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बाधा बनते छद्म पर्यावरण आंदोलन

बाधा बनते छद्म पर्यावरण आंदोलन

by प्रमोद भार्गव
in पर्यावरण, फरवरी 2020 - पर्यावरण समस्या एवं आन्दोलन विशेषांक
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छद्म पर्यावरण संगठनों की पूरी एक श्रृंखला है, जिन्हें समर्थक संस्थाओं के रूप में देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों ने पाला-पोसा है। ऐसे संगठन हमारे आर्थिक विकास की गति को रोक रहे हैं। उन्हें खोजकर उन पर अंकुश लगाया जाना चाहिए।

विकास संबंधी परियोजनाओं के लिए कथित पर्यावरण सरंक्षण संबंधी आंदोलन बाधा बनते रहे हैं। जबकि ऐसा नहीं है कि विकास और पर्यावरण सरंक्षण परस्पर विरोधी हैं। परियोजनाओं का विरोध स्वयंसेवी संगठन करें या पर्यावरणविद् यह तब शुरू होता है, जब जमीन पर इनका क्रियान्वयन शुरू होने लगता है। साफ है, ऐसे विरोधों की मंशा राष्ट्रहित में होने की बजाय उन देश और संस्थाओं के हित में होती है, जो भारत को शक्ति-संपन्न देश बनने देना नहीं चाहते हैं। दिल्ली मेट्रो आधुनिक विकास का ऐसा अनूठा उदाहरण है, जो जनता के लिए सुविधाजनक भी रही और पर्यावरण का सरंक्षण भी किया। करीब 20 साल पहले शुरू हुई इस परियोजना में अब तक 311 किलोमीटर के विस्तार में 274 स्टेशन बन चुके हैं। इस हेतु बड़ी संख्या में पेड़ काटे गए, लेकिन पांच गुना अधिक पेड़ लगाए भी गए। इससे तय होता है कि विकास पर्यावरण का शत्रु नहीं है।

पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने कुडनकुलम परमाणु विद्युत परियोजना का विरोध करने वाले लोगों पर आरोप लगाया था कि इन आंदोलनकारियों के पीछे जो एनजीओ हैं, उन्हें अमेरिका व अन्य पश्चिमी देशों से आर्थिक मदद मिल रही है और वे इस राशि का उपयोग देश हित में नहीं कर रहे हैं। तमिलनाडु के कुडनकुलम परमाणु विद्युत संयंत्र को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा हरी झण्डी मिलने के बाद ही तय हो गया था कि अन्य परमाणु बिजली घर लगाए जाने का सिलसिला तेज हो जाएगा। हालांकि कुडनकुलम परियोजना रूस के सहयोग से लगाई गई है। इसकी खासियत है कि यह परियोजना अमेरिकी कंपनियों की तुलना में सस्ती है।

इसी तरह मध्य-प्रदेश में मण्डला और शिवपुरी जिलों में परमाणु विद्युत परियोजनाएं प्रस्तावित हैं। शिवपुरी में अभी भूमि अधिग्रहण की कार्रवाई शुरु नहीं हुई है, लेकिन मण्डला जिलें में लगने वाली चुटका परमाणु परियोजना की कार्रवाई जबरदस्त जन-विरोध के बावजूद प्रदेश सरकार कछुआ गति से आगे बढ़ा रही है। हालांकि चुटका के लोग नए भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत चार गुना मुआवजा मिलने की लालच में परियोजना के समर्थन में हैं। लेकिन वामपंथी संगठन और एनजीओ इस परियोजना का विरोध कर रहे हैं। हालांकि यहां के बहुसंख्यक गोंड जनजाति के आदिवासी इस परियोजना के खिलाफ हैं। यदि परमाणु संयंत्र स्थापित होता है तो मण्डला जिले के 54 गांवों की करीब सवा लाख आबादी को विस्थापित होना पड़ेगा। जबकि कुल 165 गांवों के लोग प्रभावित होंगे। यह परियोजना नर्मदा नदी के किनारे लगाई जा रही है। केंद्र सरकार ने वर्ष 2009 में मंडला जिले के चुटका में परमाणु बिजलीघर लगाने की मंजूरी प्रदान की थी। 20 हजार करोड़ की इस परियोजना के तहत सात-सात सौ मैगावाट की दो इकाइयां लगनी हैं। इसके लिए चुटका, टाटीघाट, कुंडा और मानेगांव की लगभग 497 हेक्टेयर जमीन का अधिग्रहण किया जाना है। इसमें 288 हेक्टेयर जमीन निजी खातेदारों की और 209 हेक्टेयर जमीन राज्य सरकार के वन विभाग और नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की है। राज्य सरकार ने जन सुनवाई के जरिए भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरु कर दी है। लेकिन विरोध के चलते बाधाएं पीछा नहीं छोड़ रही हैं। एनजीओ के विरोध के चलते ही भारत से पास्को, लवासा, वेदांता जैसी कंपनियां अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर लौट गई हैं। इससे जहां अर्थ व्यवस्था प्रभावित हुई वहीं इन परियोजनाओं के तहत जो रोजगार मिलने थे, वे भी नहीं मिल पाए। गाहे-बगाहे मेधा पाटकर और अरुधंती राय जैसे स्वयंसेवी भी इन योजनाओं में बाधा बनकर आड़े आ जाते हैं। नर्मदा सागर परियोजना को भी इन्होंने लंबे समय तक प्रभावित किया था।

जबकि आधुनिक अथवा नवीन स्वयंसेवी संगठनों को सरकार की जटिल शासन प्रणाली के ठोस विकल्प के रूप में देखा गया था। उनसे उम्मीद थी कि वे एक उदार और सरल कार्यप्रणाली के रूप में सामने आएंगे। चूंकि सरकार के पास ऐसी कोई जादू की छड़ी नहीं होती कि वह हर छोटी-बड़ी समस्या का समाधान कर सके। इस परिप्रेक्ष्य में विकास संबंधी कार्यक्रमों में आम लोगों की सहभागिता की अपेक्षा की जाने लगी और उनके स्थानीयता से जुड़े महत्व व ज्ञान परंपरा को भी स्वीकारा जाने लगा। वैसे भी सरकार और संगठन दोनों के लक्ष्य मानव के सामुदायिक सरोकारों से जुड़े हैं। समावेशी विकास की अवधारणा भी खासतौर से स्वैच्छिक संगठनों के मूल में अतर्निहित है। बावजूद प्रशासनिक तंत्र की भूमिका कायदे-कानूनों की संहिताओं से बंधी है। लिहाजा उनके लिए मर्यादा का उल्लंघन आसान नहीं होता। जबकि स्वैच्छिक संगठन किसी आचार संहिता के पालन की बाध्यता से स्वतंत्र हैं। इसलिए वे धर्म, सामाजिक कार्यों और विकास परियोनाओं के अलावा समाज के भीतर मथ रहे उन ज्वलंत मुद्दों को भी हवा देने लग जाते हैं, जो उज्ज्वल भविष्य की संभावनाओं और तथाकथित परियोजनाओं के संभावित खतरों से जुड़े होते हैं।

कुडनकुलम और चुटका परमाणु परियोजनाओं के विरोध में लगे जिन विदेशी सहायता प्राप्त संगठनों पर सवाल खड़े किए गए थे, वे इस परियोजना के परमाणु विकिरण संबंधी खतरों की नब्ज को सहलाकर ही अमेरिकी हित साधने में लगे थे। जिससे रूस के रिएक्टरों की बजाय अमेरिकी रिएक्टरों की खरीद भारत में हो। ऐसे छद्म संगठनों की पूरी एक श्रृंखला है, जिन्हें समर्थक संस्थाओं के रूप में देशी-विदेशी औद्योगिक घरानों ने पाला-पोसा है। चूंकि इन संगठनों की स्थापना के पीछे एक सुनियोजित प्रच्छन्न मंशा थी, इसलिए इन्होंने कार्पोरेट एजेंट की भूमिका निर्वहन में कोई संकोच नहीं किया, बल्कि आलिखित अनुबंध को मैदान में क्रियान्वित किया। पश्चिमी देश अपने प्रच्छन्न मंसूबे साधने के लिए उदारता से भारतीय एनजीओ को अनुदान देने में लगे हैं। ब्रिटेन, इटली, नीदरलैण्ड, स्विटजरलैण्ड, कनाड़ा, स्पेन, स्वीडन, आस्ट्रेलिया, बेल्जियम, फ्रांस, ऑस्ट्रिया, फिनलैण्ड और नार्वे जैसे देश दान दाताओं में शामिल हैं। आठवें दशक में इन संगठनों को समर्थ व आर्थिक रूप से संपन्न बनाने का काम काउंसिल फॉर एडवांसमेंट ऑफ पीपुल्स एक्शन (कपार्ट) ने भी किया। कपार्ट ने ग्रामीण विकास, ग्रामीण रोजगार, महिला कल्याण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा साक्षरता, स्वास्थ्य, जनसंख्या नियंत्रण, एड्स और कन्या भ्रूण हत्या के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए संगठनों को दान में धन देने के द्वार खोल दिए। पर्यावरण संरक्षण एवं वन विकास के क्षेत्रों में भी इन संगठनों की भूमिका रेखांकित हुई।

भूमण्डलीय परिप्रेक्ष्य में नव उदारवादी नीतियां लागू होने के बाद और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में आगमन का सिलसिला परवान चढ़ने के बाद तो जैसे एनजीओ के दोनों हाथों में लड्डू आ गए। खासतौर से दवा कंपनियों ने इन्हें काल्पनिक महामारियों को हवा देने का जरिया बनाया। एड्स, एंथ्रेक्स और वर्ल्ड फ्लू की भयावहता का वातावरण रचकर एनजीओ ने ही अरबों-खरबों की दवाएं और इनसे बचाव के नजरिए से ‘निरोध’ (कण्डोम) जैसे उपायों के लिए बाजार और उपभोक्ता तैयार करने में उल्लेखनीय किंतु छद्म भूमिका का निर्वहन किया। चूंकि ये संगठन विदेशी कंपनियों के लिए बाजार तैयार कर रहे थे, इसलिए इनके महत्व को सामाजिक ‘गरिमा’ प्रदान करने की चालाक प्रवृत्ति के चलते संगठनों के मुखियाओं को न केवल विदेश यात्राओं के अवसर देने का सिलसिला शुरू हुआ, बल्कि अंतरराष्ट्रीय मान्यता देते हुए इन्हें राष्ट्रसंघ द्वारा आयोजित विश्व सम्मेलनों व परिचर्चाओं में भागीदारी के लिए आमंत्रित भी किया जाने लगा। इन सौगातों के चलते इन संगठनों का अर्थ और भूमिका दोनों बदल गए। जो सामाजिक संगठन लोगों द्वारा अवैतनिक कार्य करने और आर्थिक बदहाली के पर्याय हुआ करते थे, वे वातानुकूलित दफ्तरों और लग्जरी वाहनों के आदी हो गए। इन संगठनों के संचालकों की वैभवपूर्ण जीवन शैली में अवतरण के बाद उच्च शिक्षितों, चिकित्सकों, इंजीनियरों, प्रबंधकों व अन्य पेशेवर लोग इनसे जुड़ने लगे। इन वजहों से इन्हें सरकारी विकास एजेंसियों की तुलना में अधिक बेहतर और उपयोगी माना जाने लगा। देखते-देखते दो दशक के भीतर ये संगठन सरकार के समानांतर एक बड़ी ताकत के रूप में खड़े हो गए। बल्कि विदेशी धन और संरक्षण मिलने के कारण ये न केवल सरकार के लिए चुनौती साबित हो रहे हैं, अलबत्ता आंख दिखाने का काम भी कर रहे हैं।

भारत में स्वैच्छिक भाव से दीन-हीन मानवों की सेवा एक सनातन परंपरा रही है। वैसे भी परोपकार और जरूरतमंदों की सहायता भारतीय दर्शन और संस्कृति का अविभाज्य हिस्सा है। पाप और पुण्य के प्रतिफलों को भी इन्हीं सेवा कार्यों से जोड़कर देखा जाता है। किंतु स्वैच्छिक संगठनों को देशी-विदेशी धन के दान ने इनकी आर्थिक निर्भरता को दूषित तो किया ही, इनकी कार्यप्रणाली को भी अपारदर्शी बनाया है। इसलिए ये विकारग्रस्त तो हुए ही अपने बुनियादी उद्देश्यों से भी भटक गए। कुडनकुलम में जिन संगठनों पर कानूनी शिकंजा कसा गया था, उन्हें धन तो विकलांगों की मदद और कुष्ठ रोग उन्मूलन के लिए मिला था, लेकिन इसका दुरूपयोग वे परियोजना के खिलाफ लोगों को उकसाने में कर रहे थे। इसी तरह पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद के न्यास ने विकलांगों के कल्याण हेतु जो धन भारत सरकार से लिया, उसका मंत्री जैसे दायित्व को संभाले हुए भी ठीक से सदुपयोग नहीं किया।

हमारे देश में प्रत्येक 40 लोगों के समूह पर एक स्वयंसेवी संगठन है, इनमें से हर चौथा संगठन धोखाधड़ी के दायरे में हैं। नरेंद्र मोदी सरकार जब केंद्र में आई तो उसने इन एनजीओ के बही-खातों में दर्ज लेखे-जोखे की पड़ताल शुरू कर दी। ज्यादातर एनजीओ के पास दस्तावेजों का उचित संधारण ही नहीं पाया गया। लिहाजा, ग्रामीण विकास मंत्रालय के अधीन काम करने वाले कपार्ट ने 1500 से ज्यादा एनजीओ की आर्थिक मदद पर प्रतिबंध लगा दिया और 833 संगठनों को काली सूची में डाल दिया है। इनके अलावा केंद्रीय स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक न्याय मंत्रालयों एवं राज्य सरकारों द्वारा काली सूची में डाले गए एनजीओं अलग से हैं। भू-मण्डलीकरण के पहले 1990 तक हमारे यहां केवल 50 हजार एनजीओ थे जबकि 2012 में इनकी संख्या बढ़कर 3 करोड़ हो गई। इन संगठनों को देश के साथ विदेशी आर्थिक सहायता भी खूब मिल रही थी। 2009-10 मेें 14 हजार संगठनों को विदेशी धन दिया गया ऐसे में जरूरी हो जाता है कि इन छद्म संगठनों पर गंभीर नजर रखी जाए और यदि ये अपने उद्देश्य से भटकते हैं तो इन पर कानूनी शिकंजा कसा जाए।

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