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साधो ये जग बौराना

साधो ये जग बौराना

by अलका सिगतिया
in फरवरी 2020 - पर्यावरण समस्या एवं आन्दोलन विशेषांक, राजनीति, सामाजिक
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अचानक मां दहाड़ मार कर रो दी, क्योंकि उसके कुछ और बच्चों ने मौत को गले लगा लिया था। हमारी जेब में तीन फोन थे, एक लैफ्ट का, एक राइट का, एक लैफ्टाइट का। तीनों बज रहे थे। उस मां की आंखों के आंसू न जाने कैसे हमारी आंखों तक पहुंच गए। ‘साधो ये जग बौराना” कहकर रोते हुए हम उस मां के चरणों में झुक गए…

आजकल देश के हालात देखकर कबीर दास की यह पंक्ति बहुत याद आ रही है- ‘साधो ये जग बौराना’। इसलिए कि बिना किसी विवेक के देश की सम्पत्ति जलाई जा रही है, मार-पिटाई हो रही है। पर सच बताएं हमारे लिए तो मौजा ही मौजा है। पूछो क्यों –

क्योंकि हम अपने दोनों हाथों में लड्डू रखते हैं। काहे कि जब हम पैदा हुए थे, तो दादी बोली कि बच्चे को संस्कार पैदा होते से ही देवे पड़त हैं। शहद चटा के ओम् बोलेंगे, तो शांत आत्मा बन जावेगा। बड़े दोनों को हम ओम् बोले तो वो बिचारे गौ से सीधे बन गए। ई बिटियां को हम ऐसा न बनाएंगे।

और बस हमारी दोनों छोटी-छोटी मुट्ठियों दो लड्डू रख दिए गए। तब से हम अपनी दानों मुट्ठियों में लड्डू रखते आ रहे हैं।

अब दादी की याद आते ही हमारी बोली भी दादी जैसी हो जाती है, कहीं हिंदी निकल आएगी, तो कहीं बघेली निकल जाएगी तो कहीं खिचड़ी बन जाएगी।

तो दोनों हाथन में लड्डू रखने का संस्कार आज की दुनिया में बड़ा काम आ रहा है। पक्ष भी अपना, विपक्ष भी अपना। हम राजनीति के सारे पैंतरे खूब समझते हैंगे। ये कहबे कि गलती कबहू नहीं करते हैं – “संतन सों कहा सीकरी सों काम”। हमें तो दिल्ली से बहुतई लगाव है जी। हम तो इतना जानते हैं,चित भी अपना, पट भी अपना। हमने हड़तालों में, अनशन में, दंगों में सबई जगह अपना रजिस्ट्रेशन करा रखा है। जो चाहे हमें किराए पर उठा सकते हैं। पैसा मिले तो जो चाहे हमसे अपने पक्ष में नारे लगवा लें। एक रात पक्ष के दंगाइयों संग, दूसरी रात विपक्षी दंगाइयों संग।

महंगाई की मार जो ना कराए थोड़ा हैगा जी। हम कबहु नई कहते कि “पईसा हाथ का मैल है।” भैय्या आज तो जिसकी अंटी में जी पइसा, उसी का जीवन बस जीने जईसा।”

आजकल तो रातों में भी हम जगते हुए सोते हैंगे, काहे कि हमारी सरकार बड़ी मस्तैद हैगी। रात में भी काम करती है जी। सारे बड़े निर्णय रातई में लेती है जी। बहुत दिनन से हाथन में खुजली आ रई थी। सी.ए.ए., कैब, एनआरसी जैसा कुछ हल्लागुल्ला मच गया हैगा। इसका मतलब वतलब हमाई समझ में नई आता। अंग्रेजी के ए.बी.सी.डी. जैसा कुछ लगता है। हम तो सी फॉर कैट, ए फॉर एप्पल कहकर नाचते रहे, न जाने अब सब काहे लड़ रए हैंगे। हमें का करने, हमें तो नाम और दाम कमाने का मौका हाथ लग गया हैगा जी। इस बार दंगे करना सेफ भी लग रया है जी। पूछो क्यों?-

काहे कि नकाब पहनबे की छूट जो मिल गई। पर अगर नकाब ना पहनना हो तो, तो दूसरा फायदा भी हैगा जी। काहे ऐसे विरोध जब होत है न, तो पूरा देस, और दुनिया में आपका नाम फैल जात है। हम सच्ची कह रहे हैं। बताओ कन्हैया को आज सब जानत हैं कि नई? जेएनयू की आइसी (आइशी), एक रात में हिरोईन बन गई कि नई? बालीवुड की बड़ी-बड़ी हीरोईन छपाक करके उनसे मिलबे पहुंचती हैं। बाई गॉड बड़े पुन्य करे होंगे। कास हमारी बी कोई फेस वेल्हू बन जाए। पार्टी कौनो हो, लैफ्ट या राइट, हम भी रातोंरात फेमस हुई जाएं।

हमारी प्रोफेसर पड़ोसन कहती हती कि “ये सरकार क्या कर रही है? इस तरह बिना समझाए बताए, कुछ भी कानून बना लेती है।” बोलीं कि पहले लोगों को समझाए, बुझाए, नींद से उठाकर पानी बीनी पिलाए, पर नई भाई! सीधे उठाई कानून की दुनाली और दाग दई ढांय से।

हम तो समझबे की बड़ी कोसिस करी ये का कहना चाह रही हैं, हमाई समझई नई आता। काहे कि हमको कड़े-कड़े नोट की बात समझ आती हैगी।

पैसे लेके हर जगह आवाज करने पहुंच जाते हैंगे। ले भई, हवो ऐसा थोड़ई है कि हमको कोई कुछ नई कहता। राइट वाले बोले “बिकाऊ टट्टू, तुम्हें कुछ पता है, हमारी सरकार ने पाकिस्तान और बंगलादेश का मुंह बंद कर दिया है। हमारे अल्पसंख्यक हिंदू भाई वहां किन हालात में हैं। समझो सरकार की दूरदृष्टि को।” फिर हमें डपट के बोले –

देशद्रोही हो तुम, लैफ्ट के संग नारे लगाती हो, दुष्यंत, फैज़ के गीत गाती हो। बॉलीवुड के हीरो, हिरोईन संग फ्रेम में आती हो।”

सच कहें एक बार देशप्रेम की भावना का उबाल उठा हमारे अंदर भी। पर फिर हम बोल गए, देखो, राइटी जी, हम तो बालीवुड वालन के दीवाने हैं। भगवान छप्पर फाड़ के उनको इन प्रदर्सनों में गिरा रहा है, तो हम काहे न उनके संग फोटू खिंचाएं? प्रचार पाएं, वो भी तो प्रचार के लाने आते हैं।

इस बात पे वे खुस हुए अउर बोले ‘हां सही बोले, वे प्रचार के लिए आते हैं।’

हमारे पीछे लैफ्टी मैडम खड़ी रहीं, डपटने लगीं-‘बिकाऊ लुड़कनी पेंदी शर्म आनी चाहिए तुम्हें, उनकी सच्ची भावना को झूठ कहते हुए। उन पर इल्ज़ाम लगाते हुए।’ हम कहे- ‘मैडम जी वो लोग भी तो एक दूसरे पे इलज़ाम लगा रै हैंगे जी।’

मैडम जी चिल्लाई – ‘तुम ज़ाहिल हो, देखो उस हीरोईन के चेहरे को, तुम्हें कहीं से वो झूठी लगती है?’ हमने देखा, बाई गॉड, देखकर खुदई पर ग्लानि हो आई। सोचा सबकी पेशगी लौटा दें। पर सामने चाट का ठेला देखके लार टपक आई, मन की बात मन में दबाई, खूब दबाके चाट खाई। दूसरे दिन प्रदर्सनकारियों में न जाने कैसे, बाजू के मोहल्ले की पत्रकार मैडम ने देख लिया। रात को अपने घर खाने पर बुला लिया जी। हमको भी बढ़ियां खाना खिलाके वो मैडम जी बोलीं-

देखो लुड़कनी पेंदी की लोटी तुम बहुत ताकतवर हो, तुम फासिस्ट ताकतों का साथ दे रही हो। अपने आपको देशप्रेमी कहते हो, अपने ही देश के लोगों पर हमले कर रहे हो। मैडम जी आपने हमारा एकई रूप देखा है। हम ये भी जानते हैंगे। मौलिक बता रहा था कि देश के शरीर का बायां हिस्सा अपनी ताकत खो चुका है। कोई नेता नई बचा, कोई दिशा नई है। तो उसको ताकतवर बनाना भी हम अपना फर्ज समझते हैं जी। बड़े दिनों में गुफा से बाहर निकला है, बांया हिस्सा। पैसे लेकर हम उसको भी ताकत देते हैं। आपने वो तो नई ना देखा ना।

तो बैठो समझा, सरकार क्या कहना चाहती है? पर नहीं वो तो कैसे करोगी? कितनी बिकाऊ हो तुम। किसी में तुम्हारी आस्था नहीं। मैडम जी आज हर कोई अपना फायदा देखता है। वैसे ये हमारा नई हमारी लुड़कनी पैंदी का कसूर है। हमारी तशरीफ, पेंदी के बिना टिकती नई हैगी।

हम तुम्हारी तशरीफ में पेंदी ठुकवा देंगे। हमने गंभीरता से कहा तशरीफ में पेंदी ठुकने की कीमत?

मुस्कुराकर वो लोग बोले हां मिलेगी। पद या पैसा जो चाहो।

हम बाहर निकलने लगे। तो हरी, नीली, लाल, नारंगी, कुर्ता पहने एक सज्जन पीछे आ गए। एक कोई हाथ में कारड (कार्ड) पकड़ा कर बोले फायदे का सौदा है, बात करना।

हमारे पेट में गुड़-गुड़, होने लगी बात करने की। मौलिक ने कहा -जिज्जी आज बात ना करना। अभी टुन्न होके पड़े होंगे वे सज्जन।

दूसरे दिन दस बजे उनने फोन उठाया अब बी कुछ लड़खड़ाती आवाज में बोले न लैफ्ट में जाओ, न राइट में, हम लैफ्टाइट हैं – हमारे संग आओ, हमारी ताकत बढ़ाओ, तुम जैसी बिकाऊ लुड़कनी पेंदी की बहुत डिमांड है। हम उनके घर खाना खाके खीसे में पैसे दबाके निकल रहे थे कि एक औरत को रोते देखा, पूछा

का हुआ माई?

बोली- मेरा एक बेटा लैफ्ट में है, एक राइट में, दोनों मारकाट में घायल होके अस्पताल में पड़े हैं। फोटो दिखाई तो, हमारा कलेजा मुंह को आया, अरे इनको तो हमने डण्डे मारे थे। साधो, जब हम गंभीर होते है, दादी की आत्मा निकल जाती है, सीधी भाषा निकलने लगती है। हम अब गंभीर हो गए थे।

कुछ वे और मांए पास आ गईं। वे सब एक में समा गईं।

माई आप कौन हैं, रो क्यों रही हैं? मैं भारत मां हूं। अपने बहुत से बच्चों की मौत पे रो रही हूं। अपने वर्तमान और भविष्य पर रो रही हूं।

कौन से बच्चे मर गए मां।

लो देखो – मां ने चित्र दिखाया।

हमने देखे एन.सी.आर.बी. की रिपोर्ट, किसानों से ज्यादा बेरोजगार युवक आत्महत्या कर रहे हैं। हर तीन घंटे में दो-तीन युवक आत्महत्या कर रहे हैं। क्योंकि गरीब हैं, नौकरी नहीं। बदहाल थे। अरे तुम लोग सी.ए. कैब इन बातों को लेकर तोड़-फोड़ में लगे हो। मां बाप तो स्कूल कॉलेज में बच्चों को पढ़ने लिखने के लिए भेजते हैं। पर क्या कर रहे सब, मसले बातचीत से भी तो सुलझते हैं। पर तुम सबके सब अपने मतलब की रोटियां सेक रहे हो। शर्म आती है मुझे ऐसी औलादों पर लुड़कनी पेंदी, आज तुम्हारे जैसों के कारण देश का विकास रुका है। आम आदमी के टैक्स के पैसों से जो विकास होता है, उसे आग लगाने का हक है क्या तुम्हें?

अचानक मां दहाड़ मार कर रो दी थी, क्योंकि उसके कुछ और बच्चों ने मौत को गले लगा लिया था। हमारी जेब में तीन फोन थे, एक लैफ्ट का, एक राइट का, एक लैफ्टाइट। तीनों बज रहे थे। मौलिक ने फोन निकालकर दिखाए। पर उस मां की आंखों के आंसू न जाने कैसे हमारी आंखों तक पहुंच गए, सारे नंबर धुंधला गए थे। ‘साधो ये जग बौराना” कहकर रोते हुए हम उस मां के चरणों में झुक गए थे।

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