कलरिपयट्ट और योग

 

केरल के सबसे प्राचीन  कालाओं से एक कलरिपयट्ट भी है। यह एक युद्ध कला है। केरल का इतिहास जितना पुराना है उतना ही पुराना कलरिपयट्ट भी है।

कलरिपयट्ट जहां पर सीखते-सिखाते है उसी जगह को कलरी कहते है। कलरी शब्द खलूटिका संस्कृत पद से बना था। प्रारंभ में छोटा कलरी और अभ्यास कलरी दो रूपों में कलरी को जाना जाता था।

इसमें छोटा कलरी में स्थायी रुप से शस्त्र से अभ्यास किया जाता था। यह क्षेत्र पूर्वाभिमुख और लगभग ४२ कदम लंबाई, २१ कदम चौडाई और ६ कदम गहराईवाला क्षेत्र होता था। ध्वजयोनी, वृक्षयोनी जैसे वास्तुशास्त्र के आधार और ज्योतिष शास्त्र के आधार पर १२ राशी बनाकर कलरी स्थान बनाते है। फिर मेष राशी से कलरी में प्रवेश करते है। ‘खल्लशिका’ देवता कलरी की देवता है। सबकी अधिपति खलूटिका देवता है।

कलरी का तत्व योग से भी संबंधित है। यम-नियम-आसन-प्राणायाम-प्रत्याहार-धारणा-ध्यान-समाधि जैसे आठ अंग योग आधार है। कलरी की शिक्षा पद्धति में भी यही आधार दिखता है। मंत्र, प्राणायाम कलरी का भी अनिवार्य रूप है। कलरी अभ्यास केवल शारीक या शस्त्र अभ्यास मात्र नहीं है। यह एक आध्यात्मिक अनुभूति भी है। केवल सात साल की उम्र से कलरी का अभ्यास प्रारंभ होता है। पूरे शरीर को तेल से मालिश करके कमर में कच्छा (धोती) बांधकर अभ्यास प्रारंभ करते है। अभ्यास के दौरान अभ्यासकों को पता ही नहीं चलता है कि उनका सूक्ष्म शरीर में परिवर्तन हो रहा है क्योंकि कलरी ‘योग’ और तंत्र शास्त्र के आधार पर बनाया। पहले दहिने पैर से कलरी में प्रवेश करते है फिर गुरुजी को वस्त्र और दक्षिणा देकर विद्यार्थी अपना प्रशिक्षण प्रारंभ करते हैं। भारतीय संस्कार की रीढ़ गुरु-शिष्य संकल्पना है। कलरी में भी यह बहुत महत्वपूर्ण है।  उत्तम शारीरिक और मानसिक गुणों से संपन्न पीढ़ी का निर्माण कलरी प्रशिक्षण से होता है।

 कलरी से शारीरिक लाभ

पहले कलरी विद्यार्थी अपने शरीर को योगभ्यासियों की तरह बनाते हैं। उसके बाद लाठी, तलवार जैसे शस्त्र का अभ्यास और बिना शस्त्र के लडना सीखता है। इसी क्रमबद्ध अभ्यास से वह  शारीरिक स्फूर्ती और दृढता प्राप्त करता है। अपने अभ्यास से उन्हें  ऊंचाई तक उछलने का में मदद मिलती है। इसी मनोधैर्य के साथ वे अपने शरीर के सभी अंगों को दृढ़ता और वेग के साथ चालाते है। उनके शरीर को दृढ़ता और सुन्दरता भी प्राप्त होती है। योगासन भी इसी क्रिया में अग्रेसर है।

 मानसिक लाभ

हर मनुष्य का आरोग्य उसके मन की एकाग्रता पर निर्भर है। चंचल मन से आरोग्य प्राप्त नहीं होता है। कलरी का अभ्यास बिना एकाग्रता कठिन है।

योग और तंत्र के आधार पर ही कलरी की भी समीक्षा करना चाहिये। अभ्यास से पहले मंत्र और प्रार्थना का पाठ होता है। इसी क्रिया से देवता संकल्प के आधार पर बाह्य सीमा बनाकर मन को बांधकर रखते है। इधर-उधर भटकने नहीं देते। इस अभ्यासक्रम में पांचों इंद्रियों का भी महत्वपूर्ण कार्य है।

कलरी में आखों का सर्वाधिक योगदान होता है। हमारे सामने जो भी हमको दिखता है उसी पर हमारा ध्यान सबसे अधिक जाता है। कलरी में शस्त्र अभ्यास प्रारंभ होते ही आखों का स्थिर रखना आवश्यक है। जैसे ही आंखों का हलचल स्थिर होती है वैसे ही मन स्थिर होना प्रारंभ होता है। कलरी में आखों को स्थिर रखने के लिए ही अधिक समय अभ्यास कराते है। स्थिर देखना मुख्य अभ्यास है। इसी अभ्यास से मन की एकाग्रता अपने आप हो जाती है। इसको मन:शक्ति भी कहते है। यह मन की ताकत है। इसी से ‘मर्म विद्या’ प्राप्त होता है। ‘मर्म सिद्धि’ इसी को कहते है।

 अध्यात्मिक लाभ

कलरी में शारीरिक, मानसिक, ध्यान, प्राणायाम, मंत्र, तंत्र आदि का अभ्यास होने के कारण अभ्यासी अपने आप ही आध्यात्मिक रूप से विकसित हो जाता है। ४० देवताओं का उपासना पूजा कलरी में करते हैं। ब्रह्म मुहूर्त और संध्या समय में ४० देवताओं की पूजा करते है। ४२ दिन का व्रत लेकर पूजा पाठ भी कलरी में करना अनिवार्य है। वीर मुद्रा ध्यान भी करना है। इसी के आधार पर कुण्डलीनि शक्ती का जागरण होता है। इसके लिए गुरुजी छोटी सी छडी लेकर ज़मीन में ‘ओम श्री गुरुवे नम:’ लिखकर मन्त्रोच्चारण करते हैं॥

 कलरी मेें चिकित्सा पद्धति

कलरी करते समय शरीर में जो भी चोट या आघात होता है उसी के लिये कलरी के गुरुजी ने चिकित्सा पद्धति भी विकसित की है। वही कलरी चिकित्सा के नाम पर प्रसिद्ध है। कलरीपयट्ट और कलरी चिकित्सा दोनों अपने आप में एक मिसाल है। मर्म में दर्द, हड्डी टूटना, मोच, घाव इन सभी के लिये उत्तम इलाज कलरी में है। पैर से मसाज कलरी का सबसे महत्व पूर्ण इलाज है। यह पूरे शरीर में प्राणवायु का संचार करता है। जिस तरह सिंह को देखकर अन्य जीव भागते हैं वैसे ही व्यायाम और पैर के द्वारा मसाज से तैयार  शरीरवाले  व्यक्तियों से रोग दूर भागते हैं। सुश्रुत संहिता में भी इस इलाज का उल्लेख है।

 कलरी से उत्पन्न कलाएं

केरल की कलाओं में भी कलरी का सर्वाधिक प्रयोग है। कृष्णनाट्टं, कथकलि, तीथ्याह, वेलाकलि, पश्चिमुहकालि, कोलकालि तिरा, तेथ्यं, पटयणि, जैसे बहुत सारी कलाओं में कलरी का प्रयोग होता है। आधुनिक नृत्य, नाटक कलारुपों में भी कलरी का उपयोग हो रहा है।

कलरी में अभी भी शोध हो रहे हैं। विदेशी कई साल रहकर कलरी सीखते है व शोध करते है। संगठित, सुव्यवस्थित,  समाज को खडा करने के लिये कलरी का अभ्यास महत्वपूर्ण और उपयोगी है।

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