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मजदूरों का पलायन और हादसों बीच मौतों का काला सच!!!

मजदूरों का पलायन और हादसों बीच मौतों का काला सच!!!

by ऋतुपर्ण दवे
in ट्रेंडींग
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उन्हें गरीबी से नहीं बल्कि सिस्टम से शिकायत थी जिसकी आखिर वो भेंट चढ़ ही गए! दरअसल देश भर में मजदूरों के पलायन के पीछे के सच को भी जानना जरूरी है और यह भी कि सबसे ज्यादा मजदूर उत्तरी और उत्तर-मध्य भारत जिसमें बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के ही दूसरे प्रान्तों में कैसे पहुँच जाते हैं वह भी अनजान जगहों और कारखानों में?

औरंगाबाद रेल दुर्घटना ने कोरोना महामारी बीच हर किसी को बुरी तरह झकझोर दिया. बेवक्त 16 मजदूर काल के गाल में समा गए. कोई कहता वो मजबूर हैं तभी तो मजदूर हैं तो कोई वक्त का मारा बताता. कोई गरीबी को दोष मढ़ता तो कुछ पलायन पर ही सवाल उठाते. लेकिन यह कोई नहीं बताता कि वह स्वाभिमानी थे, मेहनतकश थे, उन्हें अपने पसीने से कमाए पैसों से पेट भरने की आदत थी. किसी के आगे हाथ नहीं पसारते थे. उन्हें गरीबी से नहीं बल्कि सिस्टम से शिकायत थी जिसकी आखिर वो भेंट चढ़ ही गए! दरअसल देश भर में मजदूरों के पलायन के पीछे के सच को भी जानना जरूरी है और यह भी कि सबसे ज्यादातर मजदूर उत्तरी और उत्तर-मध्य भारत जिसमें बिहार,उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ के ही
दूसरे प्रान्तों में कैसे पहुँच जाते हैं वह भी अनजान जगहों और कारखानों में?

पहले बात औरंगाबाद रेल दुर्घटना की. मारे गए सभी लोगों से मेरा करीबी नाता है, वो मेरे अपने इलाके के हैं. कई के गांव मैं जा चुका हूँ. सबके सब निरा आदिवासी. थोड़ा बहुत पढ़े थे, सीधे, सादे बेहद भोले और विनम्र इतने कि पूछिए मत. कुछ के पास थोड़ी सी जमीन थी जिसमें परिवार बढ़ने के साथ गुजारा नहीं हो पाया तो स्वाभिमान से परिवार के पेट की भूख मिटाने की खातिर बाहर निकल गए. मरने वालों में 11 एक ही जनपद जयसिंहनगर के आस- पड़ोस के गाँवों के, उसमें भी 7 एक ही परिवार के हैं दो तो सगे भाई भी. 4 उमरिया जिले के ने उसा गाँव के थे जबकि एक चिल्हारी गाँव का. यूँ तो पूरा क्षेत्र बल्कि देश-प्रदेश गमगीन था लेकिन जिन गाँवों में अंत्येष्टी होनी थी उसका मंजर शब्दों में बयाँ करना बहुत मुश्किल है. परिवार वाले तो शवों के पहुँचने के बाद भी चेहरे नहीं देख पाए. जहाँ शहडोल प्रशासन ने 11 मृतकों को गाँव से 1 किमी दूर जेसीबी से खुदे गढ़्ढ़ों में एक साथ दफनाने का इंतजाम किया जबकि परिजन चाहते थे कि प्रशासन को दफनाना ही है तो यह उनकी पैतृक भूमि पर ऐसा किया जाए. वहीं कुछ किमी दूर उमरिया के नेउसा में 4 तथा चिल्हारी गाँव में 1 चिता का अंतिम संस्कार किया गया. अब दो अलग तरीके क्यों अपनआए गए यह तो प्रशासन जाने लेकिन सरकार के शवों को घर तक पहुँचवाने की संवेदनशीलता तारीफ के योग्य है. हाँ परिवार को इच्छानुसार अंतिम क्रिया न करने की टीस ने हमेशा के लिए एक अलग ही दर्द शहडोल जिले के मृतक परिवारों को जरूर दे दिया. इस पर भी सवाल उठ रहे हैं, उठने भी चाहिए. एक ही हादसा और अंतिम संस्कार के दो अलग तौर तरीके?

सवाल फिर वही कि मजदूरों का काम के लिए घरों से पलायन आखिर कैसे होता है? अब वक्त आ गया है कि इस पर सोचना ही होगा. उसमें भी केवल उत्तर और उत्तरी भारत के 5 प्रान्तों के मजदूर ही ज्यादातर पलायन करते हैं. पलायन दो तरीके से होता है. पहला मजदूर एक प्रान्त से दूसरे प्रान्तों में जाते हैं जिसे एक्सचेंज ऑफ लेबर भी कह सकते हैं. जबकि दूसरा यहीं के मजदूर बड़ी संख्या में दूसरे राज्यों और मेट्रोपोलिटन शहरों में भी जाकर काम करते हैं. इनमें दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, चेन्नई, सहित पंजाब, जम्मू-कश्मीर, महाराष्ट्र, गोवा यानी पूरे देश में कहीं भी काम को चले जाते हैं. अब फिर सवाल कि कम पढ़ा लिखा और सीधा आदिवासी तबका कैसे बड़े शहरों की चकाचौंध में काम तलाश लेता है? बस यहीं से शुरू होता है पलायन का असली सच. सच को जानने से पहले यह भी समझना जरूरी है कि आखिर क्यों सरकारों, जिला प्रशासन जहाँ काम के लिए पहुँचते हैं वहाँ भी इनकी पूरी जानकारी किसी को क्यों नहीं होती है? हैरानी की बात है कि जो बातें पलायन करने वालों के गाँवों से लेकर उनके गृह जिलों तक में खुले आम सुनने को मिलती है उससे स्थानीय प्रशासन और श्रम विभाग कैसे बेखबर
रहता है?

जहाँ तक मैने अपने क्षेत्र में देखा है अकेले शहडोल संभाग से ही हजारों की तादाद में मजदूरों को बाहर पलायन के लिए कुछ लोग उकसाते हैं. इसके लिए एक संगठित गिरोह काम करता है जिसके बाहर जबरदस्त नेटवर्क होते हैं. इन्हें स्थानीय भाषा में दलाल या ठेकेदार कहते हैं. ये बाहर के उद्योगों, कारखानों, निर्माण कंपनियों और दीगर जरूरत मंदों को उनकी डिमाण्ड
के मुताबिक मजदूरों की सप्लाई करते हैं जिसके बदले ऐसे दलालों को प्रति मजदूर 5 से 7 हजार रुपए तक मिलते हैं. इसी कारण कुछ विशेष क्षेत्रों से पलायन कहें मानव तस्करी का यह कारोबार तेजी से फैल रहा है जिससे तमाम सरकारें बेखबर हैं. औरंगाबाद रेल हादसे में मारे गए मजदूर भी दलालों के जरिए ही गए थे. इन दलालों पर क्या कार्रवाई होगी यह तो सरकार
जाने लेकिन जम्मू में शहडोल जिले के सैकड़ों मजदूर अभी भी घर वापसी के लिए पहले लॉकडाउन के बाद से ही कोशिशों में लगे हुए हैं. ऐसे 62 मजदूरों का एक जत्था अखनूर के मांड़ा गाँव में फंसे हैं और घर वापसी हेतु जनप्रतिनिधियों तथा गृह जिला के प्रशासन से गुहार लगा चुके हैं. जिन्हें सिवाए आश्वासन के अब तक कुछ नहीं मिला. ऐसे ही एक मजदूर दयाराम
ने फोन पर बताया कि खाने का स्थानीय इंतजाम अच्छा है और उनके खातों में एक हजार रुपए भी आ गए हैं लेकिन कब वापसी होगी कुछ पता नहीं.

सच तो यह कि मजदूरों को तरह-तरह के सब्ज बाग दिखाए जाते हैं. बहला-फुसलाकर किसी कारखाने, सेठ या वहाँ के दलालों के सुपुर्द कर दिया जाता है जो इन्हें एक तरह से कब्जे यानी अपहरण वाली स्थिति में रखते हैं. महीनों काम कराते हैं. केवल खाने के लिए पैसे देते हैं. साल में एक बार लौटने को मिलता है तब रोकी गई पगार जरूर देते हैं उसमें भी कुछ हिस्सा दबा लेते हैं ताकि मजबूर मजदूर दोबारा वहीं लौटे. कई पाठकों ने इटारसी, कटनी, सतना, जबलपुर, बिलासपुर, दिल्ली और तमाम स्टेशनों पर छुट्टियों के दिनों में ट्रेन सफर के दौरान ऐसे प्रवासी मजदूरों की भीड़ देखी होगी. कटनी में तो बहुत ही ज्यादा होती है जो छत्तसीगढ़ की ओर कूच करते हैं और ट्रेनों में जानवरों से भी बदतर स्थिति में भर यात्रा करते हैं.

इन परिस्थितियों में कुछ सवाल उठते हैं एक तो यह कि राज्यों में आपसी एक्सचेंज ऑफ लेबर रोका जाए. इन्हें अपने राज्यों में ही काम के लिए प्रेरित किया जाए. क्षेत्रीय मजदूरों को भी वही मजदूरी मिले जो दूसरे राज्यों के मजदूर को दी जाती है. दूसरा यह कि तुरंत एक नीति बने जिसमें एक राज्य से दूसरे राज्य जाने वाले मजदूरों को बिना पंजीयन काम न मिले और एक नेशनल पोर्टल हो जिसमें सारे मजदूरों का डेटाबेस इकट्ठा किया जाए एक यूनिक आईडी जेनरेट हो ताकि देश के कोने-कोने में काम कर रहे एक-एक मजदूरों का सारा रिकॉर्ड अपडेट होता रहे जिससे राज्य, जिला, ग्रामवार सूचियाँ एक क्लिक पर मिल सकें. कोरोना संक्रमण के दौरान विभिन्न राज्यों में वापसी करने वाले मजदूरों के लिए हालांकि कई राज्यों ने हेल्पलाइन नंबर और पोर्टल खोले हैं पर यह सच भी समझना होगा कि वो मजदूर हैं और ज्यादातर एंड्रॉयड मोबाइल रखकर भी पंजीयन व संपर्क करने में अक्षम होते हैं क्योंकि मोबाइल का उपयोग केवल मनोरंजन और घर-परिवार से बात के लिए करते हैं.

औरंगाबाद हादसे के अलावा भी मजदूरों की कहीं सड़क हादसे में तो कहीं बीमारी से मौतों का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है. गैर सरकारी आंकड़े बताते हैं कि आधा सैकड़ा मजदूर कहीं न कहीं किसी न किसी कारण से रोज दम तोड़ रहे हैं. निश्चित रूप से यह आंकड़ा दो हजार पार कर चुका होगा. ऐसे में यदि सारे मजदूरों का एक डेटाबेस होता तो उन्हें, उनके नियोक्ताओं और वहाँ की राज्य सरकारों को संदेश, सूची व कार्यस्थल की जानकारी देकर रोकने या निकलने की बेहतर व्यवस्था की जा सकती थी. अभी भी वक्त है जब इस पर अमल हो ताकि जहाँ मजदूरों के दलाल दूसरे शब्दों में मानव तस्कारों पर लगाम लग सके और औरंगाबाद या पलायन के बीच मजदूरों की अकाल मौत जैसे हादसे फिर न हों

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Tags: #aurangabad #Lockdawn #Coronavirus #PMOIndia #COVID19breaking newshindi vivekhindi vivek magazinelatest newstrending

ऋतुपर्ण दवे

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