भोजन के लिए भटकते वन्य जीव

पिछले कुछ सालों से हम पढ़ रहे हैं और सुन रहे हैं कि कर्नाटक राज्य के दण्डेली क्षेत्र के जंगलों से जंगली हाथियों के कुछ झुण्ड गोवा मार्ग से महाराष्ट्र के कोकण व कोल्हापुर जिले के जंगलों में प्रवेश कर रहे हैं। दण्डेली के जंगल वैसे समृध्द हैं। आवास के लिए गोवा की वनसृष्टि भी हाथियों के लिए अनुकूल है। लेकिन वहां के खनन कार्य के कारण उन्हें शांति नहीं मिलती। अंत में उन्होंने महाराष्ट्र के वनों का आश्रय लिया। इसी तरह ओडिशा राज्य से आंध्र प्रदेश में हाथियों का स्थलांतर हो रहा है। इन हाथियों को राज्य की सीमाएं पता नहीं होती। जहां भोजन मिलेगा वहां वे जाएंगे।
कुछ दिन पहले एक समाचार पढ़ा कि मध्यप्रदेश के बांधवगढ व्याघ्र परियोजना से नील गायों के झुण्ड जंगल से बाहर आकर आसपास के खेतों को नुकसान पहुंचाते हैं।

मेलघाट व्याघ्र परियोजना के तृणभक्षी प्राणी प्यास बुझाने के लिए मध्यप्रदेश की तापी नदी तक जा रहे हैं। विदर्भ के जंगलों से तेंदुए पडोस के गांवों में घुस कर हंगामा मचा रहे हैं। यही नहीं अब बाघ भी प्यास बुझाने के लिए कुंए में छलांग लगा रहे हैं।
हम जरा क्षणभर सोचें कि जंगल में रहने वाले प्राणी गांवों में प्रवेश क्यों करते हैं? इस तरह का विचार कितने पर्यावरण प्रेमियों या वन अधिकारियों ने किया है?

वन्य प्राणियों के इस अचानक स्थलांतर के तीन प्रमुख कारण हैं। एक‡ निवासस्थान सुरक्षित नहीं, दो‡ भोजन पाने की मुश्किलें, तीन‡ पानी की कमी। तीनों एकत्रित कारणों से भी स्थलांतर होता है।

तृणभक्षी प्राणियों को उन संरक्षित वनों में घास व चारा उपलब्ध होता है क्या? उनकी संख्या और उससे उनकी आवश्यकता के अनुसार उस क्षेत्र में घास व चारा उपलब्ध है क्या? इन प्राणियों के लिए जरूरी उतने पनघट, पानी के सोते, बांध अथवा तालाब उपलब्ध है क्या?

तृणभक्षी प्राणियों पर बाध, तेंदुए, जंगली कुत्ते व अन्य मांसाहारी प्राणी निर्भर हैं। उन मांसाहारी प्राणियों की आवश्यकता के अनुसार तृणभक्षी उपलब्ध है क्या?

घास के चरागाहों में अन्य अनावश्यक वनस्पतियों का क्या आक्रमण हो रहा है? ऐसे चरागाहों का क्या विकास किया जा रहा है? क्या अच्छी किस्म की घास उगाई जा रही है? विभिन्न किस्मों के फूलपौधें क्या उगाए जा रहे हैं?

वनाधिकारी के रूप में मेरी सेवा में राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों और व्याघ्र परियोजनाओं का प्रबंध करने में 24 वर्ष बीते हैं। मेरे समय में इन सारी बातों का विचार कर उन पर अमल किया जाता था।

सेवानिवृत्ति के बाद पिछले 20 वर्षों में मैंने महाराष्ट्र के कई राष्ट्रीय उद्यानों और अभयारण्यों का दौरा किया है। मध्यप्रदेश के अनेक व्याघ्र परियोजनाओं में मैं जानबूझकर गया हूं। संबंधित वन अधिकारियों से चर्चा की। मेरे ध्यान में यह बात आई कि प्राणियों की मूलभूत आवश्यकताओं का हम कभी विचार नहीं करते। अन्यथा वर्तमान में वन्यप्राणी प्रबंध की जो दैनावस्था हुई वह न होती।

अंग्रेज पादरियों ने गांव‡गांव में गिरजाघर बनाए। उस क्षेत्र को सुशोभित करने के लिए फूलों की बगिया लगाई। इसके लिए तेजी से बढ़ने वाली लैंटाना नामक वनस्पति की अनेक किस्में विदेश से लाईं। पश्चिम महाराष्ट्र में इस वनस्पति को ‘घाणेरी’ अथवा ‘टणटणी’ और विदर्भ में ‘रायमुनिया’ कहते हैं।

गांव की सीमा लांघ कर इस वनस्पति ने कब जंगल पर अतिक्रमण किया इसका हमें पता तक न चला। महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश व मध्य प्रदेश के जंगलों में यह वनस्पति बड़े पैमाने पर फैली है। सम्पूर्ण पश्चिम घाट, विंघ्य पर्वत और अन्य पर्वत इस वनस्पति की चपेट में हैं। उसकी व्याप्ति भयावह है। यह बात हमारे ध्यान में आई होगी, लेकिन उसे गंभीरता से नहीं लिया गया।

आज अपने जंगलों के चरागाह, खाली जगह, पनघट और तालाब के किनारे वाला क्षेत्र इस वनस्पति से घिर गया है। इसका प्रसार इतना प्रचंड है कि उन्हें पूरी तरह नष्ट करना कठिन और आर्थिक दृष्टि से घाटे का सौदा है। पांच‡ छह फुट बढ़ने वाली इस वनस्पति का विस्तार बड़े पैमाने पर होता है। उनमें कांटें होते हैं। पशु उनको मुंह तक नहीं लगाते। ईंधन के रूप में भी उसका कोई उपयोग नहीं है। लेकिन मणियों जितने बड़े इसके फल भालू और फलाहारी पक्षी अवश्य खाते हैं।

रायमुनिया का समूह इतना बड़ा होता है कि कई बार वे जंगल में हरे टापू बन जाते हैं। कर्नाटक के बंदीपुर व्याघ्र परियोजना में एक उन्मत्त हाथी ने एक वन अधिकारी का पीछा किया। वह अधिकारी उससे बचने के लिए रायमुनिया के अभेद्य टापू के चारों ओर चक्कर लगाता रहा। हाथी ने उसी समय उलटी दिशा ले ली और उसे गिरा कर दो टुकड़े कर दिए।

मेलघाट में एक बार एक भालू एक अभेद्य टापू पर बैठ कर बाएं व दाएं हाथ से रायमुनिया के फल खिंच कर खा रहा थाा मेलघाट में इस वनस्पति ने बांस के जंगल तबाह कर दिए हैं। अब वहां बांस के टापू क्वचित ही दिखते हैं। घास के चरागाह घेरे में ले लिए। तृणभक्षी प्राणियों को घास मिलना दूभर हो गया। स्वाभाविक रूप से वे भोजन की खोज में जंगल से बाहर आने लगे।

जमीन और जंगल पर जिस तरह रायमुनिया ने आक्रमण किया है वैसे ही आयपोमी नामक वनस्पति ने नदियों के पात्र, जलाशय व पानी के सोते के इलाके काबिज किए है। पहले जलाशय के किनारे देवधान यानी वाइल्ड राइस पैदा होता था। विशेष रूप से भंडारा, गोंदिया, चंद्रपूर व गडचिरोली तालाबों का प्रदेश है। ये पुराने तालाब और सरोवर कोहली समाज के विशेषज्ञों ने बनवाए। जलाशय का पानी साफ रखने के लिए उन्होंने अनेक जल वनस्पतियां लगाईं। तालाबों और बांधों पर ऐसी वनस्पतियां लगाने से उन पेड़ों के फल जलाशय में गिर कर पानी साफ व स्वास्थ्यकर रखते हैं।

जहां पहले जलाशयों के किनारे देवधान आते थे उसकी दलदल में चीला अर्थात डक बीड़ आता था। अब वहां यह दिखाई नहीं देता। देवधान व चीला साइबेरिया से आने वाले जंगली बत्तखों का मुख्य भोजन है।

बेशरम नामक वनस्पति जिस तरह जमीन पर तेजी से फैलती है उसी तरह वह पानी में भी बढ़ती है। सिंचित कीचड़ का जमीन में रूपांतर करते हुए वह पानी की दिशा में बढ़ती जाती है। इस वनस्पति को लम्बे व मोटे कंदमूल होते हैं। पत्ते विषैले होते हैं। उसकी जड़ों के आश्रय में विषैले सांप होते हैं। एक बार यदि यह वनस्पति पानी में स्थिर हो गई कि उसे नष्ट करना बड़ी जिद और बड़े खर्च का काम बन जाता है। अब तक उसे जडृमूल से नष्ट करना किसी के लिए संभव नहीं हुआ है।

ब्रिटिशों ने भारत छोड़ते समय हमें दो राक्षस भी दिए‡ अहिरावण व महिरावण। एक जंगल में बढ़ता है तो दूसरा जलाशयों में। दुर्भाग्य से इन दुश्मनों की व्याप्ति की किसी को कल्पना नहीं है। यदि ऐसा होता तो हम उसे मौन रहकर बढ़ने नहीं देते।

इन जलाशयों पर लाखों प्राणी निर्भर होते हैं। साइबेरिया से आने वाले जंगली बत्तख कुछ समय वहां रुकते हैं। तालाब के किनारे वाले इमली के पेड़ पर जलपक्षियों के घोंसले होते हैं। वहां उनके बच्चे बढ़ते होते हैं। देवधान के आश्रय से लाखों बच्चे जन्म पाते हैं। कोलकाता से अनावश्यक मछलियों के बीज लाए गए। इन मछलियों ने जलपक्षियों के लिए जरूरी वनस्पतियां चट कर तालाबों को बांझ बना दिया।

नए बांध बनाने के बजाय विदर्भ के ये पुराने तालाब साफ किए गए, उसका कीचड़ निकाल दिया तो हमें पानी के संकट का कभी सामना नहीं करना पड़ेगा।

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