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जलसंवर्धन

जलसंवर्धन

by विद्याधर वालावलकर
in पर्यावरण, फरवरी-२०१२
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मानव की बौध्दिक क्षमता की उड़ान को देखकर कभी-कभी हमें लगता है कि हम ‘विज्ञान’ की सहायता से प्रकृति के ऊपर हावी होने में सफल हुए हैं। फिर भी एकाध सुनामी भी हमें अपनी सीमाओं का रेखांकन कर दिखाती है। एकाध भूकंप भी विज्ञान पर हमारे विश्वास को डांवाडोल कर देता है।

भगीरथ अथक प्रयास से गंगा को धरती पर ले आये। गंगा का समूचा भार अपने माथे पर धारण करके शिवजी ने अपनी जटा में से हिमालय द्वारा जलस्त्रोत निर्माण किया। इन जलौघों का संस्कृति ने नामांकन किया। निरंतर उन्नति करनेवाले मानव ने इन्हीं जलौघों को केंद्रीभूत कर अपनी संस्कृति का गठन किया, समृद्धि प्राप्त की।

प्रकृति एवं मानव के सहजीवन से फूलते-खिलते मानवी जगत ने तब जाकर प्रकृति पर हावी होने की सोची। प्रकृति को सनकी-झक्की कहते, उसे भी नियमों की परिधि में बांधने के प्रयास आरंभ किया। मुक्त रूप में अपने प्रवाहों को मोड़ते हुए पास-पड़ोस की भूमि को सुजलाम् सुफलाम् करानेवाली नदियां पक्की दीवारों के बीच में से बहने लगीं। रास्तों की, फूलों की, मकानों की भीड़ में खो जाने लगीं।

फिर अप्राकृतिकता की होड़ लगे मानव ने अपने कर्तृत्व के बल पर असीम जनसंख्या को जन्म देते हुए धरती की पीठ पर बोझ को बढ़ा दिया और मानव के समग्र जीवन की, तृष्णा की पूर्ति करनेवाली एवं मानव के मन से लेकर देह तक के सभी कलंक और मैला आदि को अपने में समा लेनेवाले नदी-नाले गटरों में रूपांतरित हुए। मानव का सांस्कृतिक प्रदूषण अहिस्ता-अहिस्ता जलाशयों, नदियों, बरसाती नदियों आदि के माध्यम से सीधे सागर तक जा पहुंचा।

मानव की बौद्धिक क्षमता की उड़ान को देखकर कभी-कभी हमें लगता है कि हम ‘विज्ञान’ की सहायता से प्रकृति के ऊपर हावी होने में सफल हुए हैं। फिर भी एकाध सुनामी भी हमें अपनी सीमाओं का रेखांकन कर दिखाती है। एकाध भूकंप भी विज्ञान के ऊपर होनेवाले हमारे विश्वास को डांवाडोल कर देता है।

प्रगति की हरेक संकल्पना में मूलभूत स्तर पर जिन प्राकृतिक घटकों का सहयोग होता है, ऐसे वायू, जल और साथ ही मृदा, खनिज आदि को हम अनिर्बंध रीति से लूट रहे हैं। इस लूट के दौरान अनुचित चीज अनुचित स्थान पर पहुंचने से प्रदूषण हो रहा है। जमीन परे स्थिर एवं प्रवाही पानी का इस प्रदूषण में बड़ा भारी सहयोग होता है।

पानी एक बढिया द्रावक है तथा धरती के सभी पदार्थ इस पानी में कम ज्यादा मात्रा में विद्राव्य हैं। प्राकृतिक पानी और खनिजों के संयोग से ‘खनिज पानी’ बनता है। यह पानी ‘मिनरल वॉटर’ के रूप में बेचा जाता है। इस प्रकार के खनिजों से युक्त पानी से ही उत्क्रांत हो रही मानव जाति की आज तक प्रगति होती रही। परंतु आज हम ‘डिमिनरलाइज नल वॉटर’- खनिज हटाया हुआ पानी साफ पानी मानते हैं। इसका कारण यही कि मानव ने अपनी बुद्धिमानी के बल प्राकृतिक स्त्रोतों की प्राकृतिकता में दखल दी है।

कितनी ही जीवनावश्यक दवाइयां, बहुत से बहुपयोगी रसायन, कितने ही कीटनाशक और साथ ही विभिन्न प्रकार के रासायनिक खाद इसे मानवी बुद्धि की विजय अथवा सभी के निर्बुद्ध प्रयोग से हुआ सभी जलस्त्रोतों का प्रदूषण मानवी बुद्धि की पराजय कह सके।

आसमान से बरसनेवाला पानी सब से शुद्ध पानी है। वायु प्रदूषण के नियंत्रण वाली सारी मानव आबादी पर एवं उस परिसर में बरसनेवाला पानी यही हमारा शुद्ध पानी का स्त्रोत होता है। वर्षा की बूंद जमीन को स्पर्श करते ही विभिन्न प्रकार के रसायनों से प्रदूषित होती है। उसी कारण नदियों में से, नालों में से बहनेवाला पानी हो या तालाब-सरोवरों में और बांधों में इकट्ठा हुआ पानी हो, उसमें रासायनिक खाद, रासायनिक पदार्थ कीटनाशक, प्रभावी रसायन बडी मात्रा में मिश्रित मिलते हैं।

जमीन एक बढिया छलनी (फिल्टर) है, परन्तु पानी में घुले-मिले इन विषकणों को जमीन रोक नहीं सकती। इसलिए इन प्रदूषकों से जमीन के भीतर वाला पानी भी बड़े पैमाने पर प्रदूषित होने लगा है। जमीन के नीचे वाले पानी का शुद्धिकरण किया जा सके, ऐसी कोई भी व्यवस्था मानव को उपलब्ध नहीं है। इसके फलस्वरूप जमीन के नीचे वाले जलस्रोत भी बड़ी मात्रा में प्रदूषित होने लगे हैं। इसके माने यही कि शुद्ध पीनेलायक पानी की उपलब्धि आगामी काल की सब से बड़ी समस्या बनने जा रही है।

‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ की समस्या ने मुख्यत: सभी मौसमों की समयसारणी को अस्तव्यस्त करना आरंभ किया है। बारिश की मात्रा, बारिश की कालावधि, बारिश का बारबार होना न होना, एक ही समय बरसने की मात्रा आदि सभी के ऊपर ग्लोबल वॉर्मिंग का असर हुआ है। अनियमित एवं अनिश्चित बारिश से हमारे जीवन के जलचक्र में बिगाड़ होने लगा है और इसीलिए फिर एक बार जलसंस्कृति का ही सहारा लेना जरूरी है।

अतिपराबैंगनी (अल्ट्राव्हायोलेट) किरणों की सहायता से पानी में मौजूद सभी जीवों को मार डालकर शुद्ध किया हुआ पानी पीने की अपेक्षा प्राकृतिक संसाधनों के माध्यम से शुद्ध किया गया, छानने की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध किया हुआ पानी ही ‘जलसंस्कृति’ है। मेहमान का आधा गिलास पानी देकर स्वागत करना यह ‘जलसंस्कृति’ है। पानी माने स्वच्छता। तीर्थ शुद्धता का भाव धारण कर पानी प्रदूषित न करने का निश्चय करना यह ‘जलसंस्कृति’ है। नदियों के, जलौघों का नामकरण करना यह ‘जलसंस्कृति’ है।

‘पानी’ किसी भी समय आनंददायी ही होता है। सभी जलसंचयों के परिसर में प्रसन्न, सर्वथा शुद्ध आनंददायी वायुमंडल निर्माण करना और उसे बनाए रखना जलसंस्कृति का निर्माण करना अपना परम कर्तव्य होगा।

अभी हाल में एक फिल्म महोत्सव के दौरान ‘बाण-गंगा’ पर बनाया हुआ वृत्तचित्र देखते समय महसूस हुआ कि पानी के साथ जुड़ कर बनी हुई सभी प्रकार की संस्कृतियों का अब मूल जलसंस्कृति के साथ मेल कराना आवश्यक है। सभी तीर्थस्थलों के निकट की नदियों की तथा तालाबों की दुर्गति तथा प्रदूषण ही नई पीढी को ‘प्रकृति’ की महान शक्ति के समक्ष नतमस्तक होने से परावृत्त करते हैं- अश्रद्ध बनाते हैं तथा अंधभक्ति, अंध श्रद्धा की ओर आगे बढाते हैं।

पानी की हर एक बूंद अपना महत्त्व रखती है, ऐसी जल संस्कृति को स्थायी बनाना है। हर एक रिसनेवाली टोटी, टपकने वाला पाइप बंद करना है। पानी की फिजूलखर्ची पर रोक लगानी है। पानी के आवश्यक एवं सीमित उपभोग की, उपयोग की संस्कृति स्थापित करनी होगी। पानी को ‘तीर्थ’ मानना है।

पुराण में से समुद्र मंथन की कथा का मुझे बारम्बार स्मरण होता है और वह मुझे बेचैन करती है। पृथ्वी के सभी निवासियों द्वारा शायद प्राकृतिक प्रक्रियाओं के फलस्वरूप सभी सागरों के अस्वच्छ होने से भगवान शंकर रूप अभियंता से प्रार्थना करने पर भगवान ने सभी की सहायता से वासुकी नाग की डोरी तथा पर्वत की मथनी बनाकर समुद्र का मंथन किया। यह क्रिया सीवेज ट्रीटमेन्ट प्लान्ट की ही तो है। मथे जाने पर सब से पहले उसके ऊपर लहरानेवाले घन पदार्थ बाहर आये। उसे विष कहा गया है। उस समूचे विष को शिवजी ने पचा लिया। शिवजी ने शायद कम्पोस्टिंग किया होगा और उसके पश्चात् ‘अमृत’ बाहर आ गया। यह अमृत बाद में उन्होंने देवों को पिलाया। मेरे विचारों में यह अमृत माने शुद्ध पानी होगा।

समुद्र का मंथन कर शुद्ध पानी उपलब्ध कराने के संदर्भ पुराणकाल में भी पाये जाते हैं। ऐसा ही कुछ मामला हमारे समक्ष आज भी उभर रहा है। शायद महासागर का मंथन कर शुद्ध पानी उपलब्ध कराने फिर हेतु से अब प्रौद्योगिकी का भरसक प्रयोग करना जरूरी होगा।

पानी ‘अमृत’ है’- इस सुभाषित के अर्थ-आशय का सही आकलन समूची मानव जाति के अमृत मंथन हेतु किये हुए प्रयासों के फलस्वरूप ही शायद होगा।

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