अल्पसंख्यकों को भारतीय नागरिकता देने की दरकार

गृह मंत्री अमित शाह ने असम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश के राजनीतिक नेताओं, छात्र संगठनों, नागरिक संगठनों और पूर्वोत्तर राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ नागरिकता सुधार विधेयक के विभिन्न पहलुओं पर अनेकों बार चर्चा की। आसाम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल, अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडू, मेघालय के कोनराड संगमा, केन्द्रीय गृह राज्य मंत्री किरेन रिजिजू और कुछ सांसद बैठक में उपस्थित थे। अमित शाह ने त्रिपुरा और मिजोरम नागरिक संगठनों सहित राजनीतिक दलों के साथ चार घंटे चर्चा की। नागरिकता सुधार विधेयक, १९५५ में बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई, पारसी शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने के लिए संशोधन किया गया है। जिसके अंतर्गत यदि शरणार्थियों के पास कोई दस्तावेज नहीं होगा, तो भी उन्हें मान्यता दी जाएगी। हालांकि ३१ दिसंबर, २०१४ से पहले आने वाले शरणार्थियों को ही नागरिकता मिलेगी।

  • भारत के अलावा अल्पसंख्यकों के पास कोई सुरक्षित विकल्प नहीं है

नागरिकता (संशोधन) विधेयक २०१९, जिसका उद्देश्य बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान में गैर-मुस्लिमों को भारतीय नागरिकता प्रदान करना है, को लोकसभा में अनुमोदित किया गया है। केंद्र सरकार ने अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे देशों के हिंदुओं, सिखों, जैनियों, बौद्धों, पारसियों और ईसाइयों को भारतीय नागरिकता देने के लिए विधेयक पेश किया है। उपरोक्त देशों में हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी, और ईसाई समुदाय अल्पसंख्यक हैं। नागरिकता संशोधन विधेयक केवल असम तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इससे देश के दूरगामी क्षेत्रों में रहने वाले दिल्ली, गुजरात के आश्रितों को भी लाभ होगा। पाकिस्तान में, अल्पसंख्यकों के अधिकार दांव पर थे। अफगानिस्तान और बांग्लादेश में भी ऐसी घटनाएं हुई हैं।

  • छह साल से अधिक समय तक रहने वालों को मिलेगी नागरिकता

१२ वर्ष से रहने वाले शरणार्थियों को ही नागरिकता देने की व्यवस्था पहले इस कानून के अंतर्गत थी, जिसे बदल कर संसोधन द्वारा अब ६ वर्ष कर दिया गया है। भारत में छह साल से अधिक समय तक रह रहे ऐसे लोगों को नागरिकता अब प्रदान की जाएगी। इस विधेयक के प्रावधान संविधान के विपरीत नहीं हैं। इसलिए, इस बिल का असम से विरोध और धर्म के आधार पर नागरिकता देने का विरोध निराधार है। यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है कि वह असम के लोगों की परंपराओं और संस्कृति को संरक्षित करे और सरकार इसके लिए प्रतिबद्ध है, ऐसा केंद्रीय गृह मंत्री ने कई बार स्पष्ट किया है।

  • अल्पसंख्यकों को भारत की नागरिकता देने का कुछ राजनीतिक दलों द्वारा विरोध

नागरिकता संशोधन विधेयक, जिसे पहली बार वर्ष २०१६ को संसद में पेश किया गया था, को संयुक्त संसदीय समिति (JPC) को भेज दिया गया था। विधेयक की सिफारिशों के अनुसार, विधेयक को लोकसभा में पेश किए जाने के बाद, विधेयक को ध्वनि मत से अनुमोदित किया गया था। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस,  राष्ट्रीय जनता दल, माकपा, सपा, असम गण परिषद ने इस बिल को संविधान के खिलाफ बताते हुए इसका विरोध किया। ये राजनीतिक दल रोहिंग्या को भारतीय नागरिकता देना चाहते है लेकिन बांग्लादेश से आने वाले हिंदुओं को नागरिकता नहीं देना चाहते ।

नागरिकता संशोधन विधेयक के प्रावधानों के अनुसार बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान, हिंदू, जैन, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी गैर-मुस्लिम धार्मिक अल्पसंख्यकों को भारत में १२ साल के बजाय ६ वर्ष भारत में रहने के बाद भारतीय नागरिकता मिल जाएगी। यह जरूरी भी है क्योंकि इन देशों से आनेवाले  अल्पसंख्यकों के पास जाने के लिए भारत के अलावा कोई देश नहीं है।

  • अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश में अल्पसंख्यक असुरक्षित

पूर्व पीएम मनमोहन सिंह ने राज्यसभा में भाजपा सरकार के दौरान  विपक्षी पक्ष नेता के रूप में कहा था कि उन्हें बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों के खिलाफ अत्याचार के मुद्दे पर एक उदार दृष्टिकोण रखना चाहिए। भारत ने अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ एक समझौते पर भी हस्ताक्षर किए हैं। हालाँकि दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं दिख रहा है।

पूर्वोत्तर राज्यों में बिल के खिलाफ विरोध प्रदर्शन हुए। कुछ दलों को डर है कि १९८५  में असम कन्वेंशन, १९७१ के बाद राज्य में प्रवेश करने वाले किसी भी धर्म के विदेशी नागरिक को वापस करने के प्रावधान के साथ रद्द कर दिया जाएगा, जो पूरी तरह से गलत है।

  • असम को एक और कश्मीर बनाने की साजिश

2010 के आंकड़ों के अनुसार, असम की जनसंख्या 35% बांग्लादेशी है, क्योंकि अब हम 2019 में हैं, यह संख्या कम से कम 38 – 39% तक बढ़ जानी चाहिए। इसके अलावा अवैध घुसपैठियों की जनगणना हुई ही नहीं है, ऐसे लोग अधिक संख्या में बसे हुए है। यह केवल असामाजिक एवं देशविरोधी ताकतें हैं जो असम को एक और कश्मीर बनाने की योजना बना रही हैं। इसलिए सभी देशविरोधी ताकते एकजुट होकर इस विधेयक को रोकने का प्रयास कर रहीं है।

  • पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति

विभाजन के कई वर्षों बाद, पाकिस्तान में हिंदुओं को या तो मार दिया गया या धर्म परिवर्तित कर दिया गया। परिणामस्वरूप, १९५० में जिनकी संख्या ८ से ९ % पाकिस्तान में थी। इनकी संख्या घटकर १० लाख हो गई, यानी आज 2% है। पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में विभाजन के बाद, १९५० में २४ से २५ % हिंदू थे,  २०११ की जनगणना के अनुसार, आज बांग्लादेश में केवल ८.८ % हिंदू बचे हैं। वे अब केवल एक करोड़ हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी बांग्लादेश में घटती हिंदू जनसंख्या को अनदेखा किया हुआ हैं। यदि यही स्थिति रही, तो इस देश में हिंदुओं की जनसंख्या शून्य की ओर बढ़े बिना, धीरे – धीरे नहीं रह पाएगी।

बांग्लादेश के मूल निवासी और वर्तमान में संयुक्त राज्य अमेरिका में एक वैज्ञानिक दीपेन भट्टाचार्य ने अपने लेख ‘ स्टेटिस्टिक्ल फ्यूचर ऑफ बांग्लादेशी हिंदुज’ में कहा है कि वर्ष २०२० “बांग्लादेश में केवल १.५ प्रतिशत हिंदू ही बचे रहेंगे।” अपनी पुस्तक गॉड विलिंग: द पॉलिटिक्स ऑफ इस्लामिज्म में, प्रोफेसर अली रियाज़, वर्तमान में बांग्लादेश के एक राजनीतिक विश्लेषक, जो संयुक्त राज्य अमेरिका में रहते हैं, ने निष्कर्ष निकाला है कि “पिछले २५ वर्षों में ५३ लाख हिंदू बांग्लादेश से भाग गए हैं।”

जबकि विदेशी लेखक ने बांग्लादेश के निर्माण के दौरान हिंदुओं पर हुए अत्याचारों को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया है, उस समय भारत सरकार की ओर से कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई थी, यहां तक ​​कि भारतीय समाचार पत्रों, संगठनों और मानवाधिकार नेताओं को भी इस मुद्दे पर तीखी और प्रभावी प्रतिक्रिया देनी चाहिए थी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वर्ष १९७१ में तीस लाख हिंदुओं के नरसंहार की बात प्रकाश में आने के बावजूद, भारत ने नरसंहार का वर्णन इस तरह से किया कि यह बांग्लादेश के नागरिकों के खिलाफ किया गया अत्याचार था और इस तरह हिंदू शब्द का उल्लेख करने से बचा गया।

  • क्या यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी नहीं है ?

इस जानकारी को भारतीय लोगों से जानबूझकर छिपाया गया था। इसका मतलब है कि १९७१ में, भारत आने वाले शरणार्थियों में ९० प्रतिशत हिंदू थे। एक भारतीय नागरिक दुनिया के किसी भी कोने में हिंदुओं, सिखों, जैनियों और बौद्धों पर किए गए आघात के बारे में चुप कैसे रह सकता है ? उनके दुख, दर्द और अन्याय के लिए हमारी कोई नैतिक जिम्मेदारी नहीं है ?

आज, धार्मिक उत्पीड़न से परेशान होकर २० लाख से अधिक हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध भारत आए हैं। इन लोगों को बांग्लादेश भेजना उन्हें वापस मौत की ओर धकेलने जैसा है। इसलिए, भारत सरकार ने नागरिकता की परिभाषा में संशोधन करने का निर्णय लिया। यहां तक ​​कि यह सरल प्रश्न कुछ राजनीतिक दलों के लिए भी मायने नहीं रखता है। भारत में आने वाले अल्पसंख्यकों की समस्या सिर्फ असम की नहीं है, बल्कि संपूर्ण भारत की है। इसलिए, इन लोगों को न केवल असम में बल्कि पूरे भारत में पुनर्वास किया जाएगा। १९४७ में विभाजन के बाद आने वालों के लिए एक समान पुनर्वास किया गया था, तो अब क्यों नहीं ?

स्थानीय लोगों को संदेह है कि बांग्लादेश से शेष १.५ करोड़ हिंदू संशोधित नागरिकता कानून के कारण आसाम में प्रवेश करेंगे, और अगर ऐसा होता है, तो स्थानीय भूमिपुत्र ही पूर्वोत्तर भारत में अल्पसंख्यक बन जाएंगे। इससे असम में असमिया बनाम बंगाली के साथ – साथ ब्रह्मपुत्र घाटी बनाम बराक घाटी में तनाव पैदा हो सकता है। हालांकि यह धारणा गलत है क्योंकि वे देश के अन्य हिस्सों में भी बसाये जायेंगे।

अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों पर होने वाले अन्याय – अत्याचार का पर्दाफाश करना बेहद जरुरी है। इसके लिए, बिल का विरोध करने वाले राजनीतिक दलों पर दबाव डालकर उन्हें नागरिकों के हितों की रक्षा करने हेतु बाध्य किया जाना चाहिए।

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