जनजातीय विकास का रास्ता सुझाती‘विश्‍व की जनजातियां’


अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम के प्रमुख आयाम शिक्षा की राष्ट्रीय समिति के संयोजक रह चुके त्रिलोकीनाथ सिनहा की कृति ‘विश्‍व की जनजातियां’ दुनिया भर की जनजातियों के बारे में निश्‍चित रूप से एक अनूठी पुस्तक है। यह पुस्तक सिद्ध करती है कि दुनिया की सभी जनजातियां, चाहे वह उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका की हों या भारत की, परस्पर जुड़ी हुई हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से सभी जनजातियों का मुख्य स्वरूप एक समान है; क्योंकि इनका मूल स्थान भारत है।

दूसरा दुखद तथ्य यह उजागर होता है कि विभिन्न यूरोपीय उपनिवेशवादी साम्राज्यवादियों ने उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका व आस्ट्रेलिया महाद्वीपों में सैकड़ों सालों से निवास करते आए करोड़ों आदिवासियों पर ६०० सालों तक बेहद जुल्म ढाया। छल, धोखेबाजी, क्रूरता, अमानवीयता, विश्‍वासघात, उत्पीड़न, अत्याचार, हिंसा-दुराचार व बड़े पैमाने पर लगातार नरसंहार किया, दुष्परिणाम जनजातियों की आबादी एकदम से कम हो गई। जो जनजातियां इस समाज का एक अभिन्न हिस्सा हैं, जिनकी सभ्यता और संस्कृति, परंपराएं और रीति-रिवाज की खुशबू पूरी दुनिया को आकर्षित करती है, उन्हें विश्‍वासघाती उपनिवेशवादियों ने पूरी तरह तहस-नहस कर डाला।

भारत में जनजातियों की आबादी लगभग ११ करोड़ है और संयुक्त राष्ट्र संघ के मुताबिक विश्‍व के लगभग ४० देशों की ४३ करोड़ आबादी जनजाति वर्ग में आती है। इनकी संख्या क्यों लगातार घट रही है, इन्हें किन लोगों ने प्रताड़ित किया और इनके वर्तमान पिछड़ेपन का क्या कारण है, इसका सजीव व रोमांचक वर्णन लेखक ने किया है। अरबवासी मुस्लिमों द्वारा विगत १४०० वर्षों पूर्व अफ्रीकी आदिवासियों में धर्मांतरण का भी प्रो. सिन्हा ने गहन वर्णन किया है।

आज हम भले ही २१वीं सदी में हैं। तकनीकी रूप से अत्यंत उन्नत हैं। महाआधुनिक है। ऐशोआराम की सारी सुविधाएं हमारे पास मौजूद हैं। रोबोट के रूप में हमारे पास मशीनी दिमाग भी है। चंद्रमा व मंगल समेत कई ग्रहों पर पहुंच चुके हैं। हरेक तरह का आविष्कार हमारे यहां है, पर इस विकास की चकाचौंध में हम मूल पीढ़ी यानी जनजातियों को भूलते जा रहे हैं। और, आज से नहीं बल्कि कई सौ साल पहले इसकी शुरुआत हुई।

साम्राज्यवादी जहां-जहां गए, वहां-वहां उन्होंने छल से इन जनजातियों के मासूम प्रमुखों को सताया, उनकी सभ्यता-संस्कृति को नष्ट किया, उन्हें बलात् ईसाई बना कर इस समाज को तकरीबन खत्म कर डाला। मसलन, संयुक्त राज्य अमेरिका के मूल निवासियों यानी इंडियंस की जो आबादी कभी १० करोड़ थी, आज सिर्फ ४३ लाख ही है; जबकि ये इंडियंस अत्यंत भोलेभाले, सहृदय तथा मैत्रीपूर्ण स्वभाव के थे और इसीलिए स्पेनियों ने, अंग्रेजों ने, डचों ने व फ्रांसीसियों ने उनका जम कर शोषण किया।

प्रो. त्रिलोकी नाथ सिनहा ने भारत की जनजातियों पर काफी शोध कर पुस्तक का अध्याय ५ इसी विषय पर लिखा है जिसमें आदिवासियों की रामायण काल, महाभारत काल, मध्यकाल व ब्रिटिश काल की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, पूर्व व वर्तमान समय में वनवासियों का रहन-सहन, जनजातियों की समस्याएं, महानगरों की घरेलू नौकरानियां, समस्याग्रस्त उत्तर पूर्वांचल, वनवासी उन्नयन के स्वयंसेवी उपक्रम के तहत अखिल भारतीय वनवासी कल्याण आश्रम पर अपनी लेखनी चलाई है। तीन भागों में हमारे महान वन नायक, विश्‍वबंधु स्वामी विवेकानंद, दो भागों में प्रेरक प्रसंग, पूज्य रज्जू भैया, भारत दर्पण आदि कृतियों के लेखक प्रो. सिनहा कहते हैं कि, ‘यह एक बड़ी समस्या है। भारत में इनकी आबादी १० करोड़ से भी अधिक है। शासन की ओर से आरक्षण, अनुदान, कल्याणकारी योजनाओं के बावजूद आज भी देश का जनजातीय समाज अभावों में ही जी रहा है। वैसे पिछले कुछ सालों में केंद्रीय सरकार इस तरफ गंभीर हुई है। ठीक यही गंभीरता उनकी पुस्तक में भी है। उम्मीद है कि इस पुस्तक से जनजातीय विकास का एक नया रास्ता मिलेगा। ग्राफ व फोटो, आंकड़ों से सजा यह एक उपयोगी ग्रंथ है।

मोबा. ९८२०१२०९१२

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