कांग्रेस बेचारी, अंदरूनी कलह की मारी

कांग्रेस का वर्तमान नेतृत्व इतना लचर, अक्षम व कमजोर है कि अपने ही नेताओं के बीच उत्पन्न स्वार्थप्रेरित अंदरूनी कलह से पार नहीं हो पा रही है। ऐसे समय में जनता यह निश्चित जानती है कि देश की बागडोर कौन ठीक तरह से सम्हाल रहा है। अन्य बातें व्यर्थ की हवाबाजी हैं।

देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस इस वक्त कुछ अंतर्द्वंद्वों में घिरी हुई है। पार्टी के भीतर युवा बनाम उम्रदराज नेताओं के बीच अपना महत्व दिखाने की एक प्रतिस्पर्द्धा सी छिड़ी हुई है। बहुत से लोगों को शिकायत रहती है कि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है, जहां केन्द्रीय नेतृत्व की राय की परवाह किए बगैर क्षेत्रीय नेता अपनी-अपनी राय बेझिझक दे रहे हैं। अयोध्या मे निर्माण होने जा रहे राम मंदिर को लेकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान होगा, यह कांग्रेस ने पहले ही कह दिया था, इसलिए राम मंदिर निर्माण के विरोध का कोई औचित्य नहीं है। पर भूमिपूजन से पहले खुद हनुमान चालीसा का पाठ करना या उसके शुभ-अशुभ मुहूर्त को लेकर टिप्पणी करना पार्टी लाइन के हिसाब से कितना उचित है, यह सोचना होगा। लेकिन नेतृत्वविहीन कांग्रेस में दिग्विजय सिंह से लेकर लोकल स्तर तक के बड़बोले नेता अपनी अपनी राय मनचाहे अंदाज में बरगलाते रहते हैं। फिलहाल सोनिया गांधी अंतरिम अध्यक्ष का पद संभाल रही हैं। अब तक कांग्रेस में पूर्णकालिक अध्यक्ष को लेकर कोई फैसला नहीं हो पाया है। हाल ही में एक बैठक में गांधी परिवार समर्पित कार्यकर्ताओं से फिर यह मांग उठी कि राहुल गांधी को नेतृत्व संभालना चाहिए। राहुल गांधी ने आम चुनावों में मिली हार की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था। कांग्रेस की बैठक में राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने मांग जिस तरह से उठी, उससे यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या पार्टी के पास और कोई सक्षम नेता नहीं है? यदि राहुल को फिर पार्टी अध्यक्ष बनाने की जरूरत आ गई है तो फिर उन्होंने यह पद छोड़ा ही क्यों था? वास्तव में कांग्रेस की समस्या केवल यह नहीं कि वह अपनी गलतियों पर गौर करने को तैयार नहीं, बल्कि यह भी है कि वह परिवार से आगे और कुछ देखने की दृष्टि खो चुकी है।

आजकल कांग्रेस में टकराव का कारण युवा बनाम अनुभवी नेताओं की महत्वाकांक्षाएं हैं। इसकी ताजा मिसाल ज्योतिरादित्य सिंधिया से लेकर सचिन पायलट तक की बगावत है। परंपराओं से कांग्रेस में चली आ रही नेहरू और गांधी परिवार के सत्ता हथियाने कि रीति के कारण जनता के बीच कांग्रेस की छवि वंशवाद और एक परिवार की पूजा करने वाली पार्टी जैसी बनी है। उनसे इसी बात की पुष्टि होती है कि कांग्रेस न केवल दिशाहीनता से ग्रस्त है, बल्कि वह एक तरह की खेमेबाजी से भी ग्रस्त है। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि कांग्रेस यही नहीं तय कर पा रही कि उसे अपनी पराजय पर आत्ममंथन कैसे करना है?

अब दिशाहिन हो रही कांग्रेस ने देश भर में ’लोकतंत्र ’के लिए आवाज उठाई थी। ‘स्पीक अप फॉर डेमोक्रेसी’ नाम से अभियान की शुरूआत की थी। सोशल मीडिया पर लोकतंत्र बचाने की आवाज उठाने के साथ-साथ कई राज्यों में राजभवनों के सामने कांग्रेस नेताओं ने धरने-प्रदर्शन किए थे। बहुत जल्द देश आजादी की 73वीं वर्षगांठ मनाएगा। 7 दशकों से भी लंबे समय में हमारे लोकतंत्र को परिपक्व और मजबूत हो जाना चाहिए था। 60 सालों तक परिवारवाद के सहारे देश की सत्ता की कमान नेहरू और गांधी परिवार ने अपने हाथों में रखी है थी। लेकिन विडंबना ये है अब देश की जनता ने कांग्रेस को विपक्ष में बैठा दिया है। ऐसे में सत्ता के लिए लालायित कांग्रेस को लोकतंत्र के हक में झूठी आवाज उठाने की मुहिम छेड़नी पड़ रही है। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने एक ट्वीट किया कि ’भारत का लोकतंत्र संविधान के आधार पर जनता की आवाज से चलेगा। भाजपा के छल-कपट के षड्यंत्र को नकारकर देश की जनता लोकतंत्र और संविधान की रक्षा करेगी।’ इसी को घड़ियाल के आंसू रोना कहते हैं। जिस कांग्रेस ने आपातकाल लगाकर देश के महान लोकतंत्र और संविधान की हत्या की थी, वही कांग्रेस अब सत्ता से दूर होने के बाद लोकतंत्र और संविधान की गुहार लगा रही हैं। लेकिन वह आंदोलन बेअसर रहा, घड़ियाली आंसू रोने वाली कांग्रेस और उसकी सारी करतूतों को भारत की जनता भूली नहीं है।

यहां कांग्रेस का रोने का कार्य शुरू है। इतने समय में मोदीजी लद्दाख तक हो आए, कारगिल विजय दिवस पर सेना का मनोबल बढ़ाने वाली बातें भी बोल दीं। 29 जुलाई को राफेल विमान भी फ्रांस से भारत आए। जल्द ही लद्दाख में मिशन पर लग जाएंगे। पांच अगस्त के पावन अवसर पर राम जन्मभूमि पर भव्य राम मंदिर का शिलान्यास समारोह संपन्न हो गया। जो भारत के तमाम हिंदुओं की भावनाओं से जुड़ा है। राजस्थान से लेकर राफेल तक, कारगिल से लेकर राम मंदिर तक भाजपा को हर तरह से लाभ मिल रहा है। देश की जनता समझदार है, मोदी से ही लोकतंत्र बचेगा और देश की सीमाएं भी बचेगी, इस बात पर देश का भरोसा बढ़ रहा है।

अपनी अंदरूनी खामियों के कारण कांग्रेस के सर पर राजस्थान का संकट मंडरा रहा है। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं कि कांग्रेस यह नहीं तय कर पा रही है कि उसे अपनी इस दयनीय स्थिति पर आत्ममंथन कैसे करना चाहिए। जिस तरह यह सवाल उठा कि क्या कांग्रेस की 2014 और 2019 की पराजय के लिए नरेन्द्र मोदी जिम्मेदार है? उससे तो यही पता चलता है कि एक बेहद जरूरी सवाल की अनदेखी की जा रही है। हालांकि 2014 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की करारी हार के कारणों का पता लगाने के लिए ए.के.एंटनी के नेतृत्व में एक समिति गठित की गई थी, लेकिन कोई नहीं जानता कि उसकी रपट पर कोई विचार क्यों नहीं हुआ? यदि विचार हुआ होता तो शायद कांग्रेस अपनी उन गलतियों को ठीक कर पाती, जिनके चलते उसे फिर 2019 के ऐतिहासिक पराजय का सामना करना पड़ा।

आज राजस्थान में जो कुछ हो रहा है, उसके लिए कांग्रेस का कमजोर और अनिर्णय से ग्रस्त नेतृत्व भी जिम्मेदार है। यह संभव नहीं कि वह इससे अनभिज्ञ हो कि अशोक गहलोत और सचिन पायलट में बन नहीं रही है। आखिर ऐसी कोई सरकार सही तरह कैसे चल सकती है जिसके मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री के बीच संवाद न हो? राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री पद से सचिन पायलट की जिस तरह छुट्टी की गई उसके बाद उनके सामने अलग राजनीतिक रास्ते पर चलने के अलावा और कोई उपाय नहीं रह गया है। अभी यह कहना तो कठिन है कि वह किस रास्ते पर जाएंगे, लेकिन यह साफ दिख रहा है कि कांग्रेस ज्योतिरादित्य सिंधिया के बाद एक और युवा नेता को खोने जा रही है। इस पर गौर करें कि हाल के समय में जो तमाम जनाधार वाले नेता एक-एक करके कांग्रेस से दूर हो रहे हैं। ऐसे नेताओं को खोने वाली कांग्रस का भविष्य शुभ नहीं कहा जा सकता। कांग्रेस में घुटन महसूस करने वाले युवा नेताओं की संख्या बढ़ती दिख रही है। इससे विचित्र और कुछ हो सकता है कि कांग्रेस सचिन पायलट सरीखे युवा, स्वच्छ छवि और जनाधार वाले नेता की महत्वाकांक्षा को तो पूरा करने में नाकाम है, मध्यप्रदेश में डेढ़ साल पुरानी जमी-जमाई कांग्रेस सरकार उखड़ चुकी थी। कांग्रेस में बगावत का चेहरा बने ज्योतिरादित्य सिंधिया।

राजस्थान भाजपा में वसुंधरा राजे फैक्टर को कैसे भूला जा सकता है, ऐसे में एक और महत्वाकांक्षी नेता को शामिल करना भाजपा के लिए कितना फायदेमंद होगा यह भी सोचने वाली बात है? पायलट ने खुद ही कहा है कि वे भाजपा में शामिल नहीं होने जा रहे। इस बीच, चर्चा यह भी चल पड़ी कि वे नई पार्टी की घोषणा कर सकते हैं। इस तरह प्रदेश में तीसरे मोर्चे का गठन हो सकता है। ‘प्रगतिशील कांग्रेस’ के नाम से तीसरा मोर्चा खड़ा करने की संभावना है। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि पायलट के पास अब विकल्प कम बचे हैं। कहा जा रहा है कि वे नए क्षेत्रीय दल की नींव डालकर आगे बढ़ेंगे, लेकिन राजनीतिक पंडितों का कहना है कि राजस्थान की धरती पर कोई तीसरा दल पनपा नहीं है। कुछ विश्लेषकों का कहना है, पायलट के लिए भाजपा ही आसान रनवे हैं। वहीं कुछ का यह भी कहना है, पायलट के सामने जो रास्ता है, वो तंग है। भाजपा में जाते हैं, तो उन्हें कितना स्वीकार किया जाएगा, यह देखने की बात होगी। कांग्रेस में बगावत के बीच भाजपा ने कहा है कि पार्टी के दरवाजे हर उस व्यक्ति के लिए खुले हैं जो हमारी विचारधारा मानता है।

राजस्थान में लंबे समय से चल रहे इस सियासी संकट के मूल में कांग्रेस पार्टी की दिनोंदिन खराब होती स्थिति भी है। पार्टी की स्थिति किसी से छिपी नहीं है। जो पार्टी लंबे समय से स्थायी अध्यक्ष नहीं तय कर पा रही हो, वह पार्टी के भीतर उठ रहे इस तरह के असंतोष से कैसे पार पाएगी, यह बड़ा सवाल है। कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश में आपरेशन लोटस को सफल अंजाम दे चुकी भाजपा अब काफी उत्साहित हो चुकी है। जब उसे मरूभूमि राजस्थान में कमल खिलाने के लिए कीचड़ तैयार होता दिखा। पायलट का जहाज रनवे पर तो खूब शोर के साथ दौड़ा, लेकिन उड़ान भरने में कामयाब नहीं हुआ। चीन से भारत का यशस्वी संघर्ष, राम मंदिर का शिलान्यास समारोह, राफेल का आना ये बातें देश की जनता को विश्वास दे रही हैं। ऐसे में कांग्रेस अपने नेताओं के स्वार्थ से निर्माण हुई अंदरूनी कलह को निपटाने में सामर्थ्यहीन, कमजोर और निर्णय लेने में असमर्थ कांग्रेसी नेतृत्व आज देश की जनता के सामने आ रहा है। ऐसे समय में ये ‘ये पब्लिक है सब जानती है’ की तर्ज पर जनता सचमुच यह जानती है कि देश की बागडोर कौन ठीक तरह से सम्हाल रहा है।

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