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जनजाति के लिए प्रकृति ही धर्म है

जनजाति के लिए प्रकृति ही धर्म है

by महेश काले
in पर्यावरण, फरवरी 2020 - पर्यावरण समस्या एवं आन्दोलन विशेषांक
1

पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में अपने देश की प्राचीन सभ्यता से कहीं भटकने का डर हमें अस्वस्थ कर रहा है। ऐसी स्थिति में केवल जनजाति समाज और उसकी आदर्श पर्यावरण पूरक जीवनशैली ही हमें फिर से अपने मूल मार्ग पर लाने के लिए सक्षम  है।

हिंदू धर्म यानी आस्था… हिंदू धर्म यानी प्रेम, विश्वास …हिंदू धर्म यानी प्रकृति से एकात्मता का भाव और हिंदू धर्म यानी पर्यावरण की रक्षा। इन सबको एकत्रित रूप से अगर हम देखेंगे तो उसी से हिंदुत्व की एक विशाल अवधारणा हमारे सामने निर्माण होती है। हिंदुत्व की इस अवधारणा को अगर कहीं देखना है या उसकी अनुभूति करना है तो हमें अपने जनजाति क्षेत्र में जाना होगा। भारत में रहने वाला 10 करोड़ से ज्यादा जनजाति समाज हिंदुत्व की इसी पर्यावरण पूरक अवधारणा का एक जीता जागता स्वरूप है। जल, जमीन, जंगल, जानवर और सृष्टि के सभी जीव जंतुओं में साक्षात भगवान देखने वाला जनजाति समाज प्रकृति का सच्चा संरक्षक है ऐसा हम निर्विवाद रूप से कह सकते हैं। यह पांच तत्वों का मोल मानो जनजाति समाज के लिए अपने प्राणों से भी बढ़ कर है। जनजाति समाज की कई पीढ़ियां इस प्रकृति के सानिध्य में फलीफूलीं और बड़ी हुईं। मैं या मेरा समाज आज जो कुछ भी है वह केवल और केवल प्रकृति की देन है ऐसा जनजाति समाज का श्रद्धाभाव है इसी कारण प्रकृति का संरक्षण और उसका संवर्धन करने के लिए जनजाति समाज हमेशा प्रयत्नशील रहता है।

यह वास्तविकता है कि आज भारत में जो वन क्षेत्र बचा हुआ है उसका संपूर्ण श्रेय जनजाति समाज को जाता है। प्रकृति को अपने प्राणों से बढ़ कर उसकी रक्षा करने वाला जनजाति समाज अगर इन जंगलों में ना रहता तो अब तक शायद पूरा वन क्षेत्र अंतिम सांस लेता हुआ हम देख सकते थे। लेकिन जनजाति समाज ने इस पर्यावरण और प्रकृति को बचाए रख कर इस प्रकृति के और इस देश के विकास के लिए बहुत बड़ा योगदान दिया है ऐसा हम कह सकते हैं। इसी कारण संपूर्ण देश ने जनजाति समाज के प्रति कृतज्ञता रखने की आवश्यकता है।

जनजाति समाज का पूरा जीवन मानो पर्यावरण की रक्षा को समर्पित है। उसका व्यवहार, उसका घर, उसकी खेती, उनकी जीवनशैली सबकुछ पर्यावरण पूरक है। जनजाति समाज का घर हम देखेंगे तो जिसमें जंगल से प्राप्त जैसे बांबू, घास, लकड़ी आदि का उपयोग किया जाता है। अपने स्वयं के लिए प्रकृति का शोषण करने की प्रवृत्ति इस समाज में नहीं के बराबर है। जनजाति समाज का पूरा जीवन जंगल पर निर्भर है। जनजाति समाज का योग्य तरह से पोषण करे इतनी विपुल संपदा इन वनों में है। अपनी यह संपदा मुक्त हस्त से प्रकृति इस समाज को प्रदान करती है। इसी कारण शोषण की बजाय प्रकृति के दोहन की तरफ ध्यान का जनजाति समाज का एक सहज स्वभाव बन गया है। अपने स्वयं के दैनंदिन जीवन के लिए आवश्यक लकड़ी वह प्राप्त करेगा लेकिन वह किसी पेड़ को नहीं तोड़ेगा, तो जंगल में पड़े हुए पत्ते या सुखी लकड़ी का वह इस्तेमाल करेगा। अपने जंगल के हम मालिक है तो इसकी रक्षा एवं संवर्धन का दायित्व भी हमारा बनता है ऐसी विश्वस्त की भावना इस समाज के मन में बसी है यह हम महसूस कर सकते हैं।

जमीन को जनजाति समाज में माता का स्थान है। यह धरती अपना पूरा भरण पोषण करती है इसलिए इस धरती की सेवा करना यह हमारा परम कर्तव्य है ऐसी जनजाति समाज के प्रत्येक घटक की मान्यता है। इसलिए जमीन करने से पहले या फसल लेने से पहले उसकी पूजा करने की पद्धति जनजाति समाज में प्रचलित है। देश भर की किसी भी जनजाति का भी हम अध्ययन करेंगे तो यह बात हमारे ध्यान मैं आएगी। उसको अगर हम संतुष्ट रखेंगे तो धरती हमें पर्याप्त अन्न देगी ऐसी उनकी धारणा है।

जल का महत्व जनजाति समाज भलीभांति जानता है। जल के सभी स्त्रोत जनजाति क्षेत्र में होने के कारण बहुत से बांध जनजाति क्षेत्र में बने हुए हैं। दुर्भाग्य से इन बांधों के लिए विस्थापित होने के बावजूद जनजाति समाज आज भी पानी के लिए तरसता हुआ हम देखते है। फिर भी, अपने व्यक्तिगत जीवन में जल का उपयोग कितनी बारीकी से करना चाहिए इसके लिए यह समाज जागरूक रहता है, क्योंकि जल का महत्व वह अच्छी तरह से समझ सकता है।

कुछ साल पहले की बात है। महाराष्ट्र के सुदूर जनजाति क्षेत्र के एक गांव में मुंबई के आईआईटी द्वारा पीने के पानी की व्यवस्था करने के प्रयास चल रहे थे। इस दरमियान हुई चर्चा में एक प्राध्यापक महोदय ने कहा कि पानी दूर से लाने के कारण इस गांव के लोगों में पानी का बारीकी से उपयोग करने की एक मानसिकता बनी हुई है लेकिन पानी नजदीक लाया गया तो उसका उपयोग ठीक तरह से नहीं हो पाएगा। क्योंकि एक वस्तु जब सहजता से प्राप्त होती है तब उस का अतिरिक्त उपयोग करना मनुष्य का एक स्वभाव है। इसी स्वभाव के अनुरूप इस गांव में भी ऐसा ही होगा ऐसा उनका अनुमान था। लेकिन कुछ महीनों के प्रयास के बाद इस छोटे से जनजाति गांव में पानी की व्यवस्था बनाने में आईआईटी सफल हुआ। कुछ दिन बाद कुछ प्राध्यापक यह प्रोजेक्ट देखने के लिए आए तो उनको आश्चर्य लगा क्योंकि दो-तीन किलोमीटर दूर से पानी लाने के बाद जिस बारीकी से वे पानी का उपयोग करते थे उसी प्रकार आज भी करते हैं ऐसा उन्होंने निष्कर्ष निकाला।

सुदूर जंगलों में रहने वाला लगभग 90 प्रतिशत जनजाति समाज कृषि पर निर्भर है। चूंकि जनजातीय क्षेत्रों में अधिकांश कृषि वर्षा पर निर्भर है, इसलिए वर्षा की कमी के कारण जनजाति किसान भी प्रभावित होते हैं। ओले गिरना, तूफान, बेमौसम बारिश, फसलों पर मंडराती आपदा जैसे अनेक संकटों का सामना जनजाति किसानों को भी करना पड़ता है। अगर एखाद साल बारिश नहीं हुई या फसल उगाने में कोई नुकसान पहुंचा तो जनजाति समाज आत्महत्या जैसा मार्ग कभी नहीं स्वीकार करेगा। आज प्रकृति ने कुछ नहीं दिया तो कल देगी ऐसी सहज भावना उसके मन में होती है।

जनजाति समाज की एक  विशेषता यह है कि उसने अपनी आवश्यकताओं को कमसे कम रखा है। जनजाति बंधु के घर में हम जाएंगे तो हमें आश्चर्य होता है कि इतने कम संसाधनों में वह अपना घर कैसे चलाता है? खाना बनाने के लिए घर में इतने कम बर्तन होते हैं कि शहरों में हमने कितना अनावश्यक सामान बढ़ाया है इसका एहसास हमें होता है। बर्तनों में ज्यादा से ज्यादा मिट्टी के बर्तन हम देख सकते हैं।

जनजाति समाज में जानवरों का स्थान परिवार के एक सदस्य का है। गाय, बैल, बकरी इतना ही नहीं तो कुत्ते, बिल्ली भी जनजाति परिवार के अभिन्न घटक हैं। अपने परिवार के योगक्षेम के लिए इन पशुओं का भी अनन्य साधारण योगदान ऐसी उनकी मान्यता है। इसलिए इनका भी पूरा ध्यान रखने की जनजाति समाज में मान्यता है।

वैसे देखा जाए तो प्रकृति पूजा हिंदू समाज की विशेषता है। वृक्ष, पेड़, नाग, जमीन, पर्वत, सूर्य, चन्द्र की पूजा हिंदू धर्म में सब जगह होती है। लेकिन जनजाति समाज प्रत्यक्ष प्रकृति के सानिध्य में रहने के कारण इस समाज की इन प्रतीकों के प्रति विशेष आस्था है। प्रकृति से सीधा संबंध होने के कारण इनके देव भी बाघ, नाग, सूर्य, चन्द्र ऐसे होते हैं। जिनकी आम हिंदू समाज भी श्रद्धा भाव से पूजा करता है।

हम जिस हिंदू संस्कृति या सभ्यता की बात करते हैं और जो संस्कृति चिर पुरातन होने पर हम गर्व महसूस करते हैं वह संस्कृति, परंपरा को अगर सही मायने में किसी ने संभल कर रखा है तो वह अपने जनजाति समाज ने रखा है। पर्यावरण जागरकता के लिए आज देशभर में ही नहीं तो पूरे विश्व में विभिन्न प्रयास जारी है। लेकिन पर्यावरण का सच्चा संरक्षक हमारा जनजाति समाज ही है। पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध में अपने देश की प्राचीन सभ्यता से कहीं भटकने का डर हमें अस्वस्थ कर रहा है। ऐसी स्थिति में केवल जनजाति समाज और उसकी आदर्श पर्यावरण पूरक जीवनशैली ही हमें फिर से अपने मूल मार्ग पर लाने के लिए सक्षम  है। सिर्फ यह विश्वास मन में संजोए रख कर हमें जनजाति समाज के प्रति समरसता का व्यवहार करना पड़ेगा।

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Comments 1

  1. हरिश गेनाजी पुरोहित says:
    5 years ago

    हमे बहुत अशा लगरा है मगर हमारे देश मुसलमानों की बढ़ति आबदी देस के लिये बर्बादी हैं इस लगाम जल्दी लगाय वरना भुगतेगा पूरा देश

    Reply

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