चौतरफा पानी की महापरियोजना

यह प्रसन्नता की बात है कि उच्चतम न्यायालय के हाल के फैसले के बाद नदी‡जोड़ो परियोजना पर फिर से जोरशोर से चर्चा आरंभ हो गई। मुझे आज भी 2002 का वह दिन याद आता है जब तत्कालीन प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस परियोजना की लोकसभा में अधिकृत घोषणा की थी। इस परियोजना को लागू करने की एनडीए की प्रतिबध्दता को घोषित करते हुए उन्होंने एक कार्यदल की नियुक्ति भी की। मैं इसका अध्यक्ष नियुक्त किया गया।

मेरी राय में भारत जैसे देश में पानी सब से बड़ी समस्या है। असल में पानी संविधान प्रदत्त मूलभूत अधिकार होना चाहिए, लेकिन इस दिशा में अब तक कोई प्रयास नहीं हुए हैं। दो तिहाई भारतीयों का जीवन खेती पर निर्भर है। देश में बिजली की भी समस्या है। पानी के बिना बिजली का भी उत्पादन नहीं हो सकता। अपवाद केवल सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा का है। ताप बिजली के उत्पादन के लिए भी पानी लगता है। औद्योगिक उत्पादन के लिए भी पानी अत्यंत जरूरी है।

दुनिया में कुल पानी के 4 प्रतिशत पानी भारत में है, लेकिन दुनिया की 17 फीसदी जनसंख्या भारत में है। अगले 50 वर्षों में भारत की जनसंख्या 50 फीसदी अधिक होगी। स्वाधीनता के समय पानी की जितनी उपलब्धता थी उससे अब एक चौथाई रह गई है। 2060 तक वह इससे भी आधी रह जाएगी। इसका ध्यान रख कर योजना बनानी होगी। पानी के दो स्रोत हैं‡ एक बारिश व दूसरा हिमालय में पिघलने वाला बर्फ। ये दोनों स्रोत सीमित हैं। हिमालय का पूर्वी भाग, पूर्व भारत और पूर्वोत्तर भारत में पानी की प्रति व्यक्ति उपलब्धता अधिक है। असम में भूजल स्तर ऊंचा है। वहां उपलब्ध अतिरिक्त पानी उलीच कर अन्यत्र मोड़ा गया तो वहां अच्छी खेती होगी। दूसरी ओर पेन्नार नदी के पात्र में बहुत कम पानी है। इसी कारण पानी का नियोजन बहुत महत्व रखता है।

देश के कुछ हिस्सों में अगस्त से सितम्बर तक भारी बाढ़ आती है और प्रचंड हानि होती है। अंत में इसका भार सरकारी तिजोरी पर ही पड़ता है। देश के कुछ हिस्सों में हमेशा सूखा रहता है। इस तरह हम बाढ़ और सूखे के दुष्टचक्र में फंसे हैं। यह प्रकृति की रचना है। कहीं रेगिस्तान और कहीं भारी बारिश ये प्रकृति के ही रूप हैं। बाढ़ से उपजाऊ मिट्टी बह कर आती है, इसलिए हम प्रकृति पर ही निर्भर नहीं रह सकते। देश की जनसंख्या को ध्यान में रख कर पानी का नियोजन करना होगा। प्रति व्यक्ति रोज 40 लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यह उसका अधिकार है और यह उसे सरकार को दिलाना चाहिए, यह मेरी स्पष्ट राय है।

विज्ञान चाहे जितनी प्रगति कर लें पर वह पानी नहीं बना सकेगा। मनुष्य पानी का उत्पादन नहीं कर सकेगा। वैसी क्षमता भी उसे प्राप्त नहीं है। खनिज तेल की तरह पानी का आयात करना संभव नहीं है। अत: पानी के नियोजन पर ही हमारी दारोमदार होगी।

नदियों को जोड़ने के लिए पहले डॉ. के. एल. राव ने प्रस्ताव दिया था। बाद में कैप्टन दस्तूर ने नदियों को जोड़ने की योजना पेश की। 1977 में गैरकांग्रेसी सरकार थी और जलसंसाधन मंत्रालय सी. सी. पटेल के जिम्मे था। वे ही बाद में मेरी अध्यक्षता में बने कार्यदल के सचिव थे। 1982 में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी (एनडब्लूडीए) की स्थापना की गई। इसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य नदी‡जोड़ो परियोजना की रूपरेखा बनाना था। सन 2002 तक काम आगे नहीं बढ़ पाया। अन्य सरकारी योजनाओं की तरह इसकी भी हालत थी। जब वाजपेयी सरकार ने इसकी घोषणा की तब उच्चतम न्यायालय में इस बारे में एक याचिका दायर थी।

एनडब्लूडीए के अनुमान के अनुसार इस परियोजना से 20 दस लाख हेक्टर जमीन की अतिरिक्त सिंचाई हो सकेगी। 34 मेगावाट अतिरिक्त जल विद्युत का उत्पादन होगा। इस परियोजना से बाढ़ से पार पाना यद्यपि संभव नहीं होगा, परंतु उसका नियंत्रण अवश्य किया जा सकेगा। इससे बाढ़ से होने वाली हानि को बड़ी मात्रा में कम करना संभव होगा। जल मार्गों का विकास होगा और वस्तुओं व मानवी परिवहन में वृध्दि होगी। पर्यटन के नए अवसर खुलेंगे और बड़े पैमाने पर रोजगार का सृजन होगा। नदियों में स्वयंमेव जलशुध्दिकरण की व्यवस्था होती है, लेकिन इसके लिए निश्चित स्तर पर पानी का बहाव जरूरी होता है। वर्तमान में नदियां सूखती जाने से यह संभव नहीं हो रहा है। नदियों को जोड़ने से पानी का प्रवाह बढ़ेगा और प्रदूषण की समस्या भी दूर होगी।

इस विषय का अध्ययन करते समय मेरे ध्यान में आया कि पर्यावरण की ओर सब से पहले ध्यान देना होगा। नदियों को आदमी निर्माण नहीं कर सकता। वे प्रकृति के नियम से बहती हैं। पर्यावरण के बारे में आशंकाओं और उससे संबंधित मुद्दों पर विचार किया। कोई दो हजार मुद्दे सामने आए। इसका अध्ययन करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों को नियुक्त किया गया। इनमें वन क्षेत्र के विशेषज्ञ भी थे। यह देखना जरूरी था कि जमीन डूब में जाने के कारण जंगल नष्ट न हो। इसके साथ वन्य जीवन का विचार भी जरूरी था।

किसी भी परियोजना पर अमल करते समय विस्थापितों की समस्या सब से महत्वपूर्ण होती है। पिछले 65 वर्षों में पुनर्वसन के बारे में सरकार ने जो भूमिका निभाई उससे यह आशंका होती है कि क्या सरकार हृदयविहीन है। कहा जाता है कि चीन में लोकतंत्र न होने से किसी भी परियोजना पर अमल करना आसान होता है। लेकिन यह बात सही नहीं है। चीन विस्थापितों को पहले की अपेक्षा अच्छा मकान और दुगुनी जमीन देता है। इसी कारण परियोजनाओं का विशेष विरोध नहीं होता। भारत में ऐसा क्यों नहीं होता, इस पर विचार करने पर कई बातें सामने आईं। जो संस्था परियोजना पर अमल करती है, उसी के जिम्मे पुनर्वसन की जिम्मेदारी होती है। अत: स्वाभाविक रूप से पुनर्वसन की ओर कम और परियोजना पूरी करने की ओर अधिक ध्यान दिया जाता है और धन का प्रवाह भी इसी तरह मोड़ा जाता है। इसी कारण मैंने सुझाव दिया था कि पुनर्वसन के लिए ‘स्पेशल पर्पज वेईकल’ की स्थापना की जाए। परियोजना का शिलान्यास होते ही पुनर्वसन की पूरी राशि पहले आबंटित की जाए। इसी तरह पीड़ितों का एक प्रतिनिधि भी परियोजना के निदेशक मंडल में लिया जाए।

नदियों को जोड़ने की महापरियोजना का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी असर होता है। कुछ नदियां अपने देश से निकल कर दूसरे देश में प्रवाहित होती हैं तो कुछ दूसरे देश से निकल कर अपने यहां आती हैं। इसीलिए पाकिस्तान, चीन, नेपाल, भूतान व बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों का भी विचार किया गया। अंतरराष्ट्रीय कानूनों व विदेश नीति पर भी गौर किया गया।

सब से बड़ा सवाल था इस परियोजना के लिए लगने वाली 5.60 लाख करोड़ की राशि जुटाना। इसलिए देश के प्रमुख बैंकरों और वित्तीय संस्थाओं से बातचीत की गई। परियोजना का संबंध 13‡14 सरकारी विभागों और मंत्रालयों से आता था। इसलिए जल संसाधन के लिए स्वतंत्र मंत्रालय का सुझाव मैंने दिया था।

बाढ़ और सूखे से निपटने के लिए देश को भारी राशि खर्च करनी पड़ती है। नदियों को जोड़ने से इस पर होने वाला खर्च बहुत कम हो जाएगा। इसी कारण परियोजना के लिए राशि जुटाते समय बाढ़ और सूखे पर खर्च होने वाली राशि का कुछ हिस्सा इस परियोजना में लगाया जा सकता है। परियोजना से कौनसी समस्याएं दूर होगी और कौनसी नई पैदा होगी इस पर भी गहन मंथन होना चाहिए। पर्यावरण, वित्त प्रबंध, अंतरराष्ट्रीय संबंध, सामाजिक समस्याएं आदि बातों पर गहन विचार कर परियोजना आरंभ की जानी चाहिए।

परियोजना पर एक नजर

* परियोजना के दो चरण होंगे: एक‡ हिमालयी और दो‡ प्रायव्दीपीय। हिमालयी चरण में गंगा और ब्रह्मपुत्र तथा भारत व नेपाल में इनकी सहायक नदियों को जोड़ना शामिल है। प्रायव्दीपीय चरण में दक्षिण भारत की नदियां होंगी। महानदी और गोदावरी का अतिरिक्त जल पेन्नार, कृष्णा, वैगाई तथा कावेरी में प्रवाहित करना शामिल है।

* 37 नदियां 30 सम्पर्क बिंदुओं से जोड़ी जाएगी। इनमें से 14
सम्पर्क बिंदु हिमालयी क्षेत्र में और 16 प्रायव्दीपीय क्षेत्र में होंगे।

* 34 हजार मेगावाट का अतिरिक्त बिजली उत्पादन होगा।

* कुल 4291 बांधों का निर्माण होगा, जिनमें सरदार सरोवर जैसे
59 बड़े बांध शामिल हैं।

* 35 लाख हेक्टर जमीन की अतिरिक्त सिंचाई होगी।

* करीब 13 हजार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पानी में डूबेगा। 21
हजार वर्ग किलोमीटर कृषि भूमि डूब में जाएगी।

* 41 लाख लोगों को पुनर्वसन करना होगा।

* परियोजना का कुल खर्च 5.60 लाख करोड़ रु. होगा। यह राशि
अब और बढ़ जाएगी।

* जल परिवहन, पर्यटन व मत्स्य व्यवसाय को बढ़ावा मिलेगा,
जिसस रोजगार का बड़े पैमाने पर सृजन होगा।
विरोध के मुद्दे

* पानी की अधिकता के कारण जमीन क्षारीय बन जाएगी जिससे
जमीन की उर्वरा शक्ति कम होकर कृषि उत्पादन कम होगा।

* जगह‡जगह जलजमाव होगा और जमीन की सतह में प्रदूषण और
फैलेगा।

* सम्पर्क बिंदुओं की जगह वाष्पीकरण के कारण पानी का नुकसान
होगा।

* योजना अव्यावहारिक है। उस पर अमल करना संभव नहीं है। यदि
अमल किया भी गया तो उसमें कई दशक लग जाएंगे। सन
2002 में परियोजना पर 5.60 लाख करोड़ रु खर्च होने का
अनुमान था। प्रत्यक्ष में यह खर्च कई गुना बढ़ेगा। इतनी विशाल
राशि जुटाना मुश्किल होगा।

* पर्यावरण असंतुलित होगा जिसके अकल्पित परिणाम भुगतने
पड़ेंगे।

* मानवी समूह पर सामाजिक, सांस्कृतिक प्रभाव पड़ेगा।

 

इतिहास

हाल के इतिहास में नदियां जोड़ने के प्रयास पिछले 150 सालों से चल रहे हैं। अंग्रेजों के जमाने में 19वीं सदी के अंत में सर आर्थर कॉटन ने जल परिवहन के लिए दक्षिण की नदियां जोड़ने का प्रस्ताव दिया था, जो अव्यावहारिक मान कर रद्द कर दिया गया। स्वाधीनता के बाद पहले पहल डॉ. के. एल. राव ने 1963 में गंगा को कावेरी से जोड़ने का सुझाव दिया था। 70 के दशक में कैप्टन दिनशा दस्तूर ने नई योजना पेश की। 1982 में राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी का गठन किया गया, जिसने काफी अध्ययन के बाद परियोजना पेश की। 5 अक्टूबर 2009 को यूपीए सरकार ने योजना को अव्यावहारिक करार देकर दफना दिया। इसी बीच रंजीत कुमार नामक एक वकील की योजना लागू करने का अनुरोध करने वाली जनहित याचिका उच्चतम न्यायालय में विचाराधीन थी, जिस पर हाल में अदालत का निर्देश आया है।

भगीरथ ने पहली बार नदियों को जोड़ा था

प्राचीन भारत में नदियों को जोड़ने की पहली परियोजना भगीरथ ने अथक प्रयासों से पूरी की थी। भगीरथ का गंगावतरण इसी संदर्भ में है। कहा जाता है कि भगीरथ गंगा को धरती पर ले आए। यहां स्वर्ग यानी वैदिक काल में ज्ञात दुर्गम हिमवान (आज का हिमालय) फर्वत और उससे निकलने वाली गंगा नामक नदी। धरती का यहां अभिप्राय तत्कालीन आर्यावर्त के मैदानी प्रदेशों से है। आज गंगा जिन क्षेत्रों से बहती है वह क्षेत्र। बहुत ज्यादा विक्षेफभेद न करते हुए गंगावतरण का यही अर्थ है। दूसरे शब्दों में जहां फानी का भंडार है वहां से सूखे इलाके में फानी फहुंचाना ही गंगावतरण या जल यज्ञ है।

मराठी में रवींद्र भट का एक प्रसिध्द उर्फेयास है ‘भगीरथ’, जो इसी तत्व फर आधारित है। भगीरथ ईश्वाकू वंश के थे। श्रीराम भी इसी वंश के थे। इस जल यज्ञ के लिए ईश्वाकू वंश के तीन सम्राटों ने अर्फेाा बलिदान किया और चौथे सम्राट भगीरथ सफल हुए। जल यज्ञ का आरंभ सम्राट सगर से शुरू होता है। उनके कार्यकाल में अयोध्या में लगातार कई वर्षों तक भयंकर सूखा और अकाल फड़ा। प्रजा अन्न के कण-कण और फानी की बूंद-बूंद के लिए मोहताज हो गई। इसलिए सगर ने मानवी प्रयत्नों से जल को सूखे इलाके तक खींच लाने की योजना बनाई। हिमवान फर्वत फर बर्फ के रूफ में अफार जलराशि का उन्हें फता था। अत: उन्होंने अर्फेाा अभियान उसी ओर मोड़ा। उनका फुत्र असमंजस राजगद्दी के अयोग्य था इसलिए फौत्र अंशुमान का राज्याभिषेक कर वे फानी की खोज में निकले। उनके साथ साठ हजार की सेना थी, जो हिमवान तक फहुंचने के लिए रास्ता बनाते- बनाते आगे बढ़ी तथा फ्राकृतिक आफदाओं और कबीलों से लड़ते-लड़ते ही खत्म हो गई। इस यज्ञ को अंशुमान के फुत्र सम्राट दिलीफ ने आगे बढ़ाया। प्रजा फहले दुखद अनुभव से आहत थी। केवल गिने-चुने लोग ही अभियान के लिए तैयार हुए। सगर ने जहां तक रास्ता बनाया था वहां से आगे अंशुमान ने काम शुरू किया। लेकिन मनुष्य बल कम फड़ा और सभी का दु:खद अंत हुआ। फिता के अंत की खबर फाकर भगीरथ ने फिर अर्फेो तईं यह अभियान आगे बढ़ाया और सफल हो गए। इस तरह अयोध्या के सम्राटों की चार फीढ़ियां फानी के लिए जूझती रहीं।

इसमें सब से गौर करने लायक बात अभियांत्रिकी की है। सगर से दिलीफ तक तीनों सम्राटों ने फानी के प्रवाह को फूर्वोत्तर की ओर मोड़ने और फिर आर्यावर्त में लाकर फश्चिम की ओर लाने का सर्फेाा संजोया था। ऊंचे-ऊंचे फहाड़ों और प्राकृतिक विफरीत ढलानों के अवरोधों को लांघना या उनकी खुदाई करना या सुरंगें बनाना असंभव था। फिर भी वे डटे रहे और वहां तक रास्ते बनाते रहे, जिसका भगीरथ को लाभ हुआ। भगीरथ ने भार्गव ऋषि की सलाह फर फानी के प्रवाह को फूर्वात्तर की ओर मोड़ने के बजाय फश्चिम की ओर मोड़ कर दक्षिण में लाकर आर्यावर्त की नदियों में छोड़ दिया। यह योजना फूर्वाफेक्षा आसान और संभव थी। भगीरथ के साथ आए हजारों नरवीरों ने निरंतर समर्फित प्रयास किए और दुनिया का फहला गंगावतरण हुआ। आज की भाषा में आफ इसे नदी-जोड़ो फरियोजना कह सकते हैं।

मिनी नदी जोडो योजना

नदियों को जोड़ने का हाल में मिनी प्रयोग महाराष्ट्र के धुले जिले में सन 2006 में हुआ है। तत्कालीन कलेक्टर भास्कर मुंडे ने जिले में पानी की समस्या को लेकर जिले की सीमा से गुजर रही गिरणा बांध की पांझण बायीं नहर का अतिरिक्त पानी एक नाले के जरिए धुले जिले की मनाली व बोरी नदियों में छोड़ा। इसी तरह हरणा बारी बांध का अतिरिक्त पानी नालों व नहरों को जोड़ कर मोसम नदी में छोड़ दिया। वहां से यह पानी कनोली बांध में लाया गया। इससे जिले के 116 गांवों को पेय जल मिला। 19 हजार एकड़ की रबी फसल की सिंचाई हुई। चार मध्यम बांध भरे और 256 तालाबों को भूमिगत जल स्रोत मिला। इस योजना पर 25 करोड़ का खर्च आया, लेकिन सिंचाई से किसानों का 20 करोड़ का लाभ हुआ। श्री मुंडे इस समय औरंगाबाद के विभागीय आयुक्त हैं।

 

 

 

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