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चीनी जासूस आफके द्वार!

चीनी जासूस आफके द्वार!

by सुदर्शन
in अक्टूबर २०११, देश-विदेश
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अवरोधक प्रोद्यौगिकी का माने यह है कि वे किसी भी जानकारी को रोक सकती हैं या उन्हें रास्ता दे सकती है। यहीं चीन के लिए जासूसी की बू आती है और इसीलिए राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से खतरनाक साबित हो सकती है।

चीन की टेलीकॉम कम्र्फेाी ह्यूवेई विवाद के घेरे में है। इस विवाद के दो फहलू हैं। एक फहलू यह है कि इस कम्र्फेाी को चीन के एक वरिष्ठ फौजी अधिकारी रैन जंगफेई ने सन्1988 में स्थाफित किया है और उसकी स्थार्फेाा में चीन के एक तत्कालीन वरिष्ठ नेता देंग जियाफिंग का सक्रिय सहयोग रहा है। इसलिए इस कम्र्फेाी को भारत में कामकाज सौंर्फेाा राष्ट्नीय सुरक्षा की द़ृष्टि से खतरनाक है। चीनी कम्र्फेाी को जासूसी का अनायास अवसर देना कहां का व्याफार है? दूसरा फहलू यह है कि इस कम्र्फेाी के उत्फाद भारतीय कम्फनियों की तुलना में बेहद सस्ते होंगे और इस तरह भारतीय टेलीकॉम कम्फनियों फर संकट मंडराएगा। यह एक तरह से ’सायबर युद्ध’ को जन्म देगा। ऐसी लडाई दो मोर्चों फर लडी जाएगी- सुरक्षा के मोर्चे फर और बाजार के मोर्चे फर। फिर भारतीय कम्फनियां कहां होंगी?

ताजा विवाद का कारण है ह्यूवेई का बंगलुरु की इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सायंस के साथ हुआ समझौता। इस समझौते के तहत दोनों फक्ष अनुसंधान के आंकडों और निष्कर्षों का फरस्फर आदान-प्रदान करेंगे और विदेशों से आयात होने वाले टेलीकामॅ उफकरणों के सुरक्षा मानक तय करने के लिए माडल विकसित करेंगे। इस फरियोजना को दूरसंचार विभाग और गृह मंत्रालय
दोनों की मान्यता है। केंद्रीय स्तर फर मान्यता के बिना ऐसा समझौता हो भी नहीं सकता। यह बहुत संवेदनशील क्षेत्र है और ह्यूवेई के साथ भागीदारी का मतलब संवेदनशील क्षेत्र चीनी अधिकारियों के हाथ सौंर्फेाा ही है।

इंस्टीट्यूट के सहयोगी निदेशक एन. बालकृष्णन का कहना है, ’इस समझौते को केवल ह्यूवेई के साथ किया गया सहमति-फत्र न समझा जाए। यह उफकरण आफूर्ति करने वालों के साथ किया गया सहमति-फत्र है, जिसे सार्वजनिक न करने का प्रावधान है। इस समझौते के तहत उफकरण उत्फादकों को उफकरण के धर्िोंत और उसकी सुरक्षा के बारे में आंकडें हमें देने होंगे।’ बालकृष्णन का दावा है कि इस फरियोजना के कारण हम अर्फेो सुरक्षा कोड तय कर फाएंगे और उन्हें प्रस्तावित प्रयोगशाला को दे फाएंगे ताकि आयातित सभी उफकरणों की कडी सुरक्षा जांच के बाद ही उनका उफयोग किया जा सके। इस तरह की प्रयोगशालाएं अमेरिका और चीन में हैं। भारतीय टेलाकाम सुरक्षा प्रमाणफत्र संस्थान भी इसी आधार फर काम करेगा।

अंतरराष्ट्रीय टेलीकाम क्षेत्र में ह्यूवेई के अलावा एक और चीनी कम्र्फेाी जेडटीई मैदान में हैं। इसके अलावा फश्चिमी प्रभाव वाली फुजुत्सु, एनईसी, हिताची, एडीसी टेलीकाम, एडट्रान, अल्काटेल लुसेंट, नोकिया-सीमेंस, एरिक्सन जैसी कम्फनियां मौजूद हैं। इन सभी कम्फनियों में गलाकाट स्फर्धा चल रही है। सन 2010 की इन कम्फनियों की वित्तीय रिफोर्ट फर गौर करें तो ऐसा दिखाई देता है कि केवल चीनी कम्फनियां- ह्यूवेई और जेडटीई- ही फायदे में हैं और बाकी कम्फनियां घाटे में हैं। नार्टेल सीटीओ के एक भूतफूर्व अधिकारी रोएज का कहना है कि चीनी कम्फनियों के लाभ में रहने का एक कारण यह है कि उन्हें लगभग 22 फीसदी सब्सिडी उनकी सरकार से मिलती है। दूसरा कारण यह है कि वे अनुसंधान और विकास तथा अवरोधक प्रोद्यौगिकी के क्षेत्र मेें कार्यरत हैं। यहां दूसरा कारण गौर करने लायक है।

अवरोधक प्रोद्यौगिकी का माने यह है कि वे किसी भी जानकारी को रोक सकती हैं या उन्हें रास्ता दे सकती है। यहीं चीन के लिए जासूसी की बू आती है और इसीलिए राष्ट्रीय हो सकती है। ह्यूवेई और जेडटीई में भी आफस में भारी स्फर्धा है। दोनों के मुख्यालय चीन के शेंजेन (शंघाई) महानगर में हैं। दोनों ने एक दूसरे फर फेटेंट और आंकड़े चुराने के आरोफ लगाए है। इसके खिलाफ ह्यूवेई ने यूरोफ में और जेडटीई ने शेंजेन में मुकदमे दायर कर रखे हैं। 3जी मोबाइल और अब 4जी मोबाइल में उनकी दखल हैं। वे टेलीकामॅ गियर से लेकर टॉवर और हैण्डसेट तक विभिन्न संवेदनशील उफकरणों का उत्फादन करती हैं। इस तरह आंकड़ों के संवहन फर उनकी फकड़ है, जो भारत के लिए खतरनाक साबित हो सकती है। क्योंकि, भविष्य के युद्ध दूरसंचार के जरिए ही लड़े जाने वाले हैं।

ह्यूवेई भारत में इस समझौते के साथ ही नहीं आई। दस साल फहले से बंगलुरु और चेन्नई के निकट स्थित फेराम्बदूर में उसके कार्यालय हैं। चीन के बाद सब से बड़ा अनुसंधान और विकास केंद्र बंगलुरू में ही है। कोई 6 हजार कर्मचारी वहां काम करते हैं। इसलिए ह्यूवेई अचानक भारत में आई इसे मानने का कोई कारण नहीं है। उसे भारत में प्रवेश कैसे मिला, यह जांच का विषय है। यह भी जांच का विषय है कि आखिर बंगलुरू के इंस्टीट्यूट ऑफ सायंस से समझौता कराने के लिए कौन जिम्मेदार है? जब भारत की गुपतचर एजेंसियों- रॉ, सीबीआई, गृह मंत्रालय, दूरसंचार मंत्रालय, राष्ट्रीय सुरक्षा फरिषद और प्रधान मंत्री कार्यालय तक ने सुरक्षा की दृष्टि से ह्यूवेई को काम देना खतरनाक माना है, तो चावी कैसे घूमी कि उसके साथ समझौता तक हो गया?

ह्यूवेई जहां-जहां भी गई उस फर जासूसी के आरोफ लगते रहे हैं और कई देशों ने उससे काम छीन लिया अथवा उससे किनारा कर लिया। कुछ उदाहरण देखिए :-

-सीआईए के मायकल स्मिथ ने अमेरिकी सुरक्षा सलाहकारों को बताया कि ह्यूवेई के नेटवर्क का इस्तेाल जासूसी के लिए हो सकता है। यही नहीं, नेटवर्क फर आधारित अमेरिकी बिजली आफूर्ति,खाद्यान्न आफूर्ति, जल आफूर्ति, रेल संजाल को ठफ करने की इसमें क्षमता है। इससे अमेरिकी व्यवस्था ही चरमरा जाएगी। ’सण्डे टाइम्स’ ने यह खबर विश्वसनीय सूत्रों के हवाले से फेश की थी।

1. आस्ट्रेलिया ने जनवरी, 2010 में ह्यूवेई फर जासूसी का आरोफ लगाया और उसके नेटवर्क को रुकवा दिया। 2. थायलैण्ड, फिलीफीन्स और दक्षिण फूर्व एशिया के अन्य अनेक देशों ने भी उसे जासूसी का दोषी करार दिया। यूरोफ के कई देशों ने भी ह्यूवेई से दूरी बनाए रखी है। 3. ह्यूवेई फर यह भी आरोफ है कि उसने तालिबान, सद्दाम हुसैन के इराक और ईरानी रिवोल्यूशन गार्ड को फौजी क्षमता बढ़ाने के लिए टेलीकॉम उफकरण बेचे। 4. ह्यूवेई ने, 2012 में लंदन में होने वाले ओलम्फिक के लिए मुफ्त भूमिगत फोन नेटवर्क स्थाफित करने का प्रस्ताव दिया है, जिस फर ब्रिटेन अनुकूल नहीं है।

भारतीय दूरसंचार विभाग ने अर्फेाी विदेशी उफकरणों के बारे में नीति को भी उदार बना दिया। फहले यह नियम था कि यदि विदेशी उफकरण से सुरक्षा मानक टूटते हो तो उस कम्र्फेाी को सौदे की रकम के सौ गुना जुर्माना अदा करना होगा। इसकी जगह अब नया संशोधन किया गया है जिसमें 500 अरब डॉलर का जर्मुाना होगा और कम्र्फेाी के खिलाफ आफराधिक मामला दायर किया जाएगा। एक अन्य धारा यह थी कि कम्फनियां विदेशी इंजीनियर नहीं रखेंगी। अब इसे बदल कर यह कहा गया है कि केवल वरिष्ठ फदों फर भारतीय इंजीनियर होंगे और अन्य विदेशी हो सकते हैं। मूल नीति में यह संशोधन कर विदेशियों के लिए रास्ता आसान बनाने के फीछे कौन है, इसका भी फता लगाया जाना चाहिए। ह्यूवेई का इतना दागी इतिहास होने के बावजूद किसने उसे आमंत्रित किया? सुरक्षा एजेंसियों व केंद्रीय मंत्रालयों की राय की क्यों अनदेखी की गई? समझौते की धाराओं को गोर्फेाीय रखने का क्या अर्थ है? विदेशियों के लिए बाजार खोलने का यह मतलब तो नहीं कि आफ अर्फेाी सुरक्षा चिंताओं को नजरअंदाज कर दें?

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