गलवान घाटी की घटना से अहंकारी चीनी नेतृत्व को यह पता चलना ही चाहिए कि उसे धोखेबाजी की कीमत चुकानी ही पड़ेगी। इसका एक रास्ता आर्थिक-व्यापारिक मामलों में चीन पर निर्भरता कम करना है। इसके लिए आवश्यक है, ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान एक बड़ा लक्ष्य बने।
भारत की सीमाएं सुलग रही हैं। उस आग में लद्दाख की गलवान घाटी दहकी है। लद्दाख में भारत और चीन के सैनिकों के बीच जो हिंसक झड़प हुई, उसमें भारत के 20 जवान शहीद हुए हैं। इस झड़प में चीन के भी कई सैनिक मारे गए हैं, लेकिन उनकी संख्या कितनी है, यह बात चीन नहीं बता रहा ।
एक सप्ताह पहले हुई कमांडर स्तर की वार्ता में भारत और चीन दोनों में सहमति हुई थी कि दोनों देशों के सैनिक एलएसी (वास्तविक नियंत्रण रेखा) की जो सीमा है, उससे 2 किलोमीटर दूर पीछे चले जाएंगे। भारतीय सैनिक इसी सहमति को मानकर 2 किलोमीटर पीछे चले गए थे। लेकिन सदा धोखेबाजी जिसका चरित्र है उस चीन के सैनिकों ने 2 किलोमीटर पीछे हटने में इनकार किया। इस पर बात करने के लिए गए भारतीय सैनिकों पर चीनी सैनिकों ने अत्यंत बर्बरतापूर्ण हमला कर दिया।
लेकिन हर बार की तरह उल्टे फांसे फेंकने वाले चीन के विदेश मंत्रालय का कहना है कि, ’यह घटना एलएसी के चीन की तरफ वाले क्षेत्र में हुई है। इसलिए चीन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता।’ चीन ने साथ ही कहा कि चीन अब और संघर्ष नहीं चाहता। भारत चीन के इलाके में दखल दे रहा है।
डोकलाम विवाद की भी चीन ने जिम्मेदारी इसी प्रकार से भारत पर डाली थी। अब भी वह यही कह रहा है कि भारत उसकी सीमा में अनधिकृत प्रवेश कर रहा है। इस तरह के आरोप कर चीन दुनिया में सहानुभूति बटोरने का प्रयास कर सकता है। चीनी सेना ने लद्दाख की गलवान घाटी में धोखे से भारतीय सैनिकों को जिस तरह निशाना बनाया उसके बाद चीन से रिश्ते सामान्य बने रहने का कोई कारण नहीं रह जाता। इसमें कोई संदेह नहीं कि उसने ऐसा जानबूझकर किया है। आर्थिक-व्यापारिक मामलों में भारत पर दबाव बढ़ा रहा है। वह कोरोना वायरस के मामले में भी जानकारी छिपाने की अपनी बेईमान से देश-दुनिया का ध्यान हटाने के लिए ऐसा कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चीन की इस चेष्टा पर कहा है कि भारत हर तरह से जवाब देने में सक्षम है। भारत शांति चाहता है, लेकिन अपनी अखंडता से समझौता नहीं करेगा।
भारत और चीन के बीच 1962 के बाद यह सबसे बड़ी झड़प है। डोकलाम से शुरू हुआ हमला आज गलवान घाटी तक पहुंचा है। चीन विस्तारवादी मानसिकता वाला और अपनी आण्विक और बाजार की ताकत पर वैश्विक शक्ति बनने की महत्वाकांक्षा रखने वाला देश है। चीन से ज्यादा कोई भी आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो या उसकी अंतरराष्ट्रीय हैसियत बड़ी हो, तो चीन को परेशानी होती है। नरेन्द्र मोदी सरकार ने इन सारी बातों को जानते हुए भी चीन को साथ लेने की कोशिश की थी। भारत-चीन के बीच का आधुनिक इतिहास जवाहरलाल नेहरू की गलत विदेश-नीति का नतीजा है। एशिया के मामलों से अमेरिका व रूस को किसी भी तरह दूर रखने की चाहत में नेहरू ने चीन को साथ लेना जरूरी समझा था। माओवादी और साम्यवादी चीनी नेतृत्व की विस्तारवादी शैतानी को नेहरू अच्छी तरह जानते थे। फिर भी चीन के साथ नेहरू ने रिश्तें बनाए। लेकिन चूक यह हुई कि अंतरराष्ट्रीय रिश्तें भावुकता से और एकतरफा नहीं होते हैं। सच्चाई यही है कि आजादी मिलने के बाद से ही चीन हमारे लिए सबसे बड़ी सामरिक चुनौती रहा है। इस सच की अनदेखी 1950 के दशक में नेहरू के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने की। भारत जहां शांति के पथ पर चल रहा था, वहीं चीन ने अक्साई चिन को अपने कब्जे में ले लिया। 1962 में चीन ने भारत पर हमला बोल दिया, जिसमें हमें भारी नुकसान उठाना पड़ा। इस युद्ध के बाद भारत और चीन के संबंध सीमित हो गए। इस बीच चीन ने पाकिस्तान से अपने रिश्तें सुधारने शुरू कर दिए, यहां तक कि पाकिस्तान के परमाणु हथियार कार्यक्रम को भी सहायता पहुंचाई। आज भारत को चीन-पाकिस्तान के इसी गठजोड़ का मुकाबला करना पड़ रहा है।
चीन-भारत युद्ध के बाद पहली वारदात साल 1967 में सिक्किम में हुई थी, जिसमें भारत के 88 सैनिक शहीद हुए थे, जबकि 300 से ज्यादा चीनी सैनिकों की जान गई थी। दूसरी झड़प 1975 में अरुणाचल प्रदेश में हुई थी। उसमें असम राइफल्स के जवानों पर हमला किया गया था। वर्ष 1988 में राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत ने अपनी चीन-नीति बदली। यही कारण है कि आज भारत और चीन के आर्थिक व व्यापारिक रिश्तें काफी मजबूत व व्यापक हो गए हैं। दिक्कत यह रही कि 1988 की नीति में सीमा-विवाद सुलझाने की बात तो कही गई, लेकिन चीन ने कभी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। हालांकि, 1993 के बाद दोनों देशों ने यह तय किया था कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर शांति के लिए वे आपस में विश्वास बहाली के ठोस उपाय करेंगे। फिर भी, चीन ने नियंत्रण रेखा को लेकर अपना रुख अब तक स्पष्ट नहीं किया है। इसी वजह से वास्तविक नियंत्रण रेखा के कई स्थानों पर दोनों देशों के सैन्य दल आपस में उलझ जाते हैं। अब वह बात एक दूसरे की जान लेने तक पहुंच रही है।
चीनी सेना ने लद्दाख की गलवान घाटी में घिनौनी और नीच हरकत की है। विश्व महाशक्ति बनने के नशे में चूर चीन को जवाब देने के कई तरीके हैं। उनमें से एक प्रभावी तरीका उसकी आर्थिक ताकत पर पूरी शक्ति से प्रहार करना है। इसकी शुरुआत कर दी गई है। बीएसएनएल के 5जी टेंडर से चीनी कंपनियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया है। कानपुर से मुगलसराय के बीच फ्रेट कॉरीडोर प्रोजेक्ट में चीनी कंपनी का ठेका रद्द करने का फैसला किया गया है। इसी प्रकार से चीनी कंपनियों को भारत के बाहर का रास्ता दिखाया जाना चाहिए। अहंकारी चीनी नेतृत्व को यह पता चलना ही चाहिए कि उसे धोखेबाजी की कीमत चुकानी पड़ेगी। आर्थिक-व्यापारिक मामलों में चीन पर निर्भरता कम करने के लिए आवश्यक है, कि ‘आत्मनिर्भर भारत’ अभियान एक बड़ा लक्ष्य बने। चीन से आने वाले माल के भरोसे नहीं रहना है। दृढ़ इच्छाशक्ति हो तो कुछ भी संभव है। चीन को सबक सिखाने के लिए उन देशों को भी समर्थन देना होगा जो चीन की दादागीरी से त्रस्त हैं। भारत को विश्व मंचों पर यह संदेश देना होगा कि चीन अपनी तानाशाही दुनिया पर नहीं थोप सकता। चीन से विश्व शांति के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
अभी लद्दाख में घटी घटना को देखकर लगता है कि चीन हर हाल में भारत की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा को कम करना चाहता है। भारत को ऐसे उपाय भी करने पड़ेंगे कि वह अप्रैल, 2020 से पहले की स्थिति में लौटने को मजबूर हो। इस दिशा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘आत्मनिर्भर भारत’ के आह्वान के अनुरूप देश को आगे ले जाना ही होगा।
गलवान घाटी में जो ताजा हिंसक झड़प हुई है, जिसमें हमारे 20 अफसर और जवान शहीद हुए, उसका किस तरह से जवाब दिया जाए? आगे की हमारी चीन-नीति क्या हो? इन सवालों का जवाब तलाशने के लिए हमें भारत-चीन संबंधों की हकीकत और पृष्ठभूमि पर गौर करना होगा। 1988 से चल रही हमारी चीन-नीति पर अब पुनर्विचार करने की जरूरत है? 1978 में अपनी अर्थव्यवस्था को खोलने के बाद चीन ने बहुत तरक्की कर ली है। उसने मैन्युफैक्चरिंग के मामले में इतनी ताकत हासिल कर ली है कि उसे ‘दुनिया की फैक्टरी’ कहा जाने लगा है। मगर यह भी सच है कि अंतरराष्ट्रीय नियमों में उसके द्वारा की जा रही अनदेखी को देखते हुए पूरी दुनिया चिंतित है। हाल के वर्षों में अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया और भारत ने जिस तरह से आपस में रिश्तें बढ़ाए हैं, उससे भी चीन को ऐतराज है। भारत अपने हितों की रक्षा के लिए हर देश से संबंध बढ़ाना चाहता है। स्वाभाविक है कि भारत अपनी कूटनीति में देश के हितों का पूरा ध्यान रख रहा है।
चीन ने अपनी हरकत से खुद को भारत का शत्रु साबित किया है। चीन पहले दूसरे देशों की जमीन पर छल-कपट से कब्जा करता है। बाद में शांति का ढोंग रचता है। वह आर्थिक-व्यापारिक मामलों में भारत पर दबाव बढ़ा रहा है, ताकि कोरोना वायरस को लेकर चीन की लफ्फाजी से देश-दुनिया का ध्यान हटा सके। चीन अपनी तानाशाही का विकृत प्रदर्शन करते हुए अन्य पड़ोसी देशों को भी तंग करने में लगा हुआ है। इसलिए भारत को उसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सक्रिय होना है। साथ ही चीन से पीड़ित देशों के साथ भी खड़ा होना होगा। चीन को यह बताने की सख्त जरूरत है कि वह अपनी विकृत शर्तों पर रिश्तें कायम नहीं कर सकता। चीन के उस मर्म-स्थान पर चोट पहुंचानी चाहिए जहां सबसे ज्यादा असर हो। चीन की इस गलत-फहमी को भी दूर करना होगा कि उसके बगैर भारत का काम नहीं चल सकता। चीन का प्रतिकार करने की सामर्थ्य जुटाना ही आत्मनिर्भर भारत अभियान का लक्ष्य है। इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए देश की जनता को भी जी-जान से जुटना होगा।
आपने सच कहा है कि आत्म निर्भर होना चाहिए ।यही जरूरत है ।यह कार्य बहुत पहले होना चाहिए था ।लेकिनइस कार्य के लिए समय ललगेगा ।पहले जनता को राष्ट्र के प्रती जागृत करना होगा ।चाहे जो भी हो महगा क्यू नहीं हो स्वदेशी खरेदी करेगे ।दुसरी ओर व्यापारी यह तय करे कि चीनी सामान बेचना बंद करें । तीसरी बात ऊघोजक चीन से कच्चा, पक्का माल आयात नहीं करेगे ।या फिर भारत WTO से बाहर हो।लेकिन यह मुमकिन नहीं है । बीजेपी ने नेहरू जी की करतूत युवाओं को जगाने की जरूरत है ।
यथार्थ.. सैनिक सीमा पर अपने बलिदान से देश की रक्षा कर रहे हैं अतः अब चीनी वस्तुओ का पूर्ण बहिष्कार यह युद्ध देश की जनता को ही लडना है, मांग बढते ही उद्योग जगत निर्माण पर निश्चित जुटेगा, सरकार पूर्णतः मदत को तैय्यार हो चुकी है.
आज सबसे बडी आवश्यकता अच्छे प्रकार के सौर ऊर्जा फलकsolar energy panel बनानेकी आत्मनिर्भरता प्राप्त करना होगा| हम इस क्षेत्र में कुछ भी प्रगती कर नहीं पाये| प्रमोद पाठक