चीन को जरूर मिलेगा भारत से करारा जवाब!

भारत को वैश्विक जनमत का समर्थन मिलेगा, पर चीन का सामना हमें अपनी सामर्थ्य से करना होगा, किसी की मदद से नहीं। …चीन की चुनौती हमें अपनी सामर्थ्य को बढ़ाने की प्रेरणा दे रही है। अभी दें या कुछ समय बाद, चीन को जवाब तो हमें देना ही है।

भारत और चीन के बीच लद्दाख में चल रहा वर्तमान टकराव टल भी जाए, तब भी यह सवाल अपनी जगह बना रहेगा कि चीन से हमारे रिश्तों की दिशा क्या होगी? क्या हम उसकी बराबरी कर पाएंगे? या हम उसकी धौंस में आ जाएंगे? और क्या हम उसे करारा जवाब देंगे? फिलहाल यह मध्यांतर है, अंत नहीं। पहली नजर में यह दो प्राचीन सभ्यताओं की प्रतिस्पर्धा है, जिसकी बुनियाद में हजारों साल पुराने प्रसंग हैं। इसमें पाकिस्तान और नेपाल भी शामिल हैं। दोनों ही हमारे अंतर्विरोधों की देन है। इस साजिश में नेपाल की भूमिका भी है। गलवान में बीस भारतीय सैनिकों की वीरगति के बाद से भारतीय जन-मन बुरी तरह व्यथित है। यह रोष किसी भी समय फूटकर निकल सकता है। पर रोष से नहीं काम होश से ही किया जाना चाहिए।
चीनी भाषा में चीन को मिडिल किंगडम लिखा जाता है। यानी दुनिया का केंद्र। चीनी राष्ट्रवाद के साथ एक प्रकार की महानता का आत्मबोध छिपा हुआ है। लद्दाख में जो हुआ उसके पीछे चीन की हांगकांग, ताइवान, वियतनाम और जापान से जुड़ी प्रतिस्पर्धाएं भी काम कर रही हैं। वह हमें धमकाना चाहता है। उसके नेतृत्व का दिमाग आसमान पर है। यह जोश अंततः उसे भारी पड़ेगा, क्योंकि वैश्विक जनमत उसके अहंकार को स्वीकार नहीं करेगा। चीन ने लद्दाख में अपनी हरकतों से अपना दीर्घकालीन नुकसान कर लिया है।

वर्तमान टकराव के पीछे उसके तीन उद्देश्य लगते हैं। भारत ने वास्तविक नियंत्रण के पास सड़कों और हवाई पट्टियों का जाल बिछाना शुरू कर दिया है। दूसरा कारण है दक्षिण चीन सागर और हिंद प्रशांत क्षेत्र में भारतीय नौसेना की भूमिका। हम कमोबेश चतुष्कोणीय सुरक्षा व्यवस्था यानी ‘क्वाड’ में शामिल हैं। चीन को लगता है कि भारत अमेरिकी खेमे में चला गया है। तीसरा और असली कारण है दबाव बनाना। वह चाहता है कि हम इन सब कार्यों को बंद करें। यह मानसिक युद्ध भी है।
लद्दाख से चीन ने अपनी सेना को पीछे नहीं हटाया, तो क्या हम सैनिक कार्रवाई करेंगे? भारतीय सेना ने सीमा पर अपनी उपस्थिति बढ़ा दी है। सच्ची बात यह है कि चीन हमारी तुलना में ज्यादा ताकतवर है। हमें यों भी एकसाथ दो शत्रुओं का सामना करना है। पर हम कमजोर नहीं हैं। हमारी सामर्थ्य इतनी है कि चीन को भारी क्षति पहुंचा देंगे। चीन अभी आर्थिक विकास के एक चरण को ही पूरा कर पाया है। उसके महत्वपूर्ण औद्योगिक केंद्रों में से चौथाई भी नष्ट हुए, तो उसकी सारी ताकत धरी की धरी रह जाएगी। इतनी सामर्थ्य हमारी वायुसेना में है।

युद्ध हुआ, तो केवल हिमालय तक सीमित नहीं रहेगा। असली लड़ाई हिंद महासागर में होगी। हाल के वर्षों में भारतीय नौसेना ने अपना बल काफी बढ़ाया है। चीनी विदेश व्यापार का सबसे महत्वपूर्ण मार्ग हिंद महासागर से होकर गुजरता है। इस मार्ग में मलक्का की खाड़ी के संकीर्ण मार्ग पर हम चीनी नौसेना की अच्छी खबर ले सकते हैं। भारत के अनेक रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन के साथ एकबार बड़ी लडाई होनी चाहिए। तभी वह हमारे महत्व को स्वीकार करेगा।

अंततः चीन को भारत के महत्व को स्वीकार करना होगा। दोनों देशों के बीच तीन मोर्चों पर लड़ाई है। पहला सामरिक मोर्चा, दूसरा डिप्लोमेसी और तीसरा आर्थिक, जो पहले दोनों मोर्चों को बुनियादी ताकत देता है। हमें चीनी कार्यशैली पर भी नजर डालनी होगी। सोशल मीडिया पर इन दिनों एक अमेरिकी पत्रकार जोशुआ फिलिप का वीडियो वायरल हुआ है। उन्होंने बताया है कि चीन तीन रणनीतियों का सहारा लेता है। मनोवैज्ञानिक, मीडिया और सांविधानिक व्यवस्था की यह ‘तीन युद्ध’ रणनीति है।
चीन अपने प्रतिस्पर्धी देशों को उनके ही आदर्शों की रस्सी से बांधता है। उसके नागरिकों के पास अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं है। प्रतिस्पर्धी देशों में है। वह इसके सहारे लोकतांत्रिक देशों में अराजकता पैदा करता है। आपके यहां वाणी की स्वतंत्रता है, तो वह व्यवस्था विरोधी आंदोलनों को हवा देगा। आपकी न्याय व्यवस्था का सहारा लेकर आपको कठघरे में खड़ा किया जाएगा। आपके मीडिया की मदद लेगा। आपका बौद्धिक वर्ग उसके एजेंटों का काम करेगा।

अपनी बढ़ी हुई आर्थिक सामर्थ्य के सहारे चीन ने छोटे-छोटे देशों में प्रभुत्व स्थापित कर लिया है। बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) इसमें मददगार है। जिन देशों में सड़कें, बिजलीघर, रेल लाइनें और दूसरे कार्यक्रम शुरू हो रहे हैं, उन्हें दिखाकर राजनेता विकास की तस्वीर खींच रहे हैं। चीन को ठेके मिल रहे हैं। उसके लोगों को काम मिल रहा है और उसकी सामग्री का निर्यात हो रहा है। स्थानीय राजनेताओं और सरकारी अफसरों को घूस देकर वह अपने प्रभाव में कर लेता है।

भारत में चीनी कंपनियां काफी गहराई तक प्रवेश कर गई हैं। चीन की कंपनियां अपनी सरकार के उद्देश्यों को पूरा करती हैं। भारत में चीनी निवेश सीधे चीन से ही नहीं आता, बल्कि सिंगापुर और मॉरिशस जैसे देशों के मार्फत भी आता है। हमारी सरकार ने अब इस तरफ ध्यान देना शुरू किया है।

अमेरिकी थिंक टैंक ब्रुकिंग्स की एक रिपोर्ट के अनुसार सन 2012 में शी चिनफिंग के राष्ट्रपति बनने के बाद से उसकी वैश्विक महत्वाकांक्षा ने नया रूप धारण किया है। कम्युनिस्ट पार्टी ने पूंजी और सूचना माध्यमों को अपना हथियार बनाया है। वह दूसरे देशों में केवल पूंजी निवेश ही नहीं करता, स्थानीय राजनीति में हस्तक्षेप भी करता है। श्रीलंका, मालदीव, पाकिस्तान और नेपाल इसके उदाहरण हैं। सेशेल्स में भारतीय सैनिक अड्डे की स्थापना के विरोध में वहार के विरोधी दलों ने अभियान चलाया, जो चीन से प्रेरित था। नेपाल में प्रधानमंत्री के पी ओली की सरकार बचाने में उसने भूमिका निभाई।

कोविड-19 के वैश्विक प्रसार के बाद दुनिया में चीन की साख गिरी है। संभवतः उसके कारोबार पर भी इसका प्रभाव पड़ेगा। अमेरिका के विदेश मंत्री माइक पॉम्पियो ने हाल में कहा है कि अपनी टेलीकॉम कंपनियों के जरिए चीन जासूसी का साम्राज्य चलाता है, जिससे दुनिया छुटकारा चाहती है। उन्होंने यह भी कहा कि भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन के खतरे को देखते हुए अमेरिका अपने सैनिकों को यूरोप से हटाकर एशिया भेज रहा है। उन्होंने कहा कि भारत के साथ वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया, फिलीपींस और दक्षिण चीन सागर में भी खतरा है।

इस बात की आशा है कि भारत को वैश्विक जनमत का समर्थन मिलेगा, पर चीन का सामना हमें अपनी सामर्थ्य से करना होगा, किसी की मदद से नहीं। हमें अपनी विदेश नीति को किसी के साथ जोड़कर नहीं चलना चाहिए, क्योंकि महाशक्ति के रूप में उभरते देश की विदेश नीति भी स्वतंत्र होनी चाहिए। हम पिछलग्गू नहीं बन सकते। क्या हम इसके लिए तैयार हैं? चीन की चुनौती हमें अपनी सामर्थ्य को बढ़ाने की प्रेरणा दे रही है। अभी दें या कुछ समय बाद, चीन को जवाब तो हमें देना ही है।
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