शुचिता चिंतन

प्रत्येक बदलता क्षण इतिहास की शक्ल में टंकित होता जाता है ; अपनी कुछ सीखों, पश् ‍ चातापों, रवायतों तथा चुनौतियों आदि के साथ। जीवन की इसी भीषण धुरभिसंधि के मानकों के बल पर हम भविष्य की चुनौतियों से पार पाने की कोशिश करते हैं। कुछ हद तक सफल होते हैं, बहुधा असफलताओं की पग धूलि ही माथे लगाने को मिलती है। कारण साफ है, हमारे मन की अस्वच्छता और उसे निरंतर कलुषित करते रहने की सहज मानवीय प्रवृत्ति। शायद यही जीवन की सर्वोत्तम प्रकृति भी है कि लगातार पुष्पित – पल्लवित होती मानवीय दुर्बलताओं के शमन के साथ ही साथ अंतरात्मा की प्रेरणा का सबब कही जा सकने वाली स्वच्छ जीवन पद्धतियों का अनुसरण व मार्गदर्शन प्राप्त करने की दिशा में निरंतर प्रयासरत रहें। यही सफल मानव जीवन का भाव भी माना जा सकता है।

सामान्यतः मनुष्य की अशुद्धि के दो पहलू माने जा सकते हैं। पहला है ऊपरी अथवा दैहिक स्तर, जिसकी स्वच्छता के लिए साबुन, मिट्टी, राख जैसे साधन इस्तेमाल किए जा सकते हैं। दूसरा और संभवतः मुख्य पहलू है आंतरिक स्तर की स्वच्छता का आयाम, जिसके लिए मन की शुद्धता, कर्तव्य परायणता, सत्य के प्रति आग्रह जैसी सात्विक प्रवृत्तियों द्वारा आत्मा की शुद्धता के सतत् प्रयास करने पड़ते हैं। पर ये तमाम शुचिताएं तभी दृष्टिगोचर व फलीभूत होती हैं जबकि धनार्जन में शुचिता बरती गई हो। इसीलिए मनुस्मृति के पंचम अध्याय में कहा गया है कि –

सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्।

योर्थे शुचिर्हि सः शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः ॥

अर्थात् सभी शौचों, शुचिताओं यानी शुद्धियों में धन से संबद्ध शुचिता ही वास्तविक शुद्धि है। मात्र मृदा – जल ( मिट्टी एवं पानी ) के माध्यम से शुद्धि प्राप्त कर लेने से कोई वास्तविक अर्थ में शुद्ध नहीं हो जाता।

वैसे तो बहुत सारी मानवीय प्रवृत्तियों का स्रोत पैतृक व पीढ़ीगत होता है पर बहुधा वातावरण भी अपनी स्वभावगत परछाई छोड़ता है। शायद इसीलिए कहा जाता है कि जीवन में हमेशा सकरात्मक प्रवृत्ति एवं ऊर्जा वाले लोगों के साथ ही मित्रता कीजिए ताकि आपकी अंतःशक्ति उर्ध्वगामी हो सके। जीवन के कठोरतम अनुभवों के कारणों का निरीक्षण करते समय बहुधा हम यही पाते हैं कि अपने निहित स्वार्थों के वशीभूत होकर जीवन दर्शन के उन सामान्य नियमों को भी दरकिनार कर देते हैं तथा दुख और अपयश के भागी बनते हैं। इस तरह के रिश्तों को परवान चढ़ाते समय अपने मन मस्तिष्क के किसी कोने में एक प्रबल प्रवृत्ति को जबरदस्ती घुसेड़ने का प्रयास करते हैं कि, ‘ सामने वाला व्यक्ति सबके साथ भले ही पीठ में खंजर घोंपने का कार्य करे पर मेरे साथ नहीं कर सकता।’ संभवतः इस प्रकार की स्वैच्छिक दूषित प्रकृति भी ज्यादातर के विकास को अवरुद्ध करती है। क्या हमारे पास विकल्प नहीं है, इस तरह की प्रकृतियों से बचाव का ? पर क्या हम करते हैं ? ज्यादातर मामलों में, नहीं।

मानव मन की शुचिता के सर्वोत्तम अंग ‘ परोपकार ’ को लेकर आम जन मानस में एक श्रुति सुनी जा सकती है –

अष्टादस पुराणेसु व्यासस्य वचनम् द्वय।

परोपकारय पुण्याय, पापाय परपीडनम्॥

अर्थात् जो समय मानव जीवन का शुद्धतम काल कहा जा सकता है, उस काल के लोगों तथा आने वाली पीढ़ियों के मार्गदर्शन के लिए कृष्ण द्वैपायन को अठारह पुराण लिखने पड़े। केवल यह बताने के लिए, परोपकार से बड़ा कोई पुण्य नहीं और पर पीड़ा से बड़ा कोई पाप नहीं। यही नहीं, आम जन मानस जीवन की शिक्षा ले सके, ऐसे एक वृहद ग्रंथ ‘ महाभारत ’ की भी रचना की जिसमें आपके हर प्रश् ‍ न का उत्तर समाहित है। सीधा सा अर्थ है कि सत् और असत् के द्वंद्व से दो चार होने तथा उसके उपालम्भ से पीड़ित होने का दुख सनातनी है। यह कहना कि वर्तमान परिस्थितियां सर्वाधिक जटिल तथा मानव विमुख हैं, न्यायसंगत नहीं है। हर पीढ़ी को अपनी सामयिक समस्याओं से जूझना पड़ा है पर सतत् व सुखद विजय हर हाल में में उसी की हुई है जो सत्य और मन की स्वच्छता के प्रति प्रबल आग्रही रहा है।

जैसा कि चंद पंक्तियां ऊपर कह चुका हूं कि हर पीढ़ी को अपने युग की चुनौतियों का सामना तथा समस्याओं का निवारण करना पड़ता है। ये चुनौतियां और इनका नियमगत निवारण ही हमारी आने वाली संततियों के भविष्य का निर्धारण करती हैं। यदि हम चुनौतियों के समाधान करते समय भूतकाल के उन बिंदुओं की तरफ ध्यान नहीं दे पाते, जो कि वर्तमान परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार हैं, तो किसी भी समस्या का सार्थक हल नहीं निकाल सकते। बल्कि भविष्य की पीढ़ी को एक नई एवं वृहद चुनौती के दलदल में धकेल रहे होते हैं। यदि वर्तमान सफलता अथवा दुश् ‍ वारी का निष्पक्ष चिंतन करने की कोशिश करें तो आत्म मंथन के दौरान एक पक्ष हमेशा सामने आता है कि भविष्य का सारा दारोमदार वर्तमान की भुजाओें, मस्तिष्क, आत्मिक शुचिता तथा आत्मिक स्वच्छता और सत्य के प्रति आग्रह पर होता है। इनमें से आत्मिक स्वच्छता का चयन नींव के तौर पर करना अत्यावश्यक होता है क्योंकि बिना उसके सत्य स्थिर नहीं हो पाता है। यदि सत्य पराक्रम स्थान से विमुख हो तो न तो मस्तिष्क स्थिर रह पाता है और न ही आत्मिक शुचिता आपकी दीर्घकालिक सहचरी बन पाती है। और इन सबके बिना बल का कोई महत्व नहीं रह पाता। महाभारत युद्ध की बात आती है तो कागज पर पांडव कौरव सेना के सामने कहीं नहीं टिकते थे। इच्छामृत्यु का कवच लिए देवव्रत भीष्म, अपराजेय द्रोण, अमर अश् ‍ वत्थामा, कर्ण, जयद्रथ जैसे महारथियों से सजी सेना के सामने निहत्थे वासुदेव थे, अपने सत्य, आत्मिक शुचिता व स्वच्छता, मस्तिष्क तथा अर्जुन और भीम के बाहुबल को लिए। परिणाम सर्वविदित रहा है।

भारतवंशियों के साथ एक समस्या हमेशा ही रही है। अध्यात्म के क्षेत्र को छोड़ दें तो आत्म चिंतन का हमेशा ही अभाव रहा है। परिणाम साफ है। हजारों वर्षों तक लगातार पददलित किए जाते रहने के बावजूद हमने कभी सम्पूर्ण मानव सत्य को अपनाने का प्रयास ही नहीं किया। राष्ट्र और संस्कृति के तौर पर हम भले एक राष्ट्र रहे हों पर धरातल पर यहां संबंधों की बानगी कुछ अलग ही रही है। संबंधों की परिभाषा विजित और विजेता, शासक और शासित के इर्द – गिर्द ही घूमती रही है। यही कारण रहा है कि समाज के हर वर्ग के लिए दूसरा पक्ष शोषक अथवा शोषण के योग्य ही रहा। किसी राष्ट्र के आत्मिक विकास की पोषक ‘ समानता ’ कभी पनप ही नहीं पाई। परिणाम हम सबके सामने है।

कारण साफ है। हमने भूत से कुछ नहीं सीखा है। राजा गोकुलदास ने १८५७ में अंगे्रजों का साथ दिया था। फलस्वरूप उन्हें काफी रियायतें तथा एक काफी बड़ा सोने का कमरबंद दिया गया था जिस पर लिखा था कि, ‘ विप्लव के समय ब्रिटिश साम्राज्य का साथ दिए जाने के उपलक्ष्य में ’, पर उन्हीं के पोते और महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी सेठ गोविंददास जब १९३० के दशक में अपना राजसी ठाठ छोड़ स्वतंत्रता संग्राम में कूदे तो उनका घोष वाक्य था –

‘‘ मेरे दादा ने उस समय अंग्रेजों का साथ देकर राष्ट्र की पीठ में जो खंजर घोंपा था, मैं उसका प्रायश् ‍ चित करने आया हूं।’’

फलतः उनके खिलाफ धारा १२४अ के तहत राजद्रोह का मुकदमा दायर कर जेल भेज दिया गया जहां उन्हें तनहाई में भी रखा गया था। ऐसे तमाम रजवाड़े या संभ्रांत रायबहादुर हुए जिन्होंने उस समय खुलकर ब्रिटिश साम्राज्य का साथ दिया पर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अपने – अपने क्षेत्रों में काफी सराहनीय कार्य भी किए। वे सारे कदम आत्मिक स्वच्छता की ओर बढ़े तथा समय को पहचानकर अपने भविष्य के प्रति सजग हुए।

हर वर्तमान की ही भांति यह वर्तमान भी काफी दुरूह राह पर है, खासकर प्रगति के सोपानों की विसंगतियों के संबंध में। पिछले तीन दशकों में एक ऐसा तीव्र परिवर्तन परिलक्षित हुआ है जो कि सम्भवतः अब तक के ज्ञात इतिहास में नहीं हो पाया था। वह परिवर्तन है, भौतिक प्रगति की तीव्र मोड़ों वाली अंधी गलियों का। अभी तक यही होता आया था कि किन्हीं दो बड़े परिवर्तनीय दौरों के बीच काफी बड़े समय का अंतर रहा है, कभी – कभी तो पांच सौ सालों तक का। पर यदि हम पिछले तीन दशकों पर ध्यान दें तो दस – पंद्रह सालों में इतना तीव्र विकास होता रहा है कि नई पीढ़ी का वाह्य ज्ञान पुरानी पीढ़ी से काफी गुना उन्नत हो चुका है। इसलिए नई पीढ़ी पुरानों को समय के साथ कदमताल कराने के लिए शिक्षक की सी भूमिका में आ गई है जबकि पहले यह जिम्मेदारी पुरानी पीढ़ियों के जिम्मे होती थी। वे अपनी पीढ़ियों द्वारा आख्यायित व संचित निधि उत्तराधिकारी को सौपते थे।

इसलिए आंतरिक ज्ञान का मामला काफी पीछे छूटते जा रहा है। नई पीढ़ी, जो कि शिक्षक की भूमिका में आ चुकी है, उसके प्रति पूरी तरह अनमयस्क सा भाव रखती है। पहले भी ऐसा ही होता था पर समय के साथ परिपक्वता आने पर वे उस भाव को आत्मसात करने की जरूरत को स्वयं महसूस करने लगते थे। परंतु आज ऐसा नहीं है। इसलिए अंतरमन के स्वच्छता की सतत् प्रक्रिया लगभग ठप सी हो गई है। वातावरण कलुषित हो चुका है। कहने को हम सबसे शांत समय के बाशिंदे हैं, पर मात्र ऊपरी तौर पर।

मोबा . ९०७६३१३८२०

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