कहीं पर्यावरण अभियान को ट्रम्प नकारात्मक दिशा तो नहीं देंगे?

विज्ञान से मानव की प्रगति होती है? इस प्रश्न का उत्तर खोजें तो पता चलेगा कि ‘विज्ञान की गति के साथ मानव मन की प्रगति नहीं हो रही है और यही सब से बड़ा रोड़ा है। ’ स्थिति क्या वाकई वैसी ही है? उसमें सुधार हुआ है या अधोगति हुई है? यह प्रश्न हम स्वयं से पूछें तो जो उत्तर आएगा वही उत्तर दुनिया के बारे में भी होगा। क्योंकि, मनुष्य की भौतिक सुखसुविधाओं की जितनी प्रगति हो रही है, उतनी ही प्रदूषण की समस्या और बढ़ रही है। विकास के नाम पर पर्यावरण में मानवी हस्तक्षेप बढ़ने से जैविक विविधता के विनाश, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक तापमान में वृद्धि जैसी विश्वव्यापी समस्याएं उत्पन्न हुई हैं।

वैश्विक तापमान में वृद्धि होने से धरती के मौसम पर हुए विपरीत परिणामों को आज भी हम अनुभव कर रहे हैं। इन परिणामों का प्रभाव पूरे विश्व पर हो रहा है। वहां गरीब-अमीर राष्ट्र जैसा भेदभाव नहीं होता। सभी इस पर्यावरणीय संकट में पीसे जाने हैं। फलस्वरूप, विकसित एवं विकासशील दोनों तरह के राष्ट्र सजगता बरत रहे हैं। मौसम परिवर्तन के संकट पर ध्यान आकर्षित करने के लिए विभिन्न वैश्विक सम्मेलनों का आयोजन किया जा रहा है। इससे पर्यावरण का संकट किसी एक देश तक सीमित नहीं रहा, उसे वैश्विकता प्राप्त हुई है।

इस दिशा में ठोस कदम है पेरिस सम्मेलन। इस सम्मेलन में पूरे विश्व ने कार्बन उत्सर्जन पर नियंत्रण के लिए एक वैश्विक करार को स्वीकृती दी। वैश्विक पर्यावरण प्रदूषित करने वाले और वैश्विक तापमान में वृद्धि करने वाले कार्बन उत्सर्जन में चीन और अमेरिका सब से आगे हैं। वे भी इस करार के पक्ष हैं। दुनियाभर के अन्य ११३ देशों ने भी इस करार पर दस्तखत किए हैं। इनमें भारत, यूरोप के सभी देश, आस्ट्रेलिया, कनाडा, ब्राजील जैसे अन्य प्रमुख देश शामिल हैं।

जलवायु परिवर्तन को लेकर इसके पूर्व इतना शीघ्र और इतना अच्छा प्रतिसाद पेरिस के अलावा अन्य किसी वैश्विक करार को नहीं मिला। लेकिन ऐसा नहीं है कि पेरिस करार जल्द ही कोई क्रांति ला देगा या मौसम परिवर्तन की समस्या जादुई छड़ी की तरह खत्म हो जाएगी। लिहाजा, महत्वपूर्ण बात यह है कि पेरिस करार के बहाने पूरी दुनिया ने पर्यावरण संवारने की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ाया है। पेरिस करार पर अगली कार्रवाई के रूप में अब फैसला किया गया है कि सन २०५० तक वैश्विक तापमान में २ डिग्री सेल्शियस की कमी लाई जाएगी। निश्चय को पूरा करने की दृष्टि से सभी देशों ने समयबद्ध कार्यक्रम तय करने का भी प्रयास किया है।

यह सब तो ठीक, परंतु दिखाई यह देता है कि ये सारी बातें भाषणों में एवं कागजों पर ही धरी रह गई हैं। व्यवहार में वैसा बदलाव प्रत्यक्ष में दिखाई नहीं देता। फिलहाल तो सभी राष्ट्र एक दूसरे का मुंह ताकने में लगे हुए हैं। हरेक इस बात की प्रतीक्षा में है कि दूसरा किस तरह के कदम उठाता है। इसी कारण पर्यावरणीय करार के बावजूद कोई प्रगति नहीं हो पा रही है। फलस्वरूप, पर्यावरण संरक्षण केवल मुंहजबानी जमाखर्च बन रहा है, यह सच है। फिर भी, पेरिस समझौता विफल हो गया यह कहना मुश्किल है, न ऐसी स्थितियां दिख रही हैं कि कह सके कि वह सफल हो गया। धरती से भारी कार्बन उत्सर्जन के कारण पृथ्वी की ओजोन परत में छेद हो गया है। ओजोन के इस सुरक्षा कवच में छेद हो जाने से सूर्य की दाहक किरणें सीधे पृथ्वी पर आ रही हैं।

इससे धरती का तापमान लगातार बढ़ रहा है। यह वैज्ञानिक वास्तविकता है। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के अनुसार यह केवल धुप्पल है। ट्रम्प का कहना है कि पेरिस सम्मेलन कोरी बकवास है और उसके फैसलों को कचरे की टोकरी में फेंक देना चाहिए। चुनाव प्रचार के दौरान वे साफ कह चुके हैं कि इन बातों को वे नकार देंगे। अब वे महाशक्ति अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर आसीन हो चुके हैं। इस स्थिति में ट्रम्प पर्यावरण के प्रति कौनसी दिशा अपनाते हैं इसका अंदाजा नहीं है। पर्यावरण के बारे में उनकी भूमिका क्या होगी, इस पर उनकी कोई प्रतिक्रिया अभी नहीं आई है। पर्यावरण की रक्षा के लिए वे क्या करना चाहेंगे, यह भी उन्होंने स्पष्ट नहीं किया है।

इस स्थिति में अनेक राष्ट्रों को आशंका है कि वैश्विक तापमान को नियंत्रित करने के लिए आरंभ हुआ यह अभियान क्या वाकई आगे बढ़ेगा? ट्रम्प ने अपने चुनाव प्रचार के दौरान पर्यावरण के संदर्भ में विपरीत राय प्रकट कर विश्वभर के पर्यावरणविदों एवं पक्षधरों की नींद हराम कर दी थी। वे ही ट्रम्प अब अमेरिका के राष्ट्रपति बन गए हैं। इससे विशेषज्ञों को लगता है कि अमेरिका यदि पेरिस करार से हट गया तो पेरिस करार एवं पर्यावरण संवर्धन का वैश्विक अभियान दोनों संकट में पड़ जाएंगे। पर्यावरण के बारे में जो सकारात्मक माहौल पैदा हो गया था, उसमें ट्रम्प के राष्ट्रपति बन जाने से अब अडंगा लग सकता है। पर्यावरण अनुकूल नीतियों को पहले ही अमेरिका के कई राज्यों, संगठनों का विरोध है।

अमेरिका के २८ राज्य और सैंकड़ों कम्पनियां इस पर्यावरण अनुकूल नीतियों के विरोध में हैं। फलस्वरूप, वैश्विक तापमान में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन को न मानने वाले ट्रम्प इस मुद्दे को ही किनारे कर सकते हैं। अतः अमेरिका यदि पेरिस करार से हट जाए तो क्या होगा? पूरी दुनिया में बहस चल रही है। पर्यावरण के मामले में पूरे विश्व में सहमति का जो माहौल बना था वह अब धुंधला पड़ जाएगा। अभियान के लिए प्रति वर्ष १०० अरब डॉलर के कोष की जरूरत है। यदि अमेरिका करार से हट गया तो अन्य विकसित देश क्या इस बोझ को उठाएंगे? अमेरिका यदि कार्बन उत्सर्जन करता है तो अन्य देश करार से बंधे क्यों रहेंगे?

ट्रम्प ने चुनाव प्रचार के दौरान पर्यावरण के बारे में जो राय प्रकट की है, उस तरह का अतिवादी निर्णय वे यदि वाकई कर लें तो आगे क्या होगा, यह बुनियादी प्रश्न है। लेकिन इतना जरूर है कि वैश्विक मौसम परिवर्तन के मुद्दे पर जो सकारात्मक माहौल पैदा हुआ है उसे मिट्टी में मिला देने का अभिशाप ट्रम्प के माथे पर होगा। पेरिस करार तो टूट ही जाएगा, लेकिन पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दों पर चर्चा करने के बारे में विश्व का दृष्टिकोण भी बदल जाएगा। वैश्विक पर्यावरण को लेकर यही सब से बड़ा खतरा है।

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