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भारतीय पर्यटन की जान : वन पर्यटन

भारतीय पर्यटन की जान : वन पर्यटन

by मकरंद जोशी
in पर्यटन, प्रकाश - शक्ति दीपावली विशेषांक अक्टूबर २०१७, सामाजिक
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सम्पूर्ण भारत के वन्य-जीवन का आनंद उठाने के लिए तो शायद कुछेक साल भी कम पड़ेंगे। लेकिन हमारे नियमित पर्यटन स्थलों के कार्यक्रम के साथ यदि हम वन-पर्यटन का कार्यक्रम भी जोड़ दें तो भारत के कुछ महत्वपूर्ण अभयारण्यों का दर्शन करना और कुछ अनोखे जीव-जंतुओं को देखना शायद मुश्किल न होगा।
हजारो वर्षों की परंपरा और गौरवशाली इतिहास के साथ-साथ ही, हमारे देश को समृद्धशील भूगोल और सतरंगी प्राकृतिक संपदा का वरदान भी मिला है। जहां एक ओर विदेशी पर्यटकों के लिए हमारा भारत, ताजमहल और अजंता-एलोरा का देश है, आलिशान राजमहलों और ऐतिहासिक किलों का देश है, वहीं दूसरी ओर यह बाघों, हाथियों और गैंड़ों के देश के रूप में भी जाना जाता है। भारत विश्व का एकमात्र देश है जहां एक ही यात्रा में आप ऐतिहासिक, धार्मिक स्थलों को भी देख सकते हैं और प्राकृतिक सौंदर्य को भी। एक साथ आप हिमालय की सर्द पहाड़ियों में वन्य-जीवन को निहार भी सकते हैं, और राजस्थान के रेगिस्तान का आनंद भी उठा सकते हैं। एक ओर जहां सुंदरबन के सदाबहार जंगल भी हैं, वहीं पूर्वोत्तर भारत के वर्षा वन भी हैं। कहना गलत न होगा कि विश्व के हर प्रकार के वन भारत में हैं। इसीलिए, भारतीय पर्यटन उद्योग में वन-पर्यटन का एक खास स्थान है। भारतीय वन्यजीवन का आनंद उठाने के लिए सैंकड़ों पर्यटक दुनिया भर से हर साल भारत आते हैं। आइये, भारत के विभिन्न प्रांतों में स्थित इसी वन्य-जीवन का, पर्यटन की दृष्टि से परिचय प्राप्त करें।
शुरुआत करते हैं महाराष्ट्र से। एक ओर सह्याद्री की पर्वत श्रृंखलाएं, तो दूसरी ओर अरब सागर का लंबा समुद्री किनारा। इसी वजह से, महाराष्ट्र जैव-विविधताओं से भरा हुआ है। सह्याद्री यानि पश्चिम घाट में स्थानीय वनस्पतियां, पेड़-पौधे, कीटक, प्राणी और पक्षी बहुतायत में हैं। मानवी अतिक्रमण के कारण इनके अस्तित्त्व पर थोड़ा संकट अवश्य आया है। इसके बावजूद महाराष्ट्र का वन-जीवन विविधतापूर्ण और संपन्न है। महाराष्ट्र के वन-पर्यटन के बारे में सोचें तो सबसे पहले नाम आता है ताडोबा अंधारी बाघ परियोजना वन का। विदर्भ के चंद्रपुर जिले में अंधारी नदी के किनारे यह वन फैला हुआ है। १९९५ में ताडोबा राष्ट्रीय उद्यान और अंधारी वन्यजीव अभयारण्य को मिलाकर उसे ताडोबा अंधारी बाघ परियोजना घोषित किया गया। शुष्क वन के रूप में जाने जानेवाले इस वन में, वन विभाग द्वारा खुली जिप्सी गाड़ियां उपलब्ध कराई गई हैं। वन के बीचोबीच एक विशाल तालाब है। इसके अलावा भी इस वन में कई जलाशय हैं। लेकिन गर्मियों में ये सभी जलाशय सूख जाते हैं। इसलिए, शेष जलाशयों पर आम तौर पर बाघों को देखा जा सकता है। बाघों के साथ-साथ ही कई बार फुर्तीले तेंदुए के दर्शन भी हो जाते हैं। इसके अलावा यहां जंगली कुत्ते, लोमड़ी जैसे मांसाहारी प्राणी भी हैं। चीतल, सांबर, बंदर, भालू, नीलगाय जैसे जानवरों के साथ-साथ गिरगिट, जंगली बिल्ली, उड़ती गिलहरी जैसे दुर्लभ जानवर भी हैं। फनवाले सांप, गरुड़, कॉटेज पक्षी, उल्लू आदि अनेकों प्रकार के पक्षी यहां देखने को मिलते हैं। इसलिए ताडोबा अभयारण्य में आना पर्यटकों को भरपूर आनंद देता है।
विदर्भ में स्थित एक और देखने लायक जंगल है, भंडारा जिले का नागझीरा अभयारण्य। ऐतिहासिक रूप से यहां गोंड जनजाति के लोगों का राज रहा है। १९७० में इस जंगल को संरक्षित अभयारण्य का दर्जा दिया गया। यहां भी खुली जिप्सी गाड़ियों से वनोद्यान की सफारी की जा सकती है। नागझीरा अभयारण्य का क्षेत्रफल लगभग १५२ वर्ग की.मी. है। ताडोबा और कान्हा राष्ट्रीय उद्यानों के ठीक मध्य में स्थित होने के कारण, भौगोलिक रूप से उसका महत्व अत्यधिक है। उसे इन दोनों राष्ट्रीय उद्यानों को जोड़नेवाले कॉरिडोर के रूप में जाना जाता है। नागपुर से केवल तीन घंटे की दूरी पर स्थित यह अभयारण्य लगभग ३४ प्रकार के स्तनधारी प्राणियों का भरण-पोषण करता है। इसके अलावा यहां १५० से अधिक प्रजातियों के पक्षी पाए जाते हैं।
किन्तु महाराष्ट्र का वन्य जीवन केवल बाघों तक ही सीमित नहीं है। विदर्भ के जंगलों की ही भांति सह्याद्री अर्थात पश्चिमी घाटों का परिसर भी जैव विविधता से भरा हुआ है। सातारा के पास कास पठार इसका उत्तम उदाहरण है। लगभग महाबलेश्वर के समान ऊंचाईवाले (लगभग साढ़े तीन से चार हजार फुट) इस पठार पर जून से अक्टूबर में जो पुष्प दिखाई देते हैं उन्हें देख कर व्यक्ति दंग रह जाता है। यहां के भौगोलिक परिदृश्य के चलते यहां बहुत ऊंचे पेड़ों का टिका रहना लगभग असंभव है। वर्षा ऋतु शुरू होते ही यहां के मैदानों पर हरे गलीचे नजर आने लगते हैं। उस पर नीले, पीले, लाल, गुलाबी, सफेद फूलों की कशीदाकारी नजर आने लगती है। यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल की सूची में कास पठार को शामिल कर लिया गया है। इस परिसर में सेरोपेजिया, साइट्रस कोन, ड्रोसेरा जैसे लगभग दो सौ से ज्यादा प्रकार के फूल केवल तीन महीने की अवधि में हमें देखने को मिलते हैं। केवल महाराष्ट्र ही नहीं बल्कि देश भर के सैलानियों को आकर्षित करनेवाला एक और स्थान है भीमाशंकर अभयारण्य। पुणे से केवल ३ घंटे की दूरी पर स्थित भीमाशंकर बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। इसलिए यहां भक्तों का हमेशा तांता लगा रहता है। इस प्राचीन मंदिर के आसपास घना जंगल है। यहां महाराष्ट्र की राज्य प्राणी जायंट स्क्वीरल (बड़ी गिलहरी) देखने को मिलती है। तेंदुए से लेकर चीतल और सांबर तक हर प्रकार के जानवर यहां पाए जाते हैं। किन्तु पहाड़ी इलाका और घना जंगल होने के कारण प्राणियों का दिखना थोड़ा मुश्किल होता है। १३१ वर्ग की.मी. के क्षेत्र में फैला हुआ यह अभयारण्य आज भी मानवी अतिक्रमण से अछूता रहा है। धार्मिक महत्व का स्थल होने के कारण, अपने आप ही ये परिसर संरक्षित रह गया है।
महाराष्ट्र से जुड़ा हुआ एक छोटा-सा राज्य है गोवा। दुनिया भर के पर्यटकों को यह अपनी ओर आकर्षित करता है। यहां के लंबे-लंबे समुद्री किनारे बहुत मोहक हैं। गोवा का नाम लेते ही हमारी आंखों के सामने दृश्य आता है- ऊंची उठती सागर की लहरें और हाथों में जाम। किन्तु इस राज्य को वन संपदा और वन्य जीवन का भरपूर वरदान भी मिला हुआ है। गोवा राज्य महाराष्ट्र और कर्नाटक के मध्य में स्थित है। गोवा के सभी जंगलों को भरपूर जैव-विविधता मिली हुई है। गोवा राज्य का लगभग ५९% इलाका वनों से ढंका हुआ है। गोवा में भी सागर किनारे बसे ऊंचे पेड़ों के जंगलों के साथ ही यहां सदाबहार जंगल भी बहुतायत में हैं। हर प्रकार के जंगल यहां देखने को मिलते हैं। ऐतिहासिक पुराने मंदिरों, गिरिजाघरों और सागर किनारों से हटकर, अगर एक अलग तरह का गोवा देखना हो तो हरेभरे जंगलों की ओर निकल जाना बेहतर है। गोवा का असली वाइल्ड चेहरा हम वहां देख सकते हैं। गोवा में कुल छह अभयारण्य और एक राष्ट्रीय उद्यान है। आम तौर पर जंगल सफारी का नाम लेते ही लोगों के सामने बाघ, चीते, भालू और हाथी जैसे बड़े प्राणी ही आते हैं। लेकिन इन प्राणियों के अलावा भी एक बहुत बड़ी दुनिया है जिसमें छोटे-छोटे जीव जंतु और रंग-बिरंगे पक्षी भी होते हैं। इस दुनिया में घूमने के लिए और इसका पूरा आनंद उठाने के लिए एक प्रशिक्षित गाइड या नेचरलिस्ट का साथ होना बहुत आवश्यक है। गोवा की पूर्वी सीमा जहां कर्नाटक से मिलती है, वहां भगवान् महावीर अभयारण्य है। इस जंगल को १९६९ में अभयारण्य का दर्जा मिला। कुल २०४ वर्ग की.मी. क्षेत्रफल में यह अभयारण्य फैला हुआ है। इसमें से १०७ वर्ग की.मी. के भाग को राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा मिला हुआ है। घनी और घनघोर झाड़ियों से भरे इस जंगल में चीतल, सांबर, तेंदुआ जैसे प्राणी तो हैं ही, साथ में स्लेंडर लोरिस और फ्लाइंग स्क्वीरल जैसे छोटे प्राणी भी हैं। मुश्किल से २५ से.मी. की ऊंचाई वाला यह शर्मिला प्राणी स्लेंडर लोरिस, किसी कार्टून चरित्र की तरह दिखता है। इस अरण्य में कुल सवा दो सौ प्रकार के पक्षी पाए जाते हैं। इनमें ट्री-पाई, ओरियोल, ड्रोंगो, बेबलर, बुलबुल, वुडपेकर जैसे नियमित मित्र तो हैं ही, साथ ही ग्रेट हार्नबिल, ओरिएंटल ड्वार्फ किंगफिशर, मालाबार ट्रोगन, वर्नल हैंगिंग पैरेट, लिटिल स्पाईडर हंटर जैसे पक्षी भी हैं जो पक्षी प्रेमियों को बहुत पसंद आते हैं। महावीर अभयारण्य के घने जंगल में पैदल भटकते हुए आप पक्षी निरीक्षण का आनंद उठा सकते हैं। ऊपर पेड़ों पर बैठे पक्षियों का निरीक्षण करने के साथ ही जमीन पर देखना न भूलें। इस घने जंगल में आपको रेंगनेवाले प्राणियों में से सांप, नाग, ब्रोंज-बैक ट्री स्नेक भी नज़र आएंगे। साथ ही रसेल्स वाइपर, मनियर, मालाबार पिट वाइपर जैसे विषैले सर्प भी हैं। इनमें हम्पनोज वाइपर तो अपने परिसर के रंग में रंगा होने के कारण, अचानक देखने पर दिखना भी मुश्किल होता है। अपने बादामी, गुलाबी रंग के कारण यह सर्प देखते ही बनता है। गोवा के जंगलों में निवासी एक और आकर्षक सर्प है ओर्नेट फ्लाइंग स्नेक। कई उड़ने वाले प्राणियों जैसे फ्लाइंग फ्रॉग, फ्लाइंग स्क्वीरल के साथ-साथ ही ओर्नेट फ्लाइंग स्नेक को देखना अपने-आप में दिलचस्प होता है। हांलाकि ये उड़ नहीं सकता पर, एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर हवा में तैरते हुए पहुंचता है। उसके शरीर पर रंग-बिरंगे आकर्षक डिजाइन बने होते हैं। खास तौर से, उसके सिंदूरी रंग के डॉट्स को देखकर, किसी मूंगा जड़ित आभूषण की याद हो आती है।
इन तैरते हुए सर्पों के साथ-साथ गोवा में उड़नेवाले गिरगिट भी हैं। उसके लिए हमें उत्तर गोवा के पोंडा जिले में स्थित बोंडला अभयारण्य में जाना पड़ेगा। यह गोवा का सबसे छोटा अभयारण्य है। यहीं गोवा का एकमात्र प्राणी संग्रहालय भी है। इसीलिए, परिवार के साथ सप्ताहांत मनानेवाले पर्यटकों की संख्या यहां बहुतायत में रहती है। इसी अभयारण्य में ड्रेको यानि उड़नेवाला गिरगिट सहज ही देखने को मिल जाता है। इसके पैरों की उंगलियों की झिल्ली एक दूसरे से जुड़ी होती हैं, जिसकी मदद से यह गिरगिट एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर या फिर पेड़ के ऊपर से जमीन पर आराम से हवा में तैरते हुए जा सकता है। बोंडला के जंगल में आप जायंट स्क्वीरल भी आराम से देख सकते हैं। इन दो जंगलों के अलावा गोवा का नेत्रावली जंगल और कोटीगांव अभयारण्य भी अपनी समृद्ध वन-संपदा के लिए प्रसिद्ध हैं।
महाराष्ट्र से सटे हुए गुजरात राज्य में भी भरपूर जंगल हैं। सबसे महत्वपूर्ण और गर्व की बात यह है कि अब केवल गुजरात के जंगल ही ऐसे हैं जहां एशियाई सिंह पाए जाते हैं। भारत की राजमुद्रा पर विराजमान होने वाला सिंह अगर देखना हो तो आपको गुजरात राज्य में, जूनागढ़ जिले में स्थित गीर के राष्ट्रीय उद्यान में आना ही पड़ेगा। कुल १४२१ वर्ग की.मि. में फैले हुए इस वनक्षेत्र को संरक्षित किया गया है। इसका कुछ भाग राष्ट्रीय उद्यान के अंतर्गत है, और कुछ भाग अभयारण्य है। गीर राष्ट्रीय उद्यान जूनागढ़ से ६० कि.मी. और वेरावल से ४५ कि.मी. पर स्थित है। राजकोट हवाई अड्डा यहां से तीन घंटे की दूरी पर है। इस अरण्य में लगभग ४०० प्रकार की वनस्पतियां हैं जिसमें साग, बोर, आम, जामुन, अकेशिया, पलाश, तेंदू और ढाक शामिल हैं। अपने पूरे परिवार के साथ घूमने वाले एशियाई सिंह इस जंगल का प्रमुख आकर्षण हैं। इसके साथ ही तेंदुआ, जंगली बिल्ली, लोमड़ी, नेवला, छोटी बिल्लियां, भालू, चीतल, नीलगाय, सांबर, चौसिंगा, चिंकारा, जंगली सूअर जैसे जानवर भी यहां पाए जाते हैं। बुश क्वेल से लेकर ब्राउन फिश आउल तक, और पिग्मी वुडपेकर से लेकर चेंजेबल हॉक ईगल तक लगभग तीन सौ प्रजातियों के पक्षी भी यहां पाए जाते हैं। इस जंगल के पास ही देवलिया नामक स्थान पर गीर इंटरप्रिटेशन जोन नामक विभाग तैयार किया गया है। मजबूत बाड़ से संरक्षित इस परिसर में खुली जिप्सी से घूमते समय एशियाई सिंह के दर्शन बरबस ही हो जाते हैं। गुजरात का एक इलाका रेगिस्तान की तरह ही रेतीला और शुष्क है। लेकिन इस भाग में भी अनोखा वन्य जीवन देखने को मिलता है। गुजरात के कच्छ जिले में स्थित यह इलाका कच्छ के रण के नाम से प्रसिद्ध है। यह रण, विश्वप्रसिद्ध थार के रेगिस्तान का ही एक भाग है। यहां वाइल्ड एस यानि रेगिस्तानी गधे या खच्चर के अलावा गुलाबी फ्लेमिंगो जैसे अनेक वन्य जीव देखने को मिलते हैं। इस रण के ग्रेट और लिटिल नामक दो भाग हैं। लिटिल रण ऑफ कच्छ में भारत का सबसे बड़ा वन्य-जीव अभयारण्य (लगभग ४९०० वर्ग की.मी.) यानि इंडियन वाइल्ड लाइफ सेंचुरी है। १९७२ में अभयारण्य का दर्जा और संरक्षण मिलने के बाद, दुनिया में दुर्लभ माने जाने वाली कई प्रजातियां यहां संरक्षित की गई हैं। इस परिसर में पाए जानेवाले भारतीय रेगिस्तानी गधे या खच्चर इन्हीं दुर्लभ प्रजातियों में से एक है। वर्षा के दिनों में जब यहां की भूमि जलमग्न हो जाती है तब उगनेवाली घास पर ये खच्चर अपना निर्वाह करते हैं। इस परिसर के शिकारी प्राणियों में प्रमुख हैं इंडियन फॉक्स और डेजर्ट फॉक्स। जहां तक नजर पहुंचे वहां तक केवल यह विस्तीर्ण रण ही नजर आता है। इसमें खच्चरों के अलावा नीलगाय, चिंकारा, कैराकल, नेवला, जंगली बिल्ली जैसे अनगिनत प्राणी निवास करते हैं। पक्षियों में यहां मोर, तीतर, लावा, बत्तख, पिनटेल डक, स्पॉट बिल डक, ग्रेट क्रेस्टेड ग्रब, फ्लेमिंगो, वूली नैक स्टार्क, पेलिकन, इजिप्शियन वल्चर, मार्श हैरियर, गोल्डन ईगल आदि देखने को मिलते हैं।
अगर आपको यह आश्चर्य है कि ये वन्य-प्राणी कच्छ के रण में कैसे रहते होंगे, तो आप गुजरात के पास राजस्थान अवश्य आयें। भारत का सबसे बड़ा रेगिस्तान इसी राजस्थान में है। यहां स्थित रणथंभोर राष्ट्रीय उद्यान भारतीय वन्य जीवन के लिए एक स्वाभिमान का विषय है क्योंकि यहीं हमारा राष्ट्रीय पशु काली धारियोंवाला बाघ पाया जाता है। राजस्थान के सवाई माधोपुर जिले में अरावली और विंध्य पर्वत श्रृंखला के बीच रणथंभोर का राष्ट्रीय उद्यान बसा हुआ है। १९५५ में इसे अभयारण्य का दर्जा प्राप्त हुआ। फिर सत्तर के दशक में भारत भर में बाघ परियोजना घोषित हुई। उस समय आठ बाघ परियोजनाओं में रणथंभोर का समावेश था। पथरीला, पहाड़ी इलाका, कहीं छोटी-छोटी झाड़ियां, तो कही तालाब के किनारे उगी हुई हरी घास। रणथंभोर में घूमते समय हर बार एक अलग अनुभव आता है। धारीवाला बाघ तो इस क्षेत्र का प्रमुख आकर्षण है। इसके साथ ही तेंदुआ, लोमड़ी, जंगली बिल्ली जैसे शिकारी जानवर भी हैं। नीलगाय, सांबर, चीतल, बंदर आदि के साथ-साथ, गोह (मराठी में घोरपड़), खरगोश, नेवला जैसे जानवर भी यहां हैं। पक्षियों के मामले में भी रणथंभोर समृद्ध है। कॉलरस्कूप आउल से लेकर पैराडाइस फ्लाईकैचर तक सैंकड़ों प्रकार के पक्षी यहां देखने को मिलते हैं। यहां के तालाबों में घंटों आराम करते मगरमच्छ आसानी से देखे जा सकते हैं। जयपुर से केवल तीन घंटे की दूरी पर बसे रणथंभोर के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन है सवाई माधोपुर। रणथंभोर के साथ ही प्रकृतिप्रेमी सैलानियों के लिए एक और आकर्षण का केंद्र है भरतपुर का केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान। यूनेस्को की विश्व धरोहर सूची में इस स्थान का समावेश किया गया है। हजारों स्थलांतरित पक्षियों का रंग-बिरंगा जमावड़ा देखने के लिए, विदेशों से भी सैंकड़ों सैलानी हर साल भरतपुर आते हैं। कोई ढाई सौ साल पहले भरतपुर के शासक महाराज सूरजमल ने गंभीर और बाणगंगा नदियों के संगम पर बांध बनवाया। तभी से वन-पक्षियों के लिए यह स्थान एक तीर्थस्थल बन गया है। इस मानवनिर्मित जलाशय के परिसर में तीन सौ से भी अधिक प्रकार के पक्षी सुख-चैन से रहते हैं। इस पक्षी अभयारण्य में गढ़वाल, शॉवेलर, कॉमन टील, कॉटन टील, पेंटेड स्टोर्क, सारस, वाइट स्पूनबिल, आईबिस, डोर्टर, टोनी ईगल, स्पॉटेड ईगल, बटिंग, लावा जैसे जमीन और पानी में रहने वाले पक्षी पाए जाते हैं। यहां भारतीय अजगर भी बहुतायत में हैं। आगरा से केवल एक घंटे की दूरी पर बसा होने के कारण, दिल्ली-आगरा आनेवाले सैलानी भरतपुर अवश्य आते हैं। माउंट आबू से कुंभलगढ़ तक और ताल छप्पर से डेजर्ट नेशनल पार्क तक राजस्थान ने अपनी वन-संपदा का अच्छी तरह से जतन किया है। राजस्थान का एक और अनोखा स्थल है खिचन। जोधपुर जिले में जोधपुर-जैसलमेर राजमार्ग पर फलौदी के पास खिचन की ओर जाने वाली सड़क है। यह गांव पिछले पचास सालों से डिमॉजल क्रेन्स नामक स्थलांतरित पक्षियों की प्रजाति की हर साल मेजबानी करता है। क्रौंच जाति के ये पक्षी हर साल सैंकड़ों की तादाद में मध्य यूरोप के मैदानी इलाकों से स्थलांतर कर भारत में आते हैं। खिचन में अक्टूबर से फरवरी के बीच एकसाथ लगभग दस से पंद्रह हज़ार डिमॉजल क्रेन्स देखने को मिलते हैं।
भारतीय वन्य-जीवन का सबसे सुंदर और मनमोहक दर्शन कराने वाला राज्य है मध्यप्रदेश। कान्हा, बांधवगढ़, पेंच, सतपुड़ा, पन्ना जैसे वन्य-जीवों से समृद्ध राष्ट्रीय उद्यानों के साथ ही मध्यप्रदेश में अनोखा फॉसिल पार्क भी है। यदि लाखों वर्ष पूर्व के प्राणी-जीवन का दर्शन करना हो तो बांधवगढ़ के पास घुघवा फॉसिल पार्क अवश्य आइये। १९५५ में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्राप्त करनेवाले कान्हा के जंगलों को १९७३ में बाघ परियोजना में भी शामिल किया गया। ऊंचे और हरेभरे साल वृक्षों से भरपूर इस जंगल में बांस के पेड़ भी बहुतायत में हैं। शाकाहारी जानवरों के लिए चरागाह भी अनगिनत हैं। लेखक रुडयार्ड किपलिंग को ‘द जंगल बुक’ उपन्यास लिखने की प्रेरणा इसी जंगल से मिली थी। भालू से लेकर दुर्लभ बारहसिंगा तक कान्हा का वन-जीवन विविधता से भरपूर है। बाघों के संरक्षण के साथ ही बारहसिंगा की प्रजाति का संरक्षण करने की जिम्मेदारी कान्हा ने बखूबी निभाई है। बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान का पौराणिक महत्व भी है। इस जंगल में स्थित किला बांधवगढ़ यानि बंधु का किला माना जाता है। यह बंधु और कोई नहीं, भगवान् श्रीराम के बंधु लक्ष्मण हैं। इस जंगल का एक और ऐतिहासिक महत्व यह है कि भारत में सबसे पहला सफेद बाघ इसी जंगल में पाया गया था। कान्हा और बांधवगढ़ दोनों राष्ट्रीय उद्यानों तक पहुंचने के लिए नजदीकी रेलवे स्टेशन है जबलपुर। यहां से पांच-छह घंटे का सफर करके इन उद्यानों तक पहुंचा जा सकता है। इसी के साथ जबलपुर के पास धुआंधार और भेड़ाघाट के प्रसिद्ध स्थलों पर जाना भी आसान है। नर्मदा के तेज प्रवाह से तैयार हुए प्राकृतिक शिल्प यहां देखते ही बनते हैं।
मध्यप्रदेश का सिरमौर है सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान। होशंगाबाद जिले में, सतपुड़ा पर्वत श्रुंखला के बीच, देनवा नदी के किनारे यह राष्ट्रीय उद्यान बसा हुआ है। सतपुड़ा नेशनल पार्क की खासियत यह है कि यहां आप जीप सफारी, कनु राइड, बोटिंग, हाथी की सवारी जैसे अनेक माध्यमों से इस जंगल का दर्शन कर सकते हैं। सतपुड़ा का जंगल मुख्य रूप से ड्राई ऑटम और वेट ऑटम प्रकार का है। इस जंगल में साग, साल, मोह, आम, तेंदू, बेल, बांस के पेड़ बहुतायत में हैं। इस जंगल में चीतल, सांबर, नीलगाय, चौसिंगा, नेवला, लोमड़ी, जायंट स्क्वीरल, लंगूर, बंदर जैसे वन्यजीव रहते हैं। पक्षियों के मामले में भी यह जंगल संपन्न है। चेंजिबल हॉक ईगल, क्रेस्टेड सर्पेंट ईगल, हनी बज़र्ड जैसे शिकारी पक्षियों के साथ ही पैराडाइस फ्लाई कैचर, मालाबार व्हिसलिंग थ्रश, होर्नबिल्स, ईगल आउल, हरियल, एलेग्जेंडर पैराकीट, वूली नेक स्टोर्क, रिवर लैपविंग जैसे विविध प्रकार के पक्षी देखने को मिलते हैं। वन्य-जीव प्रेमियों के लिए सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान आकर्षण का केंद्र है। यहां भालू और तेंदुए का दर्शन आसानी से हो जाता है। आम तौर पर तेंदुए का दिन में दर्शन होना दुर्लभ होता है, लेकिन सतपुड़ा के जंगलों में तेंदुए की संख्या अधिक है, इसलिए इन्हें देखने के मौके यहां कई बार मिल जाते हैं। साथ ही काले भालू दिखने की संभावना भी अधिक रहती है। सन २००० में मध्यप्रदेश से काटकर छत्तीसगढ़ राज्य अलग बनाया गया। इस राज्य में भी कई जंगल हैं। यहां बाघ, तेंदुए, सांबर, नीलगाय के साथ-साथ सबसे महत्वपूर्ण वाइल्ड बफेलो यानि जंगली भैसे भी पाए जाते हैं। साथ ही मानव की आवाज की हूबहू नक़ल करने वाली दुर्लभ पहाड़ी मैना भी यहां पायी जाती है। इस राज्य में अचानकमार, बर्नावापर, सीतानदी, सोमरसोट, तमोर पिंगला जैसे अभयारण्य भले ही दूरदराज क्षेत्र में हों, लेकिन यहां का वन्य-जीवन दुर्लभ प्रजातियों और विविधतापूर्ण वनस्पतियों के लिए प्रसिद्ध है।
हिमालय का भारत के लिए भौगोलिक, प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व है। इसी हिमालय का सबसे सुंदर दर्शन होता है, निकटवर्ती राज्य उत्तराखंड में। बर्फीली सर्द पहाड़ियों से भरा हुआ यह राज्य सदा से ही सैलानियों को आकर्षित करता रहा है। जिम कोर्बेट की शिकार संबंधी कथाओं के कारण प्रसिद्ध इस राज्य के अधिकतर राष्ट्रीय उद्यान हिमालय की गोद में बसे हैं। गंगोत्री और वैली ऑफ़ फ्लावर्स जैसे स्थान हिमालय में आठ से नौ हजार फुट की ऊंचाई पर बसे हैं। साथ ही राजाजी और कोर्बेट राष्ट्रीय उद्यान भी हैं जो हिमालय के तल में बसे हैं। स्नो लेपर्ड से लेकर धारीवाले बाघ तक, भारतीय हाथी से लेकर हिमालयन ब्लू शिप तक सभी प्रकार के जानवर यहां मिलते हैं। केवल हिमालय में पाये जाने वाले मोनाल और हिमालयन गिफ्रोन जैसे अनोखे पक्षी भी यहां हैं।
भारतीय जैव-विविधता के लिए हॉट-स्पॉट कहे जाने वाले जंगल हमें मिलते हैं भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में। यह सारा ही भूभाग अपने वन्य-जीवन के कारण प्रसिद्ध है। यहां जिस प्रकार का वन्य जीवन देखने को मिलता है, वैसा और कहीं नहीं मिलता। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है असम स्थित काजीरंगा नेशनल पार्क और हूलोंगपार गिबन्स अभयारण्य। भारत के प्रसिद्ध एक सींग वाले गैंड़े इन्हीं जंगलों में पाए जाते हैं। इसीलिए काजीरंगा नेशनल पार्क का समावेश यूनेस्को द्वारा विश्व धरोहर स्थल की सूची में किया गया है। दुनिया भर के एक सींग वाले गैंड़ों की कुल संख्या के दो-तिहाई गैंड़े केवल इसी जंगल में हैं। १९७४ में राष्ट्रीय उद्यान का दर्जा प्राप्त इस जंगल का आनंद आप खुली जिप्सी के द्वारा ले सकते हैं। साथ ही हाथी की सवारी के द्वारा भी इस जंगल में घूमा जा सकता है। एक सींग वाले गैंड़ों के साथ ही यहां हाथी, बाघ, तेंदुए, वाइल्ड बफैलो, भालू, हिमालयन सीवेट जैसे प्राणी और ३२५ प्रकार के पक्षी देखने को मिलते हैं। काजीरंगा से केवल तीन घंटे की दूरी पर, हूलॉक गिबन्स प्रजाति के बंदरों के लिए प्रसिद्ध गिबन्स अभयारण्य है। इस घने जंगल में वन विभाग के गाइड के साथ पैदल घूमने का आनंद भी उठाया जा सकता है। इस अभयारण्य में बंदरों की सात प्रजातियां हैं। इन दोनों जंगलों तक पहुंचने के लिए गुवाहाटी और जोरहाट के हवाई अड्डे निकट हैं। नवंबर से अप्रैल तक पूर्वोत्तर का वन्यजीवन निहारने के लिए उपयुक्त समय है।
संपूर्ण भारत के वन्य-जीवन का आनंद उठाने के लिए तो शायद, कुछेक साल भी कम पड़ेंगे। लेकिन हमारे नियमित पर्यटन स्थलों के कार्यक्रम के साथ यदि हम वन-पर्यटन का कार्यक्रम भी जोड़ दें तो भारत के कुछ महत्वपूर्ण अभयारण्यों का दर्शन करना और कुछ अनोखे जीव-जंतुओं को देखना शायद मुश्किल न होगा। …. तो अपने अगले पर्यटन कार्यक्रम में कम से कम एक अभयारण्य में जाना न भूलें।

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