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 पचहत्तर वर्ष

 पचहत्तर वर्ष

by रमेश पतंगे
in जुलाई -२०१५, व्यक्तित्व
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28 मई को पुणे में एक विवाह समारोह में शामिल हुआ। वहां अनेक कार्यकर्ताओं से मुलाकात हुई। जयंत सहस्रबुद्धे मुझे बोले ‘‘रमेश जी! मुकुंदराव ७५ वर्ष के हो गए। आज उनका जन्मदिन है।’’ मुकुंदराव पर लेख लिखने का विचार मन में शुरू हो गया। लंबे समय तक संघ के प्रचारक के रूप में कार्य करने वाले व्यक्ति पर लेख लिखना आसान काम नहीं होता। संघ की प्रचारक व्यवस्था के संबंध में संघ के बाहर के लोगों को कोई ज्ञान नहीं होता। जब किसी नए व्यक्ति का संघ के प्रचारक से परिचय होता है तो स्वाभाविक रूप से वह पूछता है कि आपको इस काम के लिए कितना वेतन मिलता है? आपका परिवार कहां है? आपकी पत्नी क्या करती है? उस बेचारे को क्या मालूम कि संघ प्रचारक ब्रह्मचारी होता है। उच्चशिक्षित होता है। संघकार्य के लिए वह अपने घर परिवार का त्याग करता है। प्रचलित भाषा में कहा जाए तो वह संन्यासी होता है। भगवा वस्त्रधारी संन्यासी आध्यात्मिक साधना में व्यस्त होता है और संघ का प्रचारक राष्ट्रसाधना में व्यस्त होता है। यही दोनों में अंतर है। मैं निश्चित तो नहीं कह सकता परंतु मेरी जानकारी के अनुसार मुकुंदराव सन १९६२ से संघ के प्रचारक हैं।
संघ को जानने वाले लोग संघ के प्रचारकों का वर्णन कई तरह से करते हैं। किसी ने कहा कि संघ के प्रचारक बिना चेहरे के व्यक्ति होता है, तो दूसरे ने कहा कि वह ऐसा पोस्टकार्ड होता है जिस पर पता नहीं होता। दोनों वाक्यों में बहुत गहरा अर्थ छिपा हुआ है। बिना चेहरेवाला प्रचारक होना संभव नहीं है। हर एक को चेहरा होता है और उसका स्वतंत्र अस्तित्व भी होता है। वह भी हमारे आपके जैसा मनुष्य ही होता है। अत: उसमें इच्छा, क्रोध, द्वेष, भय इत्यादि सभी मानवीय गुण-दोष होते हैं। वह इन गुणातीत नहीं होता। उसका चेहरा नहीं होता अर्थात वह बहुत काम करता है। कई बड़े-बड़े कामों को पूर्ण करता है। इन कामों के कारण कभी-कभी संस्थाएं बड़ी होती हैं तो कभी संघ का नाम चमकता है। परंतु इतना बड़ा काम करने वाला व्यक्ति कहीं दिखाई नहीं देता। उसका नाम कहीं नहीं आता। मुकुंदराव पणशीकर के बारे में भी यही बात लागू होती है। आज संघ का कोई भी कार्यकर्ता ऐसा नहीं होगा जो केशव सृष्टि के बारे में न जानता हो। आज वहां अनेक प्रकल्प चलाए जा रहे हैं। परंतु केशव सृष्टि की जमीन खरीदने का निर्णय मुकुंदराव पणशीकर का था। उस समय मैं मुंबई का सहकार्यवाह था। अत: केशवसृष्टि के बारे में मैं शुरू से जानता हूं। ‘मुकुंदराव पणशीकर के कारण ही केशवसृष्टि की जमीन खरीदी गई’। मैं जानता हूं यह वाक्य भी मुकुंदराव को पसंद नहीं आएगा क्योंकि किसी भी काम का श्रेय लेना प्रचारक के आचार-विचार में नहीं होता। भगवद् गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी गुणों का वर्णन करते समय तीसरे श्लोक में भगवान ने ‘नातिमानिता’ गुण बताया है। जिसका अर्थ है किसी भी प्रकार के सम्मान की श्रेय की अपेक्षा न रखने वाला।

संघ कार्यकर्ता के रूप में मुकुंदराव से मेरा संपर्क आपातकाल के बाद आया। सन १९८० में मैं महानगर कार्यकर्ता बना और दो साल बाद महानगर का सरकार्यवाह बना। उस समय मुकुंदराव महानगर प्रचारक थे। मुंबई को अनेक वर्षों के बाद कोई पूर्णकालिक कार्यकर्ता मिला था। पुरानी टीम के स्थान पर कार्यकर्ताओं की नई टीम तैयार हुई थी। सन १९८५ तक मैंने मुंबई में मुकुंदराव पणशीकर के साथ काम करने का आनंद उठाया। हालांकि प्रचारकों के साथ काम करना आसान काम नहीं होता। संघ की रचना में निर्णय प्रक्रिया का अंतिम घटक प्रचारक होता है। प्रचारक की अनुमति के बिना कोई भी निर्णय नहीं लिया जा सकता। इसका अर्थ यह नहीं कि प्रचारक निर्णय लेता है। कार्यवाह, संघचालक निर्णय लेते हैं, परंतु निर्णय प्रचारक की सलाह से ही लिया जाता है। कई बार प्रचारकों और व्यावसायिक कार्यकर्ताओं की कार्यशैली में बहुत अंतर हो जाता है जिसके कारण तनाव का वातावरण निर्माण होता है। ऐसे भी कई उदाहरण हैं परंतु उनका उल्लेख करने की यह जगह नहीं है।

मुकुंदराव के साथ कार्य करते समय उनके और मेरे बीच कभी संघर्ष नहीं हुआ। प्रचारक के रूप में मुकुंदराव ने अपनी भूमिका और मर्यादा तय कर रखी थी। वह उन्होंने कभी नहीं बदली। महानगर सरकार्यवाह होने के नाते कार्यविस्तार करने की दृष्टि से कई उपक्रम चलाने की मेरी योजना होती थी। मैंने जब भी कभी मुकुंदराव से इन योजनाओं के संबंध में चर्चा की तो उन्होंने कभी भी मुझे ‘अभी नहीं, बाद में देखेंगे; थोड़े दिनों बाद, पूछना पड़ेगा’ आदि जैसे जवाब नहीं दिए। उदाहराणार्थ सन १९८४ में १दिसम्बर से लेकर १० दिसम्बर तक दस दिन मुंबई की एक हजार बस्तियों में शाखा लगाने की योजना मेरे मन में आई। मैंने मेरे सभी सहकारियों से चर्चा की। सभी ने योजना को स्वीकार किया। बाद में इस योजना के विषय में कई उल्टी सीधी चर्चाएं होने लगीं। क्या ऐसी योजनाओं के कारण शाखाएं बढती हैं? शाखाओं को बढ़ाने के लिए योजना बनाना आंदोलन की संकल्पना की तरह नहीं है? क्या ऐसी योजनाओं से शाखा टिकेगी? कार्यकर्ता सक्षम होंगे? ऐसी कई चर्चाएं मेरे कानों पर पडने लगीं। चर्चा करने वालों में कई वरिष्ठ कार्यकर्ता और ज्येष्ठ प्रचारक भी थे। मैंने मुकुंदराव से इस संदर्भ में चर्चा की। उन्होंने कहा, ‘हम सभी ने मिलकर यह निर्णय लिया है। अब पीछे मुड़ कर नहीं देखना है। तय किए हुए उपक्रम को पूरा करना ही है।’ १ से १० दिसम्बर के बीच लगभग ८५० शाखाएं लगीं। बाद में सारे देश में इसकी चर्चा हुई। इसका पूरा श्रेय मुकुंदराव को जाता है।
तलजाई के शिविर का विषय सन १९८३ में शुरू हुआ। मुंबई से ५००० गणवेशधारी स्वयंसेवक उपस्थित करने का संकल्प लिया गया। अभी तक मुंबई के किसी भी कार्यक्रम में ५००० गणवेशधारी स्वयंसेवक उपस्थित नहीं किए जा सके थे। संख्या भले ही कम थी परंतु उस संख्या को प्राप्त करना उतना आसान काम नहीं था। उसके लिए छह माह तक सभी स्तर पर कड़े प्रयत्न किए गए और परिणामस्वरूप तलजाई में लगभग साढ़े पांच हजार गणवेशधारी स्वयंसेवक उपस्थित हुए। इसके लिए मुकुंदराव ने जो मेहनत की उसकी कोई सीमा नहीं है। परंतु फिर भी इसका श्रेय उन्हें नहीं हमें मिला।

सन १९८३ में सामाजिक समरसता का काम शुरू हुआ। काम नया था। अत: काम के संबंध में कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के मन में अनेक प्रकार की शंकाएं थीं। मुख्य बात यह थी कि संघ में कभी जाति का विचार नहीं किया जाता। यहां अस्पृश्यता को कोई स्थान नहीं होता। संघ में प्रत्येक की पहचान हिंदू के रूप में ही होती है। अत: समरसता का काम अलग से करने की क्या आवश्यकता है? यह प्रश्न अनेक लोगों के मन में तब भी था और अब भी है। परंतु मुकुंदराव की सोच ऐसी नहीं थी। संघ अर्थात समाज यह संकल्पना भले ही हो परंतु वास्तविकता में संघ अर्थात समाज नहीं होता। संघ के बाहर समाज में जातिभेद, विषमता, अस्पृश्यता आदि का कठोरता से पालन होता है। समाज को इन रूढियों से मुक्त करने की आवश्यकता थी और उसमें जागृति लाने की भी आवश्यकता थी। मुकुंदराव यह भलीभांति जानते थे।

सन १९९१ में डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की जन्मशताब्दी थी। दादर के शिवाजी पार्क में सामाजिक समरसता मंच के बैनर तले एक बहुत बड़ी सभा हुई। इस सभा की संकल्पना मुकुंदराव की थी। कार्यक्रम के प्रमुख वक्ता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी थे। शांताराव नांदगावकर के द्वारा डॉ. आंबेडकर पर लिखा गया गीत सुधीर फड़के ने गाया था। डॉ. आंबेडकर को अभिवादन करने वाला यह मुंबई का सबसे बड़ा कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम के लिए दलित बंधु भी बड़ी संख्या में उपस्थित थे। परंतु वह कार्यक्रम दलित केन्द्रित नहीं था। उसमें सारे समाज का सहभाग था। इस सभा की रचना हमने की थी परंतु उसके पीछे शक्ति मुकुंदराव की थी। इस ऐतिहासिक सभा का जब भी उल्लेख किया जाएगा है तो अटल जी का उल्लेख होगा, सुधीर फडके जी का उल्लेख होगा परंतु उस सभा के शिल्पकार मुकुंदराव पणशीकर का नाम कोई नहीं लेगा।

बिना पते वाले पोस्टकार्ड के रूप में प्रचारकों का वर्णन किया जाता है। इसका अर्थ यह है कि संघ प्रचारक को निर्देशित कार्य निर्देशित जगह पर जाकर करना होता है। उसके कार्ड पर पता लिखने का कार्य संघ करता है। संघकार्य के दौरान मुकुंदराव के दायित्व बदलते गए। वे महाराष्ट्र प्रांत के प्रांत प्रचारक बने, फिर क्षेत्र प्रचारक बने और अब अखिल भारतीय स्तर के कार्यकर्ता हैं। वे धर्मजागरण विभाग के प्रमुख हैं। जो लोग पहले हिंदू थे परंतु किसी कारणवश उन्होंने अन्य धर्मों का स्वीकार कर लिया है, ऐसे लोगों को अपने धर्म में वापस लाना धर्मजागरण विभाग के कई कार्यों में से एक है। इसे घरवापसी कहा जाता है। यह अत्यंत पवित्र राष्ट्रीय कार्य है। इस कार्य के लिए मुकुंदराव सम्पूर्ण भारत में प्रवास करते रहते हैं। पिछले पांच वर्षों में स्वगृह लौटे लोगों की संख्या लाखों में होगी परंतु उसकी कहीं ज्यादा चर्चा नहीं हुई। कई बार कार्य की ज्यादा प्रसिद्धि उस कार्य की हानि कर देती है। आगरा की घर वापसी इसका उत्तम उदाहरण हैं। यह काम शांति से किया जाने वाला काम है। यह देश के भावी इतिहास पर प्रभाव डालने वाला का कार्य है।

हमेशा प्रसन्न रहने वाले मुकुंदराव कभी किसी पर नाराज नहीं होते। मैंने उन्हें कभी भी उन्हें किसी पर नाराज होते नहीं देखा। ऐसी कई घटनाएं होती हैं जो उनकी इच्छा के विरुद्ध होती हैं परंतु उनमें शांति से सहन करने की अद्भुत क्षमता है। महाराष्ट्र में भटके-विमुक्त (बंजारा) लोगों के लिए किए जा रहे कार्य का अत्यंत तीव्र गति से विस्तार हुआ। इस कार्य के बढ़ने के पीछे भी मुकुंदराव का ही हाथ है। यह कोई भी नहीं जानता। प्रांत प्रचारक के रूप में वे महीने के दस दिन इन लोगों के क्षेत्र में प्रवास करते थे। इन लोगों की समस्याओं को समझते थे। तब गिरीश प्रभुणे संगठन मंत्री थे। उनके काम की गति सामान्य कार्यकर्ता को अत्यधिक लगती थी। जिसके कारण उन पर तनाव होता था। गिरीश प्रभुणे समस्याओं को तुरंत समझकर उनका उपाय शुरू कर देते थे। परंतु अपनी नौकरी, व्यवसाय और गृहस्थी को संभालकर काम करने वालों के लिए इतना समय देना मुश्किल होता था। अंतत: गिरीश प्रभुणे को संगठन मंत्री के दायित्व से मुक्त कर दिया गया। ऐसा निर्णय यह सोच कर लिया गया कि इससे गिरीश को भी समस्या नहीं होगी। उन्हें उनका काम करने के लिए स्वतंत्र क्षेत्र मिलेगा और अन्य कार्यकर्ता भी उनको मिलने वाले समय के अनुरूप कार्य कर सकेंगे। संघ में इस प्रकार का निर्णय लेना बहुत कठिन काम होता है। उसके लिए कई लोगों से बुराई मोल लेनी पड़ती है। ऐसी कितनी बुराइयां कितनी बार मुकुंदराव ने मोल लीं ये तो वे ही जानते हैं। संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिए जिस तरह कई कार्य निरंतर करने होते हैं, उसी तरह कुछ कठोर निर्णय भी लेने होते हैं। मुकुंदराव की यही साहसी वृत्ति उनकी विशेषता है।

इस तरह के अनामिक मुकुंदराव अब ७५ वर्ष के हो चुके हैं। उनका अमृत महोत्सव वे नहीं करेंगे और न ही संघ में ऐसी कोई प्रथा है। इन सब के बावजूद संघ जिन तपस्वियों के कारण खडा है उन तपस्वी कार्यकर्ताओं के बारे में स्नेहमय शब्द लिखना मुझे प्रासंगिक लगा और मुझे विश्वास है कि पाठकों को भी लगेगा।

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