नदियों में बहती विष-धाराएँ

देश की जिन नदियों में कभी निर्मल जल की धारा बहती थी आज वहाँ दुर्गन्ध और सड़ाध के भभके उठते रहते हैं। इन नदियों का पानी प्रदूषण के खतरे की सभी सीमाएँ पार कर चुका है। जमीन के भीतर की ऊपरी सतह का जल भी प्रदूषण के चपेट में है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इस प्रदूषण को रोकने या खत्म करने के लिए भारी भरकम बजट वाली योजनाएँ तो बनी हैं और इन योजनाओं पर अरबों रुपये भी खर्च किये जा चुके हैं लेकिन सफाई के मामले में इनकी हालत ज्यों की त्यों है। यह देखकर अचरज होता है कि आखिर हमारा सरकारी तंत्र करता क्या है? हर काम उसके नियंत्रण में है लेकिन वह किसी कार्यक्रम या योजना के क्रियान्वयन के लिए जिम्मेदार नहीं है। ‘कैग’ की रिपोर्ट में इस तथ्य का खास तौर से उल्लेख किया गया है कि जल प्रदूषण और बर्बादी को रोकने के लिए 1974 में जो कानून बनाया गया था उसे लागू करने के लिए शायद ही कुछ किया गया हो। हरियाणा में छह सौ से ज्यादा ऐसी औद्योगिक इकाइयाँ काम कर रही हैं जो बिना किसी अनुमति के नदियों और जल-स्रोतों को प्रदूषित कर रही हैं। हिमाचल प्रदेश में 58 नगर पालिकाएँ मल-मूत्र नदियों में बहा रही हैं। कर्नाटक, महाराष्ट्र, उड़ीसा, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि प्रदेशों में भी कमोबेश यही हाल है। इन प्रदेशों से गुजरने वाली नदियाँ बड़े शहरों और बड़े-बड़े कारखानों के लिए गटर का काम कर रही हैं जो उनका सारा कूड़ा-कचरा अपने भीतर समेट लेती हैं। लेकिन हमारे पेय जल का स्रोत भी यही नदियाँ हैं और उनका ही जल भूमिगत जलस्रोंतो में भी मिलता है। इन नदियों से अथवा भूमिगत स्रोतों से जो जल पीने के लिए दिया जा रहा है दरअसल वह पीने योग्य नहीं रह गया है। सरकार और उसका तंत्र यदि अपनी जनता का पीने योग्य जल भी उपलब्ध नहीं करा सकता है तो उसका होना न होना बराबर है। कानून के साथ हम जो छल करते हैं उसका नतीजा पूरे समाज और उसकी भावी पीढ़ियों को भी भोगना पड़ेगा। यमुना को प्रदूषण से बचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट को भी बार-बार हस्तक्षेप करना पड़ा। लेकिन फिर भी स्थिति में कोई आशाजनक सुधार नहीं हुआ है। यही हाल लखनऊ में गोमती का भी है। न्यायालय के आदेश के बावजूद उसकी सफाई का काम बहुत धीमी गति से चल रहा है।

आज गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु और कावेरी जैसी नदियाँ भी प्रदूषित हो चुकी हैं। कई दूसरी नदियाँ भी बुरी तरह प्रदूषित हो चुकी हैं। देश की 13 प्रमुख नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इनके पानी के बँटवारे के नाम पर समय-समय पर राज्यों के झगड़े भी होते रहते हैं क्योंकि इनके पानी से ही शहरों और औद्योगिक क्षेत्रों की जरूरतें पूरी की जाती हैं। कई नदियों में तो पानी इतना कम हो जाता है कि गर्मियों में वे सिर्फ शहरी और कारखानों के कचरे का नाला बनकर ही रह जाती हैं। देश की 13 प्रमुख नदियों के तटीय क्षेत्र के कस्बों में चर्मरोग पनप रहे हैं। इनमें पायी जाने वाली लाखों मछलियाँ मर चुकी हैं। इन नदियों का जहरीला पानी सिंचाई के काम आ रहा है। खाद्यान्नों पर इसका क्या असर पड़ रहा है, अभी तक ठीक-ठीक इसका पता नहीं लगाया गया है। कुल मिलाकर हमारी नदियाँ, कारखानों के कचरे और नगरों के गन्दे पानी से बीमारी और मौत वाहक बनती जा रही हैं। अभी तक इनकी साफ-सफाई की ओर कोई खास ध्यान नहीं दिया गया है। नगरों की जनसंख्या वृद्धि के साथ-साथ यह समस्या गंभीर होती जा रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष पाँच करोड़ व्यक्ति प्रदूषित जल को पीने के कारण बीमार होते हैं। इनमें से 20 लाख व्यक्ति हर वर्ष मर जाते हैं। इन बीमारियों के इलाज के लिए 500 करोड़ रुपये सालाना खर्च होते हैं।

शहरों की आबादी का मुख्य जल-स्रोत हमारी नदियाँ ही हैं, पर आज देश की नदियों का जल कुओं से ज्यादा खराब है। उसमें भारी प्रदूषण है। उसमें शहरों का ही मल-जल और कृषि एवं उद्योग-धन्धों का कूड़ा-कचरा बुरी तरह झोंका जा रहा है। कहीं-कहीं तो समुद्र तटीय नदी, मुहानों पर समुद्र जल की घुसपैठ से समस्या और भी अधिक जटिल हो गई है। भारत के कुल 2,431 नगरों में से केवल 176 में मल-जल निकासी की व्यवस्था है। उनमें भी मल-जल के उपचार की तो नाममात्र की ही व्यवस्था है। यह सारा मल-जल सीधे नदियों में बहा दिया जाता है। दिल्ली के आसपास यमुना काली हो गई है। कलकत्ता में हुगली का पानी बुरी तरह से प्रदूषित है। बम्बई में मेहम की खाड़ी का जल गंदा हो गया है। कश्मीर की डल झील का पानी भी अब साफ नहीं है। शहरों के गन्दे पानी का उपचार नहीं होने से ही नदियों का जल अधिक प्रदूषित हुआ है। इससे डायरिया, पेचिश, पीलिया और मियादी बुखार की महामारियों का प्रकोप बढ़ा है। गर्मी के दिनों में नदी-नालों में जब प्रवाह मंद हो जाता है तब बीमारियाँ प्रचंड रूप धारण कर लेती हैं। वर्ष 1984 की मई में पश्चिम बंगाल में पेचिश के कारण 1400 और गुजरात में संक्रामक हेपेटाइटिस (पीलिया) के कारण 300 व्यक्ति अकाल मौत के शिकार हुए। वर्ष 1981 में पश्चिमी दिल्ली के नांगलोई गाँव में डायरिया से 1300 और पेचिश से 700 व्यक्ति पीड़ित हुए। वर्ष 1981 में ही कानपुर और लखनऊ में पीलिया और हैजे से सैकड़ों व्यक्ति बीमार हुए। भारत के कई औद्योगिक नगरों में नदियों का जो पानी पहले शुद्ध करके बाद में पाइपों के जरिए घरों तक पहुँचाया जाता है, वह बी साफ पानी नहीं है। राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरी अनुसंधान संस्थान (नागपुर) ने जाँच-पड़ताल के बाद पाया कि इस पानी में भी मल-जल और उद्योग-धन्धों के कूड़े-कचरे का भारी अंश है।

देश की राजधानी का प्रमुख जल-स्रोत यमुना है। केन्द्रीय जल प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण बोर्ड के अनुसार यमुना में प्रतिदिन जो गंदा पानी बहकर जाता है उसमें 3,00,000 घन मीटर मल-जल और 20,000 घन मीटर औद्योगिक कूड़ा-कचरा होता है। दिल्ली की 3,329 औद्योगिक इकाइयाँ, कपड़ा, रसायन, साबुन, रबड़-प्लास्टिक और इंजीनियरी का सामान तैयार करती हैं। इनमें से 359 इकाइयाँ अपना गंदा पानी यमुना में ही प्रवाहित करती हैं। नजफगढ़ नाला प्रदूषण का प्रमुख स्रोत है। उसमें 216 औद्योगिक-इकाइयाँ अपना गंदा पानी प्रवाहित करती हैं। जिस स्थान पर इस नाले का पानी यमुना में मिलता है, उस स्थान से लेकर ओखला तक यमुना का पानी सिंचाई के भी योग्य नहीं है। यमुना अब एक ‘जाम सीवर’ में तब्दील हो चुकी है, यह सच है। दिल्ली के साथ हरियाणा, उत्तर प्रदेश के 20 शहर इसके किनारों पर बसे हैं और उनमें रहने वाली करीब छह करोड़ की कुल आबादी इस नदी को सार्वजनिक कूड़ाघर के तौर पर इस्तेमाल कर रही है। उत्सर्जित अपशिष्ट पदार्थों से लेकर हर किस्म का जैव और रासायनिक कचरा उसमें बहाया जा रहा है। अकेले दिल्ली सरकार के पास ऐसी 983 उद्योग इकाइयों की सूची है, जो अपना अशोधित कचरा पानी में छोड़ती रही हैं। लेकिन प्रदूषण के प्रति उदासीनता का आलम यह है कि इनमें से 75 फीसदी के पास आज भी कचरे के ट्रीटमेन्ट की सुविध नहीं है। स्वयं दिल्ली सरकार का अपना ट्रीटमेन्ट प्लान्ट अभी तैयार नहीं हुआ है। वर्ष 1993 में यमुना एक्शन प्लान शुरू किया गया था, लेकिन उसके तहत 378 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च होने के बाद भी प्रदूषण घटने के बजाय बढ़ ही रहा है। आज भी हजारों लोग उसी में स्नान करते हैं और पर्व-त्यौहारों पर उसी में देव प्रतिमाएँ विसर्जित करते हैं। आज भी राजधानी दिल्ली और कई दर्जन कस्बों में मुख्यत: यमुना-जल को ही साफ करके पेयजल के रूप में घरों तक पहुँचाया जाता है। दिल्ली का भू-जल भी बहुत अधिक प्रदूषित है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान की आणविक अनुसंधान प्रयोगशाला ने अपने अध्ययन में पाया है कि दिल्ली के 33 प्रतिशत भू-जल में नाइट्रेट सामान्य से ज्यादा है। पानी में नाइट्रेट की ज्यादा मात्रा से मानवीय स्वास्थ्य पर कई खतरनाक प्रभाव सामने आते हैं। आगरा और कानपुर की दशा भी चिन्ताजनक है।

तीन लोक से न्यारी कही जाने वाली काशी में भी मणिकर्णिका घाट पर राख, सुलगते अंगारों, अधजली लाशों, लकड़ियों अन्य प्रदूषकों के कारण पानी काला पड़ गया है। 2,525 किलोमीटर तक बहने वाली इस नदी में हर दिन लगभग 14 करोड़ लीटर से ज्यादा कचरा जा रहा है। इससे इस नदी के आसपास रहने वाले 33 करोड़ लोगों का जीवन खतरे में पड़ गया है। इस नदी की सफाई के लिए 1985 में सरकार ने गंगा-सफाई योजना तैयार की और इसके लिए 1700 करोड़ रुपये की व्यवस्था की। इस योजना के अन्तर्गत एक हजार करोड़ रुपये खर्च हो जाने के बाद भी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। इस योजना के अन्तर्गत बनाये गये कचरा-शोधन संयंत्र और विद्युत शवदाह-गृह भी पूरी तरह से काम नहीं कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल में हुगली पर 100 किलोमीटर क्षेत्र में किए गए अध्ययन से पता चला है कि 353 नाले प्रतिदिन 2,120 लीटर कूड़ा-कचरा फेंक रहे हैं। कलकत्ता-दुर्गापुर, आसनसोल में दामोदर नही के तट पर आठ बड़े इस्पात, कोक, रसायन और उर्वरक के उद्योग अपना सारा गंदा पानी इस नदी में ही डालते हैं। इस गन्दे जल में साइनाइड और फिनोल जैसे विषाक्त पदार्थ भी होते हैं जिससे प्रदूषण और भीषण हो जाता है। हमारे नगरों में पेयजल के अनेक स्रोतों में जस्ते, क्रोमियम, सीसे, निकेल और केडमियम जैसे विषाक्त धातुएँ पाई गई हैं। उसमें नाइट्रेट, फ्लोराइड, फास्फेट तथा अन्य लवणों तथा खनिजों की मात्रा मनुष्य की सहन सीमा से अधिक पहुँच गई है। इस समय हमारे पेयजल में कई कार्बनिक विष, कीटनाशक, अति विषाक्त पोलीक्लोरीनेटेड बाइफेनिल्स (पी. सी. बी.) और डिटरजेंट आ गए हैं। इन प्रदूषकों के कारण कई स्थानों पर नदियों में मछलियाँ भी मर गई। कई नदियों की मछलियाँ अब खाने योग्य नहीं रह गई हैं। यदि ऐसी मछलियाँ खाई जाएंगी तो लोगों के जिगर में घाव, वजन में कमी, पीलिया, आँतों में सूजन, पेट दर्द, कैंसर, प्रजनन और चर्म से सम्बद्ध रोग हो सकते है। औद्योगिक नगरों के आस पास के जल में पौली साइक्लिक-ऐसोमैटिक हाइड्रोकार्बन (पी. ए. एच.) पाए जाते हैं। ये कैंसर-जनक होते हैं। इनका जन्म उन दहन प्रक्रियाओं से होता है, जो बिजली घरों, रिफाइनरियों और आटोमोबाइलों से निकले घनीभूत अवशेषों को सड़कों से बहाकर पास की नदियों में ले जाती हैं।

बम्बई के क्लोरो एल्कली के कारखाने एक टन क्लोरीन तैयार करने में आधे से लेकर एक पौंड तक पारा फेंक रहे हैं। इस पारे का 97 प्रतिशत भाग नाले व नालियों से बहकर समुद्र में जा रहा है। इससे समुद्र का तटवर्ती जल प्रदूषित हो गया है और उसके आसपास की मछलियाँ भी खाने योग्य नहीं रह गई हैं। बड़ौदा में कई औद्योगिक इकाइयाँ उर्वरक और पैट्रो रसायन बनाती हैं। ये पेट्रोलियम साफ करती हैं और रंजक द्रव्य बनाती हैं। इनका गंदा पानी माही नदी में जाता है जो खंबात की खाड़ी में गिरती है। खंबात नगर को जो पानी सप्लाई किया जाता है उससे सीसे की मात्रा सीमा से आठ गुनी अधिक पाई गई है। सूरत के आसपास के कुछ गाँवों में रेफ्रिजरेशन गैस उत्पादक फैक्टरी से निकले फ्लोराइड से मिढ़ोला नदी का पानी प्रदूषित हो गया है। इस पानी के पीने के कारण बच्चों के दाँतों में जख्म हो गया और उनकी हड्डियाँ खराब हो गईं।

कल-कारखानों के कचरे के पानी में मिल जाने के कारण पानी में क्लोरीन डालकर उसे साफ करने का तरीका अब बेकार ही नहीं घातक हो गया है। एक तो क्लोरीन अमीबा पेचिश के जीवाणु नष्ट नहीं कर सकती। दूसरे, यह औद्योगिक कचरे में मौजूद कार्बनिक रसायनों के साथ मिलकर क्लोरोफार्म सहित छह कैंसरजनक तत्व पैदा करती है। इसलिए यदि औद्योगिक कल-कारखानों और शहरों की आबादी का गंदा पानी नदियों में डालने की परम्परा बन्द नहीं हुई तो देशवासियों का जीवन अगले तीस-चालीस वर्षों के ही भीतर घनघोर संकट में पड़ जाएगा। आज भारत में कोई नदी ऐसी नहीं है जिसका जल प्रदूषित नहीं हो। वास्तव में इतना अधिक विदेशों से कर्ज लेने के बाद भी भारत अपने नागरिकों को पीने का साफ पानी भी उपलब्ध नहीं करा सका है। देश के नगरों में जगह-जगह शराब की दुकानें तो खुल गई हैं, पर साफ पानी की हम व्यवस्था नहीं कर सके हैं। बल्कि पानी को गंदा कर हमने शराब तैयार की है। इस समस्या से बचने का एक ही रास्ता है कि नागरिक उठ खड़े हों और जल-स्रोंतो को गंदा करने वाले कल-कारखानों के खिलाफ आंदोलन शुरू कर दें। वे प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को इस बात के लिए विवश करें कि वह प्रदूषण फैलाने वाले उद्योग धन्धों का लाइसेंस रद्द कर दें, जब तक कि वे गन्दे पानी की सफाई और निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं कर लेते हैं। पर्यावरण की सुरक्षा आज इस देश की सबसे बड़ी समस्या है। अब आज और कल केम मनुष्य का अस्तित्व इसी पर निर्भर है। संतोष की बात है, इस सन्दर्भ में न्यायालय महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं लेकिन यह जनता का भी काम है कि वह अपनी नदियों को साफ-सुथरा रखे।

 

Leave a Reply