण इस राज्य में अस्सी के दशक में प्रचंड बेचैनी थी। इस बेचैनी का रूपांतर प्रचंड हिंसा में हुआ। भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और सेना प्रमुख अरुण कुमार वैद्य की जान इसी आतंकवाद ने ली। खालिस्तान को पाकिस्तान का पूरा समर्थन था। उन दिनों धार्मिक स्थलों की यात्रा पर जाने वाले सिख यात्रियों का स्वागत करने तत्कालीन फौजी शासक जिया उल हक कई बार स्वयं जाया करते थे। पाकिस्तान की गुप्तचर सेवा आईएसआई सिख यात्रियों को खालिस्तान के लिए उकसाने का काम किया करती थी। यही क्यों, पंजाब के आतंकवादियों और खालिस्तान के दुनियाभर के समर्थकों के बीच मेल-मुलाकातें भी इन यात्राओं के दरमियान कराई जाती थीं।

फिलहाल पंजाब की स्थिति कश्मीर घाटी जैसी अशांत नहीं है; फिर भी खालिस्तान अलगाववादी तत्वों को प्राप्त होने वाले समर्थन में वृद्धि अवश्य ही हुई है। भारतीय सिख देशभक्त हैं। लेकिन कुछ गुमराह खालिस्तानियों के संगठन अमेरिका, कनाडा और यूरोप में पनप रहे हैं। वे इस कोशिश में हैं कि खालिस्तान के लिए जनमत संग्रह कराने के लिए विश्व समुदाय भारत पर दबाव डाले। इसके पूर्व जर्मनी में दो खालिस्तानियों को गिरफ्तार किया गया। उनसे पूछताछ में पता चला कि यूरोप में खालिस्तानी संगठनों की गतिविधियां बढ़ रही हैं।

पंजाब में पिछले 25 वर्षों में परिस्थितियों में भले बदलाव आया हो, लेकिन वहां अब इस तरह का कुछ भी हो सकता है। ऐसा इसलिए कि पिछले कुछ समय से पंजाब में खालिस्तानी गुट नए सिरे से सक्रिय होते दिखाई दे रहे हैं। अमृतसर जिले के राजसांसी में निरंकारी भवन पर हुए ग्रेनेड़ हमले से पंजाब में खालिस्तानी आतंकवाद के सिर उठाने और परदे के पीछे बहुत कुछ पकने का नए सिरे से आगाज हो रहा है। आपरेशन ब्लू स्टार के स्मृति दिवस पर भारत विरोध नारे लगाने, गुरुद्वारा के बाहर खालिस्तानी नेताओं के फोटो बिक्री के लिए रखने, बयानों में खालिस्तानवाद और खालिस्तानी नेताओं को महिमा मंड़ित करने आदि गतिविधियों के जरिए खालिस्तान के बारे में पंजाब के युवकों को उचकाकर खालिस्तानी आतंकवाद फिर से शुरू करने का प्रयास किया जा रहा है।

इस घटनाक्रम को देखें तो लगता है कि नब्बे के दशक में पंजाब में जो माहौल था वैसा माहौल पैदा करने का प्रयास क्या देश विघातक शक्तियां कर रही हैं? इन घटनाओं से तो ऐसा लगता है। 1978 में निरंकारी समाज पर हुए हमले के बाद जातीय संघर्ष पंजाब में उफन उठा था। इस तरह का संघर्ष फिर से पैदा करने का पाकिस्तान की ओर से प्रयास हो सकता है। इसीलिए खालिस्तानी आंदोलन को पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसी आईएसआई हर तरह की मदद पहुंचाती है।

कुछ दिनों पूर्व कुख्यात पाकिस्तानी आतंकवादी जाकिर मूसा अमृतसर में घूमते हुए दिखाई दिया था। जैश-ए-मुहम्मद के भी कुछ आतंकवादी पंजाब में घुस आने की बात उजागर हुई है। इस पृष्ठभूमि में पाकिस्तान जैसा कुटिल और धर्मांध राष्ट्र भारतीयों के प्रति बिना किसी साजिश के सिखों के लिए अपनी सीमा खोल देगा इस पर विश्वास करना बहुत मुश्किल है। खालिस्तानी आंदोलन को पुनर्जीवित करने का पाकिस्तानी षड़यंत्र यदि कामयाब हो गया तो पंजाब को और देश को उसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी। अतः पंजाब में की जा रही छिपी गतिविधियों पर जिस तरह नजर रखना जरूरी है, उसी तरह पाकिस्तान जैसे दुश्मन देश की बहानेबाजी को राजनयिक दृष्टि से देखना जरूरी है।

भारत ने बहुत बड़ा बलिदान देकर और परिश्रमपूर्वक खालिस्तानवादियों का खात्मा किया है। अब यदि पाकिस्तान व अन्य देश विघातक शक्तियां खालिस्तान के जरिए भारत की सुरक्षा और एकता के लिए नई चुनौती उपस्थित करती हैं तो भारत को अपने राजनयिक बल पर इसका सामना करने की तैयारी रखनी चाहिए। पाकिस्तान की भारत विरोधी कारगुजारियों और सिख यात्रियों को धार्मिक स्थलों की यात्रा करने देना ये दोनों बातें पाकिस्तान के सद्हेतु से विसंगत हैं। इसलिए करतारपुर मार्गिका के फैसले का स्वागत करते हुए भी यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि भारत-पाकिस्तान के बीच रिश्तों में विेशेष सुधार की गुंजाइश कम ही है।

याद रखना चाहिए कि ब्रिटेन व कनाड़ा में खालिस्तान की मांग के समर्थन में आवाजें उठ रही हैं। उसे हवा देने के लिए ही पाकिस्तान ने करतारपुर मार्गिका का प्यादा आगे सरकाया है। पाकिस्तान  में करतारपुर मार्गिका के शिलान्यास के  समय पाकिस्तान के सेना प्रमुख कमर जावेद बावजा के साथ खालिस्तान समर्थक गोपाल चावला की मौजूदगी ही पाकिस्तान के भारत विरोधी रुख को स्पष्ट कर रही है। इससे पाकिस्तानी आतंकवादियों से खालिस्तानी आतंकवादियों को किस तरह सहायता मिलती है यह छिपा नहीं रहा है।

स्मरण रहे कि आईएसआई के प्रमुख लेफ्टि. जनरल हमीद गुल ने तत्कालीन वजीरे-आज़म बेनजीर भुट्टो से कहा था कि भारतीय पंजाब के अशांत होने का मतलब बिना किसी खर्च के अपनी सेना की दो डिविजन (लगभग तीस हजार सैनिक) बढ़ने जैसा है। इस पृष्ठभूमि में करतारपुर मार्गिका की ओर भावनात्मक दृष्टि से न देखते हुए पंजाब के बारे में पाकिस्तान के मनसूबों को पहचानना आवश्यक है। विदेश नीति पर ध्यान देने का अर्थ है, विदेश नीति का उपयोग कर स्वदेश में राजनीति की छवि सुधारना और राष्ट्र की सुरक्षा को प्राथमिकता देना। इसलिए भारत की विदेश नीति में इस नए निर्णय को उस दृष्टि से ही देखना होगा। पंजाब में स्वतंत्र खालिस्तान के प्रति बेचैनी और पाकिस्तान का उसे हवा देना इस दृष्टि से भारत-पाकिस्तान रिश्तों को देखना होगा। दोस्ती के इस कदम की ओर भावुक राजनीति की नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। अब तक भारत से पाकिस्तान की ओर बढ़ाए गए हाथ और षड़यंत्रकारी पाकिस्तान से बदले में मिली हिंसा की सौगात का हमें अनुभव है ही।

पाकिस्तान के करतारपुर साहिब की ओर सिखों को बिना वीजा जाने के लिए मार्गिका का निर्माण करने की दोनों देशों ने घोषणा की है। इस घोषणा का विचार केवल राजनीतिक दृष्टि से ही नहीं किया जा सकता। सिखों के हितों एवं उनकी धार्मिक भावनाओं को सहलाने का यह निर्णय होने के बावजूद इस निर्णय से भारत को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों बातों और परिणामों की तैयारी रखनी होगी। इससे भारत और पाकिस्तान के कौन-कौन से लक्ष्य सधते हैं इसका विचार करना भी जरूरी है। भारत की विेदेश नीति में तद्नुरूप समयानुकूल बदलाव करना जरूरी होगा।

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