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संस्कृति और पर्यावरण

संस्कृति और पर्यावरण

by हिंदी विवेक
in पर्यावरण, फरवरी-२०१२
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पिछले कुछ वर्षों से सांरे विश्व में मानव के अस्तित्व पर गहराते संकटों की गंभीरतापूर्वक चर्चा हो रही है। इस चर्चा ने तब अधिक जोर पकड़ा जब अमेरिका सहित अनेक पश्चिमी देशों के ऊपर साठ के दशक में नीली छतरी में छेद देखे गए अर्थात् ओजोन परत में छिद्र होने लगे। उसके बाद तो वायुमंडल, जलमंडल, जीवमंडल, शैलमंडल आदि की विस्तृत विवेचना, विश्लेषण और चिन्ता आरम्भ हो गई। अब तो सभी को ज्ञात हो चुका है कि प्रदूषण अपनी सीमाएं पार कर चुका है, भूक्षरण की गति तीव्र हुई है, कहीं अतिवृष्टि तो कहीं अनावृष्टि हो रही है, पर्वतीय क्षेत्र अस्थिर हैं, रोगाणुओं और विषाणुओं की निरन्तर वृद्धि हो रही है, मानव का अस्तित्व ही संकटापन्न है। हम में से कुछ लोग जानते हुए भी मानने को तैयार नहीं है कि इन सभी मानवीय विपदाओं के लिए उत्तरदायी है पश्चिमी अवधारणा पर आधारित औद्योगिक क्रांति तथा उससे जन्मी जीवन शैली और जीवनादर्श।
हमारे देश की मान्यता रही है कि यह शरीर क्षिति, जल, पावक, गगन और समीर जैसे घटकों से बना है और यही घटक हमें परित: आवृत्त भी करते हैं। भारतीय विचारकों ने प्रतिपादित किया था ‘यद पिण्डे तदैव ब्रम्हांडे’ अर्थात् जो शरीर के अवयव हैं वही बाह्य जगत में हैं, और इसलिए पंच तत्वों से बना हुआ यह शरीर तभी तक स्वस्थ रह सकता है जब तक इन घटकों का बाह्य जगत में सन्तुलन बना है। शरीर नष्ट होने के उपरान्त कहा जाता था ‘‘पंचत्वं गत:’’ अर्थात् शरीर के पांचों तत्व बाह्य तत्वों में जाकर विलीन हो गए। शरीर का निर्माण करने वाले घटक अनेकानेक मंडलों में पाए जाते हैं जैसे वायु मंडल, जल मंडल, शैल मंडल और जीव मंडल आदि।

वायुमंडल
हमारा वायु मंडल अनेक गैसों से मिलकर बना है जिनमें प्रमुख हैं प्राणवायु अर्थात् ऑक्सीजन, नाइट्रोजन और कार्बन डाइआक्साइड। जब पृथ्वी की उत्पत्ति हुई तो इस पर प्राणवायु नहीं थी। शनै: शनै: वनस्पतियों के भोजन बनाने की प्रक्रिया जिसे आज की भाषा में फोटोसिंथोसिस कहते हैं, उससे प्राणवायु का उत्पादन हुआ और आज भी हो रहा है। प्राणवायु का व्यय प्राणियों के सांस लेने, अवांछनीय पदार्थों के सड़ने तथा लकड़ी ईंधन जलने आदि में होता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि मनुष्य का जीवन तभी तक है जब तक प्राणवायु है और प्राणवायु तभी तक है जब तक वन और वनस्पति है। इसी प्रकार कार्बनडाइआक्साइड अर्थात् धुआँ का भी अपना महत्व है। यदि वायुमंडल में इसकी मात्रा अत्यधिक हो जाय तो तापमान बढ़ जाएगा और यदि अतिअल्प हो जाय तो हिमयुग तक आ सकता है। अत: सन्तुलन बना रहना बहुत आवश्यक है। वायुमंडल के ऊपरी भाग में ओजोन की परत है जो सूर्य से आने वाली पराबैंगनी किरणों को रोकती है। ये किरणें मनुष्य की त्वचा को हानि पहुंचाती हैं और कैंसर तक को जन्म दे सकती है। ओजोन परत को क्षति पहुंचाने वाली गैसें हैं क्लोरोफ्लोरो कार्बन, मीथेन, कार्बन मोनोआक्साइड, नाइट्रस आक्साइड आदि। इनमें सबसे अधिक हानिकारक है क्लोरोफ्लोरो कार्बन जो रेफ्रीजरेटरों, एअर कंडीशनर तथा फ्रिज आदि के निर्माण में उपयोग होती है। ये गैसें ओजोन के साथ अभिक्रिया करके उसे नष्ट कर देती हैं और ओजोन परत में छिद्र होने लगते हैं।

वायुमंडल में कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा भी निरन्तर बढ़ रही है जिससे वायुमंडल का तापमान बढ़ रहा है। आशंका यह है कि तापमान बढ़ने से हिमखंड पिघल सकते हैं और समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है जिससे समुद्र के किनारे बसे नगर जलमग्न हो सकते हैं। कार्बन डाइआक्साइड के बढ़ने के प्रमुख कारण हैं कारखानों और वाहनों से तथा लकड़ी ईंधन जलने से निकलता धुआं। इस कार्बनडाइआक्साइड को वृक्ष अपने भोजन के रूप में प्रयोग करके उसके बदले प्राणवायु दे सकते हैं। जैसे भगवान शंकर ने विषपान करके देवताओं और मानव को बचाया था। परन्तु वृक्षों का निरन्तर घटते जाना और अवांछनीय गैसों की हो रही वृद्धि हमारे वायुमंडल की वायु को इतना प्रदूषित कर रही है कि सांस लेने के लिए प्राणवायु घटती जा रही है।

जल मंडल
पृथ्वी पर जल अनेक रूपों में पाया जाता है। पर्वतों पर बर्फ के रूप में मैदानी भागों में नदी, झील, तालाब, समुद्र के रूप में और वायुमंडल में बाष्प के रूप में। पृथ्वी के अन्दर पाया जाने वाला भूजल अपेक्षाकृत अधिक शुद्ध होता है क्योंकि वह शैल परतों और कणों से छनता हुआ अन्दर जाता है। पृथ्वी पर जल मंडल के रूप में विद्यमान जल की सम्पूर्ण मात्रा को जल बजट कहते हैं। यह जल चक्रिक व्यवहार करते हुए एक दूसरे रूपों में रूपान्तरित होता रहता है जिसे जल चक्र की संज्ञा दी जाती है। यदि हम जल चक्र पर विचार करें तो देखेंगे कि समुद्र की सतह से पानी बाष्प बनकर वायुमंडल में जाता है वहां से घनीभूत होकर वर्षा जल के रूप में पृथ्वी पर गिरता है जिसका कुछ भाग पर्वतों पर बर्फ के रूप में जमा रहता है। कुछ भाग प्रतिवर्ष पृथ्वी के अन्दर समावेश करके भूजल के रूप में अवस्थित हो जाता है जैसे किसान अपनी फसल का कुछ भाग भंडारित करता है और शेष भाग नदियों के माध्यम से पुन: समुद्र तक पहुंच जाता है। यह जल चक्र सदैव चलता रहता है।

हमारे देश में जल भंडारण की बहुत पुरानी परम्परा थी। प्रत्येक गांव में एक या दो तालाब, कुएं और बावली आदि अवश्य हुआ करते थे। तालाबों का पानी सिंचाई तथा पशुओं के लिए और कुओं का पानी मनुष्य के पीने के काम आता था। आज पृथ्वी की सतह पर जल भंडारण की परम्परा समाप्त सी हो गई है और सारी आवश्यकताएं चाहे सिंचाई हो, कल कारखाने हों या फिर शौचालयों में फ्लश किया जाने वाला पानी हो, भूजल पर निर्भर हैं। परिणाम यह हुआ कि भूजल का स्तर कुछ स्थानों पर एक मीटर प्रतिवर्ष की दर से नीचे गिर रहा है। आने वाले वर्षों में पीने का पानी मिलना कठिन हो जाएगा। यदि इस संकट से बचना है तो पृथ्वी पर जल भंडारण और जल प्रबंधन की अपनी पुरानी परम्पराओं को पुनर्जीवित करना होगा और भूजल पर से दबाव घटाना होगा।

शैल मंडल
पृथ्वी का बाहरी भाग जिसे भूपर्पटी कहते हैं अपनी सतह पर कणों में टूटती रहती है और इस प्रकार हजारों वर्षों में मिट्टी की परत का निर्माण होता है। इस मिट्टी पर उगने वाली वनस्पति और पेड़ अनेक प्रकार से मिट्टी की रक्षा करते हैं, अपनी पत्तियों से इसे उपजाऊ बनाते हैं और वर्षाजल को भूप्रवेश के लिए अपनी जड़ों के माध्यम से सहयोग प्रदान करते हैं। जिन क्षेत्रों में वनस्पति नहीं रहती वहां की मिट्टी का कटान अधिक होता है, भूजल की मात्रा घटती रहती है और बंजर तथा अनुपजाऊ क्षेत्र का निर्माण होता है। हिमालय का क्षेत्र निर्वनीकरण के कारण पथरीले रेगिस्तान में बदल रहा है। वनों और वनस्पतियों के अभाव में पर्वतीय क्षेत्रों में प्राय: भूस्खलन होता रहता हैं क्योंकि मिट्टी की परत को रोकने का काम करने वाली वनस्पति समाप्त होती जा रही है। हमारे देश के पूर्वज वनों के महत्व को जानते थे और वानप्रस्थ आश्रम में पहुंच कर वनों में निवास करते थे। सुन्दर पर्यावरण की महत्ता को समझते हुए हमारे मनीषियों ने अथर्व वेद में कहा है:

नानावीर्या ओषधीर्या विभर्ति
पृथिवी न: प्रथतां राध्यमां न:
यस्यां समुद्र उत सिन्धुरायो
यस्यामन्नं कृष्टया: संवभूवु:

अर्थात् समुद्र, नदियों और जल से सम्पन्न पृथ्वी जिसमें कृषि और अन्न होता है, जिससे यह प्राणवान संसार तृप्त होता है, वह पृथ्वी हम को फल रूप रस उपलब्ध होने वाले प्रदेश में प्रतिष्ठित करे। अर्थात् आदर्श पर्यावरण की सदैव कामना रहती थी।

जीव मंडल
हमारे पूर्वजों ने बताया है कि यह पृथ्वी 199 करोड़ वर्ष पुरानी है और इस पर 84 लाख जीव प्रजातियां निवास करती हैं। इनमें मनुष्य सर्वाधिक उन्नत प्रजाति है फिर भी अन्य प्रजातियों का अपना महत्व है और उन्हें भी जीवित रहने का अधिकार है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं कि लख चौरासी में भरमाया, अन्तकाल मानुस तन पाया। आज का वैज्ञानिक भी 30 लाख प्रजातियों की बात करता है और मनुष्य को सर्वाधिक विकसित प्राणी मानता है परन्तु मनुष्येतर प्रजातियों के प्रति दृष्टिकोण में बहुत अन्तर है। जब कोई भारतीय संस्कृति को मानने वाला व्यक्ति किसी पशु, पक्षी अथवा वृक्ष को देखता है तो उसे सहजीवी प्राणी के रूप में देखता है जब कि अन्य लोग भेड़, बकरी, ऊंट, मुर्गा, भैंसा सभी को परमेश्वर की दी हुई नेमत समझते हैं और उन सब को अपना भोजन मानते हैं। शोचनीय विषय यह है कि यदि हम सभी प्रणियों को जीवित रहने का अधिकार नहीं देंगे तो जैव विविधता को बचाकर रखने की बात नितान्त बेमानी होगी।

जैव विविधता की रक्षा के लिए आवश्यक है कि जीवों के प्रति सहजीवी और स्नेह भाव। हमारे परिवारों में यदि कोई बच्चा अकारण किसी जीव को मार रहा है तो घर के बड़े लोग उसे रोकते हैं। इसके विपरीत यदि किसी पशु का गला थोड़ा सा काट दिया जाय, उसे तब तक तड़पने दिया जाय जब तक उसके शरीर का सारा खून न निकल जाय और छोटे बच्चे यह दृश्य देखते रहें तो उनके मन की संवेदनशीलता समाप्त हो जाएगी। बड़े होकर उन्हें पशुओं अथवा मनुष्यों को मारने काटने में दयाभाव नहीं रहेगा। यह मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन का अच्छा विषय है कि क्रूरता के दृश्य देखते देखते बालक का व्यक्तित्व संवेदनहीन बनेगा अथवा नहीं। मेरे विचार से यदि हम जैव विविधता को बचाना चाहते हैं तो बच्चों में भारतीय संस्कृति की अहिंसा को आधार बनाकर उनका व्यक्तित्व विकास करना होगा।

किसी भी देश के पर्यावरण का सीधा सम्बन्ध वहां के रहने वालों की जीवन शैली और उनके जीवनादर्शोें से होता है। किसी समाज की संस्कृति यह निर्धारित करती है कि वहां के लोगों का प्राकृतिक संसाधनों के प्रति कैसा दृष्टिकोण होगा और यह दृष्टिकोण ही निश्चित करता है कि हम पृथ्वी को माता मानेंगे या फिर दासी का स्थान देंगे। इसी दृष्टिकोण से वहां के पर्यावरण का निर्धारण होता है। हमारे देश का पर्यावरण रमणीक था, शस्य श्यामला धरती थी और उस पर विकसित होने वाले उदात्त, आध्यात्मिक विचार थे। जो लुटेरे यहां आए और विध्वंस का तांडव किया उनके वहां न सुन्दर पर्यावरण था और न सद्विचार। जहां सद्विचार होते हैं वहां अच्छे पर्यावरण का निर्माण सम्भव है और जहां अच्छा पर्यावरण है वहां सद्विचार होते हैं वहाँ अच्छे पर्यावरण का निर्माण सम्भव है और जहां अच्छा पर्यावरण है वहां सद्विचार स्वत: आते हैं। हमारे मनीषियों ने यजुर्वेद में कहा है:

उपह्वरे गिरीणाम् संगमे च नदीनाम् धिया विप्रो अजायत

अर्थात् पर्वतों के समीप, नदियों के संगम स्थल पर तथा अन्य पवित्र स्थानों में अपने साधन और श्रेष्ठ बुद्धि के द्वारा ब्राह्मणत्व की प्राप्ति होती है। इस ब्राह्मणत्व का जात पांत से कोई लेना देना नहीं है। यह श्रेष्ठ विचारों की बात की जा रही है। हमारे मनीषियों का मानना था कि यह पृथ्वी बहुत पुरानी है, इसके साथ हमारा नाता भी उतना ही पुराना है और इस पर हमें बार-बार आना है। अत: इसे संजोकर रखना है। मध्यपूर्व से आए लुटेरों की धार्मिक चेतना में था कि इस धरती पर जो कुछ नेमत परमेश्वर ने बख्शी है वह इंसान के लिए है और उनकी सोच थी कि इस धरती पर चौदहवीं सदीं में कयामत आने वाली है लिहाजा जल्दी-जल्दी सब कुछ भोग लो, खा लो। यही सोच पश्चिमी विचारकों का था कि परमेश्वर का आदेश है कि इस धरती का शोषण करो क्योंकि केवल एक ही जीवन मिला है सुख भोगने के लिए। ऐसी विचारधाराओं के चलते पर्यावरण का विनाश होना ही था और हुआ भी। भारत तथा अमेरिका के विषय में नीचे दिए गए आंकड़े बता रहे हैं कि घनी आबादी और निर्धनता के बावजूद हमारे देश की पर्यावरण बिगाड़ने में कितनी कम भूमिका रही है:

भारत अमेरिका
ठोस कचरा (करोड़ टन में) 3.52 23.0
ग्रीन हाउस गैसें 4.18 17.8
प्रति व्यक्ति पानी की
खपत (गैलन में) 13 188.0
ऊर्जा खपत (करोड़ बी
टी यू में) 12.1 308.0

स्पष्ट है कि अपनी आवश्यकताओं को सीमित करते हुए जीवन यापन करने की भारतीय प्रवृत्ति पर्यावरण संरक्षण में अत्यधिक सहायक हो सकती है। इसी प्रकार भोगवादी संस्कृति का एक अन्य उदाहरण मांसाहार के रूप में हमारे सामने आता है, इस विषय में कुछ आंकड़ों पर ध्यान देने की आवश्यकता है:

1) सोलह किलोग्राम अन्न पशुओं को खिलाकर अमेरिका में एक किलोग्राम मांस प्राप्त होता है।
2) एक एकड़ भूमि में 100 क्विंटल आलू पैदा किया जा सकता है और यही भूमि यदि मांस हेतु पशु आहार उत्पादन में प्रयोग हो तो एक क्विंटल से भी कम मांस मिलेगा।
3) मांसाहारी आबादी की अपेक्षा यह पृथ्वी दस गुना से भी अधिक शाकाहारी आबादी का भार वहन कर सकती है। यह तथ्य भारत जैसे घनी आबादी वाले देश के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
4) मांसोत्पादन में अन्नोत्पादन की अपेक्षा 100 गुना अधिक पानी व्यय होता है।
5) लागत की दृष्टि से देखें तो मांसाहारी प्रोटीन की कीमत शाकाहारी प्रोटीन से कम से कम 10 गुना अधिक है।
6) स्वास्थ्य की दृष्टि से मांसाहार की अपनी समस्याएं हैं जिन्हें आज पश्चिमी वैज्ञानिक भी जानते और मानते हैं।
उपरोक्त से स्पष्ट है कि शाकाहार का भारतीय विचार मानते हुए यह पृथ्वी मांसाहारियों की अपेक्षा दस से सोलह गुनी अधिक आबादी का पालन-पोषण कर सकती है।

उल्लेखनीय प्राचीन संस्कृतियां

इतिहासकारों ने प्राचीन सभ्यताओं के विलुप्त होने का वर्णन करते समय उनके अक्षम नेतृत्व, सैन्य बल की कमी, सामरिक पराजय, महामारियों का प्रकोप और जलवायु में परिवर्तन आदि कारकों की चर्चा तो की है परन्तु मिट्टी, वन, जल प्रबन्धन, सिंचाई, मृदा अपक्षय आदि विषयों के साथ शासन व्यवस्था को न तो जोड़ने का प्रयास किया है और न इनकी भूमिका का उल्लेख हुआ है। विलुप्त हो चुकी सभ्यताओं में ग्वाटेमाला की टिकाल सभ्यता, पीरू की चैन चैन सभ्यता, मेक्सिको की माया सभ्यता और मध्य पूर्व की बेबिलान सभ्यता उल्लेखनीय है। मध्य पूर्व की बेबिलान सभ्यता के समय सिंचाई की नहरों का जाल बिछा था, हरियाली, खुशहाली और सम्पन्नता थी। वहां की नहरें बालू-मिट्टी से इसलिए भर गईं कि ऊंचे भागों में जंगलों का अत्यधिक कटान और मृदा अपक्षय हुआ। इस प्रकार सीरिया, ईराक, लेबनान और तुर्की की भूमि और जलवायु की दुर्दशा के लिए स्वयं मनुष्य उत्तरदायी है। मध्ययुग में स्पेन एक समुद्री महाशक्ति बन गया था परन्तु जहाजों के बनाने में स्पेनवासियों ने इतने जंगल काट डाले कि स्पेन वीरान हो गया। मैक्सिको की माया सभ्यता इसलिए विलुप्त हुई कि वहां की धरती में इतनी धारक क्षमता नहीं थी कि वह अत्यधिक आबादी का पोषण कर सकती। इतिहास का यही संदेश है कि जो सभ्यताएं प्रकृति सुन्दरी की गोदी में खेलती रहेंगी वही भविष्य में पल्लवित और पुष्पित होंगी। भारतीय मानसिकता, आस्थाएं और जीवन शैली में बिगड़ते पर्यावरण की चुनौतियों को झेलने की अन्तर्शक्ति विद्यमान है।

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