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संन्यासी राजनीतिज्ञ- हशु आडवाणी

संन्यासी राजनीतिज्ञ- हशु आडवाणी

by राम नाईक
in जुलाई - सप्ताह पांचवा, व्यक्तित्व
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आज देश में भारतीय जनता पार्टी प्रथम क्रमांक की राजनीतिक पार्टी है। मुंबई में दल के तीन सांसद, बीस विधायक और 85 पार्षद हैं। परंतु 50 वर्ष पूर्व यह चित्र बिल्कुल अलग था। 1967 में पहला विधायक चुना गया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सिंध प्रांत के पहले प्रचारक से लेकर महाराष्ट्र के मंत्री तक का राजनीतिक सफर करने वाले पूर्ववर्ती जनसंघ के मुंबई के पहले विधायक श्री हशु आडवाणी की 25वीं पुण्यतिथि के निमित्त-

सन 1969 में मैंने मुंबई में भारतीय जनसंघ के संगठन मंत्री- पूरा समय देकर कार्य करने वाले कार्यकर्ता के रूप में काम करने की शुरुआत की, वह समय बहुत अलग था। दल की जड़ें मजबूत हो, दल लोगों तक पहुंचे इसके लिए, यह जानते हुए कि जमानत भी नहीं बचेगी, हम चुनाव लड़ते थे। इसी काल में मुंबई से विधान सभा के लिए हमारा पहला विधायक चुना गया। हशुजी अर्थात हशु आडवाणी उस विपरीत काल में भी लगातार दूसरी बार चुनाव जीते थे। 1961 में वे पहली बार पार्षद का चुनाव जीते तो 1967 में मुंबई के चेंबूर विधान सभा क्षेत्र से विधायक चुने गए। संगठन तथा जनमानस पर अपनी अपूर्व पकड़ के बल पर वे चुनाव जीते यह स्पष्ट था। संगठन मंत्री के रूप में दल का काम अच्छा करना है तो हशुजी से बहुत कुछ सीखना हो पड़ेगा यह मेरी समझ में आ रहा था। अल्पावधि में ही संगठन मंत्री एवं जनप्रतिनिधि के परे हम एक दूसरे के अति निकट आ गए।

उस काल में अनेक बार हशु जी के घर गया। वह वास्तव में घर ना होकर एक ब्रह्मचारी का आश्रम ही था। 10 बाय 14 के कमरे में रहते थे। कमरे का आकार छोटा होने के बावजूद वह बड़ा लगता था, कारण कमरे में बहुत सामान ही नहीं था। जीवन जीने के लिए अत्यावश्यक चीजों के अलावा वहां अन्य कुछ नहीं था। हशुजी कमरे में ताला भी नहीं लगाते थे। कार्यकर्ता सतत आते जाते रहते थे। जनप्रतिनिधि होने के कारण लोग भी सतत अपने काम लेकर आते थे। कार्यालय एवं घर दोनों ही प्रेम से उस एक कमरे में अपना अपना काम कर रहे थे।

मूलतः सिंध प्रांत (अब पाकिस्तान) के हैदराबाद में 22 जुलाई 1926 को जन्मे हशुजी स्वतंत्रता के पूर्व ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बन गए थे। देश के विभाजन के बाद आदरणीय लालकृष्ण आडवाणी सहित अनेकानेक संघ स्वयंसेवक सिंध प्रांत से भारत में आए। ऐसे स्वयंसेवकों में संघ प्रचारक स्वर्गीय झमटमल वाधवानी, स्वर्गीय हरि आत्माराम तथा स्वर्गीय हशु अडवाणी ये तीनों मुंबई आए। सिंध से आए हुए अनेक निर्वासितों को चेंबूर कैंप अर्थात दूसरे महायुद्ध काल में सेना के बैरक में जगह मिली। हशुजी निर्वासितों की समस्याएं हल करने में अग्रणी थे। परंतु उन्हें स्वत: कई दिनों तक बिना घर के रहना पड़ा। कुछ समय बाद मिले एक छोटे कमरे में वे जीवन भर रहे एवं वही अपने कार्य का वटवृक्ष निर्माण किया। दो बार पार्षद, छह बार विधायक, दो बार महाराष्ट्र का मंत्री रहा यह मनुष्य जीवन भर जीवन भर इतनी सादगी से रहा यह आज के कार्यकर्ताओं को शायद चमत्कारिक लगे, परंतु वह सत्य है। हशुजी मंत्री बनने के बाद मिले हुए बंगले में रहने गए। पहली बार बंगले में जाने पर सारा बंगला घूमे। इतनी जल्दी है अभी ही पूरा बंगला देखने की? ऐसा पूछने पर हशुजी ने कहा, किस किस बात की आदत नहीं पडनी चाहिए, यह अभी से ध्यान में रखना है! इतनी सादगी एवं विचारों की स्पष्टता वाला नेता हमें मिला, यह हमारा सौभाग्य था।

वित्तीय मामले, निधि संकलन में हशुजी अत्यंत कुशल थे। निधि संकलन केवल समाज के लिए ही यह उन्होंने जीवन भर ध्यान रखा। संघ, जनसंघ के माध्यम से जन सेवा करते हुए हशुजी ने एक श्रेष्ठ शिक्षा संस्था भी खड़ी की। सन 1962 में 239 विद्यार्थियों वाली एक छोटी शाला संस्था संचालक बंद करने हेतु उद्युक्त थे। हशुजी ने उनके मित्र हरिराम समतानी एवं अन्य मित्रों के पास जाकर रुपए 35000 जमा किए। उस समय एक तोले सोने की कीमत 100 से कम थी, इतना भी यदि कहा जाए तो हशुजी द्वारा जमा की गई रकम कितनी बड़ी थी इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। हशुजी ने वह शाला जमीन सहित खरीद ली एवं विवेकानंद एजुकेशन सोसायटी की स्थापना कर शाला का संचालन प्रारंभ किया। पहले जनसंघ एवं बाद में भारतीय जनता पार्टी का संगठन मुंबई में मजबूत करते समय, आदर्श जनप्रतिनिधि का अपना सम्मान कायम रखते हुए विवेकानंद एजुकेशन सोसायटी का काम खड़ा किया। आज इस सोसाइटी की 10 इमारतों में विविध 24 संस्थाएं हैं। पालनाघर, तीन मांटेसरी शालाएं, तीन प्राथमिक शालाएं, तीन माध्यमिक शालाएं, दो कनिष्ठ महाविद्यालय, कला, विज्ञान एवं वाणिज्य महाविद्यालय, दो पॉलिटेक्निक, एक इंजीनियरिंग एवं एक मैनेजमेंट कॉलेज, सांस्कृतिक निकेतन, करियर गाइडेंस ब्यूरो, मूक बधिर विद्यालय, योग केंद्र ऐसे अनेक संस्थानों में आज वहां 18000 विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। वहां 500 शिक्षक- प्राध्यापक कार्यरत हैं। किसी सावधान पिता की तरह हशुजी सब ओर ध्यान रखते थे। ’गुणवत्ता के विषय में कोई समझौता नहीं’ इस नीति के कारण संस्था का वटवृक्ष निर्माण हो गया।

मेरा एवं हशुजी का अंतिम वार्तालाप इस संस्था के विषय में ही हुआ था। उनकी कर्तव्य दक्षता एवं व्यवस्थितता की झलक इसमें भी मिलती है। टाटा अस्पताल के डॉक्टर गोपाल ने उनके पुत्र के शाला में प्रवेश के विषय में मैं हशुजी से बात करूं, ऐसा अनुरोध किया था। मेरी पुत्री ने हशुजी के बंगले पर (तब वे मंत्री थे), रामभाऊ का संदेश देना है, ‘देर होने के बावजूद फोन किया तो भी अच्छा रहेगा’ इस आशय का संदेश दे रखा था। हशुजी ने उसे रात्रि 12:30 बजे फोन कर ’अभी वापस आया हूं, बोलो क्या संदेश है ’ पूछा। उसने जो बताया वह इन मंत्री महोदय ने अपने हाथों से लिखा। दूसरे दिन दिल्ली में मुझे स्वत: फोन कर काम हो जाने का संदेश भी दिया। उसके एक-दो दिनों बाद ही बीमारी के कारण उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया एवं उसी बीमारी में उनका स्वर्गवास हो गया।

इस संस्था के लिए दान प्राप्त करने हेतु कई बार हशुजी एवं स्वर्गीय झमटमल वाधवानी विदेश भी गए। विदेश के सिंधी भाइयों के बल पर संस्था का विकास किया। स्वयं हशुजी के पिताजी एवं भाई जिब्राल्टर नामक ड्यूटी फ्री बंदरगाह में व्यापार करते थे। हशुजी यदि व्यवसाय में आते तो उन्हें अच्छा लगता, परंतु हशुजी का मन देश कार्य की ओर था। उन्होंने चेंबूर को ही अपनी कर्मभूमि बनाया। विदेशों में परिवार जन होने के बावजूद भी हशुजी कभी भी विदेशी वस्तुओं का उपयोग नहीं करते थे। परंतु मेरी बेटी को पसंद है इसलिए उसके लिए चॉकलेट लाना नहीं भूलते थे। मैं स्वत: भी विदेशी वस्तुओं का उपयोग नहीं करता था। अपवाद हमेशा हशुजी द्वारा दी गई भेंट वस्तुओं का रहा। भारतीय जनता पार्टी के शुरुआती दिनों में हम कुछ गिने चुने विधायक ही थे। काम का भार ज्यादा, कार्यालय के लिए आर्थिक सहायता नहीं, ऐसे समय में हशुजी ने एक बड़ी सी अच्छी चीज मुझे भेंट में दी। ’मुझे किसी ने दी है परंतु उसका उपयोग आपको ज्यादा होगा’ ऐसा कहकर उन्होंने एक खोखा मेरे हाथों में दिया। वह खोखा खोले जाने तक मैंने भी ’डिकटाफोन’ नहीं देखा था। 80 के दशक में यह बड़ी बात थी। छोटा टेप रिकॉर्डर एवं बाद में टाइपिस्ट के लिए हेडफोन, सुनकर टाइप करने के लिए। बोलने की गति कम अधिक करने के लिए सिलाई मशीन के समान एक पेडल। इस प्रकार के इस ’डिकटाफोन’ का उपयोग मैंने और कार्यालय के मेरे सहयोगियों ने दीर्घकाल तक बड़े उत्साह से किया। स्वत: को मिली हुई विदेशी वस्तुएं दूसरों को देकर हशुजी अत्यंत सादगी से रहते थे। जूते का एक जोड़ा, 6 सफेद कमीज, 6 पाजामें तथा एक जैकेट, इसके अलावा उन्होंने स्वत: के कपड़ों पर कभी खर्च नहीं किया। उनके पास गाड़ी थी, परंतु वह भी छोटी फिएट, आवश्यकता के लिए खरीदी हुई। वे स्वयं गाड़ी चलाते थे। केवल केवल चुनावी समय में ही किसी कार्यकर्ता को ड्राइवर के रूप में साथ में लेते थे।

स्वयं के बारे में कभी कुछ ना कहने वाले, अन्यथा भी बोलने की अपेक्षा सुनने पर अधिक जोर देने वाले हशुजी के पास व्यक्ति जोड़ने की कला थी। उसके लिए वे जो करते, सामाजिक कार्यकर्ताओं को उसका अनुसरण करना चाहिए। सहयोगी, मतदाता, हितचिंतक इन सभी के सुख दुख में ध्यान रखकर सहभागी होते थे। परिचितों के यहां शादी एवं निधन इन दोनों प्रसंगों में वे बिना भूले उपस्थित होते थे। इससे सहज स्नेह संबंधों का विकास होता था। हशुजी से मैंने अनेक बातें सीखीं। आदर्श जनप्रतिनिधि कैसा हो, विशेषत: विधान सभा में किस प्रकार प्रभावी काम करना चाहिए इसका पाठ हशुजी से ही पढ़ा। विधान सभा का कामकाज, उसके नियम एवं उसकी परिणामकारकता कि उन्हें विलक्षण पहचान थी। अनुभव भी था। अपने पास कुछ ना रखते हुए वह सारा ज्ञान उन्होंने मुझे दिया जिससे मैं एक प्रभावी विधायक के रूप में काम कर सका।

हशुजी की अपने दल पर निष्ठा और सहयोगियों पर प्रेम यह भी ऐसे गुण थे जो उनसे लेना चाहिए। भाजपा की स्थापना के बाद 1980 से 1993 इस दीर्घ काल खंड में पहले मैं, बाद में हशुजी एवं पुनः मैंने भाजपा के अध्यक्ष के रूप में कार्यभार संभाला था। हम दोनों में इतना अच्छा समन्वय था कि अध्यक्ष हम में से कोई भी हो हम दोनों खुले दिल से एक दूसरे से विचार विमर्श कर ही निर्णय लेते थे। हमारे इस ’अद्वैत’ का सहयोगियों पर भी अच्छा परिणाम होता था। अर्थात इस मामले में हशुजी मुझ से बीस ही थे यह मुझे मान्य करना ही होगा। दिन-रात संगठन का विचार और उसमें मैं को स्थान नहीं ऐसा हशुजी का व्यवहार था। हंसते-हंसते पराजय को स्वीकार कर उसे पचाने वाले अटल जी हमने देखे थे। परंतु फिर भी हशुजी ने जिस पद्धति से पराजय स्वीकार की उससे मेरा मन भर आया। आज भी उस दिन की याद से मैं हशुजी के सामने नतमस्तक हो जाता हूं। इंदिरा जी की हत्या के बाद सन 1985 में महाराष्ट्र विधान सभा के चुनाव हुए। स्वाभाविकत: सहानुभूति की लहर में कांग्रेस का पलड़ा भारी था। मैं तीसरी बार तो हशुजी पांचवीं बार विधान सभा का चुनाव लड़ रहे थे। मतगणना जारी थी। उस समय प्रत्यक्ष मत पत्र गिने जाते थे जिससे मतगणना देरी तक चलती थी। उम्मीदवार के रूप में मैं एवं बोरीवली के कार्यकर्ता दिनभर मतगणना केंद्र में थे। बाहर के विश्व से संपर्क नहीं था। मैं बड़े मतों के अंतर से विजयी हुआ।

कार्यकर्ताओं ने उत्साह में शोभायात्रा निकाली। शोभा यात्रा की जीप पर चढ़ने हेतु मैं जीप के पास गया और चकित हो गया। सामने हंसते हुए हशुजी खड़े थे। अभिनंदन कहते हुए उन्होंने आनंद पूर्वक मेरा आलिंगन किया। स्वयं की मतगणना छोड़कर आप यहां कैसे आ गए? मैंने अचानक उन्हें पूछा। मेरे सहित मुंबई की 30 सीटें हम हार गए हैं। खेतवाड़ी में पुन: मतगणना चालू है। केवल आपकी एक सीट हम जीते हैं। पार्टी की जीत का आनंद मनाने यहां तो मुझे आना ही चाहिए था ना! दो बार पार्षद, चार बार विधायक रहे हुए हशुजी स्वयं की पराजय इतनी सहजता से पचाकर अपने साथी की विजय में आनंद ढूंढते हुए आए यह देखकर मेरा मन भर आया। मैं नतमस्तक हो गया।

सामने वाला व्यक्ति नतमस्तक हो, ऐसा ही हशुजी का व्यवहार रहता था। भाजपा सत्ता से कोसों दूर रहते हुए भी, पार्षद- विधायक चुनकर आना और मतदाताओं के काम कर अपने चुनाव क्षेत्र में बार-बार विजई होना इसका प्रत्यक्ष पाठ ही हशुजी ने पढ़ाया। नगर विकास मंत्री बनने के बाद अल्पावधि में ही उन्होंने मंत्रालय पर अपनी छाप छोड़ी। वैसे तो उन्हें बहुत कम समय मिला। परंतु किसी बड़े बिल्डर को नहीं अपितु शाला, अस्पतालों को बढ़ा हुआ एफ़एसआई देकर विकास की नई दिशा उन्होंने दिखाई। मंत्री बनने के पूर्व से ही बीच-बीच में स्वास्थ्य उन्हें तकलीफ दे रहा था। सन 1988 में तो वे अक्षरश: मृत्यु द्वार से लौटे थे। उसी काल में हशु जी ने एक इच्छा प्रकट की। उन्होंने कहा कि यदि मेरी मृत्यु हो जाती है तो बेकार में छुट्टी वगैरह दे कर मेरी शिक्षा संस्थाओं को बंद ना रखें। मैं रहूं या ना रहूं, काम शुरू रहना चाहिए। उनकी इच्छा का आदर करते हुए महाराष्ट्र में पहली बार उनके पद पर रहते हुए निधन होने के बावजूद सरकार ने शोक में छुट्टी की घोषणा नहीं की। शासकीय मानवंदना के बाद हशुजी द्वारा स्थापित विवेकानंद एजुकेशन सोसायटी के परिसर में उनका पार्थिव दर्शनार्थ रखा गया एवं कामकाज का समय समाप्त होने के बाद शाम 5:00 बजे जब उनकी अंतिम यात्रा निकली तब 50,000 से अधिक लोग उसमें शामिल हुए। अपना घर द्वार छोड़कर सिंध से भारत आए हशुजी भारत माता की सेवा हेतु आजन्म अविवाहित रहे। सांसारिक दृष्टि से वे परिवार वाले ना होते हुए भी उनके द्वारा बनाए गए परिवार के लोग 22 जुलाई 2020 को हशुजी के जाने के 25 वर्ष बाद भी उन्हें याद कर रहे हैं।

आज देश के प्रधानमंत्री भी भारतीय जनता पार्टी के हैं। मुंबई में भी भारतीय जनता पार्टी के तीन सांसद, 20 विधायक एवं पचासी पार्षद हैं। यह मुकाम हासिल करने में अनेकों का योगदान है। इन सब में संन्यासी हशु आडवाणी हमेशा अग्रणी रहेंग

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