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प्रात : स्मरणीय महाराणा प्रताप

प्रात : स्मरणीय महाराणा प्रताप

by हिंदी विवेक
in जून २०१२, व्यक्तित्व
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मुगल बादशाह अकबर के समय समाज में व्याप्त हताशा का अनुमान इसी से लगया जा सकता है कि राजस्थान के जो रजवाड़े विधर्मी तथा हमलावर म्लेच्छों के साथ बैठने तक में अपमान समझते थे, वे ही मुगलों के साथ रिश्ते बनाने लगे। समाज का नेतृत्व अकबर को सर्वशक्तिमान मानते हुए ‘दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा…’का नारा लगाने लगा। समाज में चारों ओर गहरी निराशा का भाव व्याप्त हो गया।

ऐसी स्थिति से समाज को निकाल कर फिर से राष्ट्र जीवन में चैतन्य भरने का महत्वपूर्ण कार्य महाराणा प्रताप ने किया। हल्दीघाटी के युद्ध में मुगल सेना की दुर्गति होने का समाचार बिजली की तरह सारे देश में फैल गया। इसी के साथ अकबर के अपराजेय होने का भ्रम भी टूट गया। देश के जन-मानस में स्वाधीनता के लिये संघर्ष करने का साहस जगने लगा। मेवाड़ एकदम से स्वातंत्र्य-संघर्ष का केन्द्र बन गया। उसके बाद महाराणा प्रताप के संघर्ष तथा चित्तौड़ के अतिरिक्त सारा मेवाड़ फिर से जीत लेने से समाज-जीवन में व्याप्त हताशा दूर हो गई।

देश की जनता मानने लगी कि मेवाड़ पूरे भारत की आजादी की लड़ाई लड़ रहा है। मेवाड़ आजाद है, तो हिन्दू अस्मिता और राष्ट्र का स्वाभिमान भी जीवित है। मेवाड़ ने हार नहीं मानी अर्थात् इस हिन्दू-राष्ट्र ने हार नहीं मानी, यह भावना देश में जाग्रत हो गई। अत्यन्त विषम परिस्थितियों में भी राष्ट्र के स्वाभिमान, गौरव तथा आत्मविश्वास बनाये रख कर महाराणा प्रताप पूरे राष्ट्र की जिजीविषा और जीवट का प्रतीक बन गये।

महाराणा प्रताप के संघर्षमय जीवन में एक महानायक के सभी गुण श्रेष्ठ रूप में प्रकट हुए। वास्तव में वे जन-नायक थे। आजादी की लड़ाई को उन्होंने सामान्य-जन की लड़ाई बना दिया। आसुरी शक्तियों को पराजित करने वाले हमारे देश के सभी महापुरुषों ने सामान्य जनता, विशेष कर पिछड़े कहे जाने वाले लोगों को संगठित कर अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त की। श्रीराम ने वनवासी वानर जाति को, श्रीकृष्ण ने ग्वालों को, राय हरिहर ने रैबारी, होलेय, पालेय आदि को तथा शिवाजी महाराज ने मावलों को अपने संघर्ष से जोड़ा। उसी तरह महाराणा प्रताप ने भी वनवासी भीलों को अपना प्रमुख सहयोगी बनाया। अपनी बाल्यावस्था से ही उन्होने भीलों के साथ खेलना, शस्त्राभ्यास करना, उठना-बैठना शुरू कर दिया था। युवा होते-होते महाराणा प्रताप ने पूरे मेवाड़ की एक-एक घाटी, एक-एक पहाड़ी, पहाड़ियों की गुफाओं तथा दुर्गम मार्गों को अपने भील साथियों के साथ छान मारा था। गाँव-गाँव में भील युवकों के साथ घूमते हुए प्रताप उन्हें शस्त्रों की शिक्षा भी देते तथा देश, धर्म और समाज की परिस्थितियों का ज्ञान भी कराते।

यह कारण था कि कठिनाई के समय भी महाराणा प्रताप को मेवाड़ की जनता का पूर्ण सहयोग मिला। अकबर की लाख कोशिशों के बावजूद भी वे पूरी तरह सुरक्षित तथा साधन-सम्पन्न बने रहे। उन्होंने मेवाड़ के प्रत्येक व्यक्ति को अभेद्य दुर्ग बना दिया और ऐसे मानव-दुर्गों से टकरा कर मुगल शक्ति को चूर-चूर होना पड़ा। यह महाराणा प्रताप की संगठन-कुशलता का ही परिणाम था।

महाराणा प्रताप ने अपने कुशल नेतृत्व के बूते पर ही देश और धर्म के लिये मर-मिटने वाले बेजोड़ स्वातंत्र्य योद्धा तैयार किये। किसी देश के इतिहास में ऐसे क्षण कभी-कभी ही आते है। जब बलिदान के लिये तत्पर सहयोगी अपने नेता को आदेश देता हुआ तथा नायक उसे मानता हुआ दिखाई देता है। हल्दीघाटी के युद्ध में झाला मन्ना को अपने राजचिन्ह सौंप कर युद्धभूमि से निकल जाने का आदेश महाराणा प्रताप ने माना। नेता और उसके अनुयायियों में जब किसी श्रेष्ठ लक्ष्य के प्रति पूर्ण समर्पण-भाव उत्पन्न हो जाता है, तब ऐसी स्थिति आ पाती है।

नेता और सहयोगियों के बीच रंच मात्र की भी दूरी न रहे, लोगों में ध्येय निष्ठा उत्पन्न हो, इसके लिये महाराणा प्रताप ने महलों की सुख सुविधायें छोड़ने, भूमि पर शयन करते तथा पत्तल-दोनों में भोजन करने की भीष्म प्रतिज्ञा की थी। झाला मान, भाण सोनगरा, भामाशाह, रामशाह तँवर, हकीम खाँ सूरी, राणा पूंजा जैसे श्रेष्ठ सहयोगियों का सर्वस्व तथा एकनिष्ठ समर्पण महाराणा प्रताप की संगठन कुशलता का प्रमाण है। मनुष्यों की बात तो अलग है, महाराणा प्रताप के पारस स्पर्श से चेतक जैसा घोड़ा भी अमर हो गया।

महाराणा प्रताप का पूरा जीवन उनके शौर्य और साहस का अनुपम उदाहरण है। सैन्य संचालन में भी उनका कोई सानी नहीं था। युद्ध की छापामार पद्धति को अपना कर उन्होंने इस रणनीति को नई प्रतिष्ठा प्रदान की। वैसे तो महाराणा हमीर सिंह और उदय सिंह ने भी कुछ काल तक इस प्रणाली को अपनाया, किन्तु महाराणा प्रताप ने छापामार प्रणाली को और विकसित कर इसे मारक बनाया। भारत के आधुनिक काल के इतिहास में महाराणा प्रताप को गुरिल्ला-युद्ध का उन्नायक कहा जा सकता है। महाराणा प्रताप कूटनीति का भी चतुराई से प्रयोग करना जानते थे। मेवाड़ के सिंहासन पर बैठते ही वे समझ गये थे कि राज्य की स्थिति काफी कमजोर है तथा मुगलों से आासन्न संघर्ष की तैयारी के लिये कुछ समय की आवश्यकता होगी। इसके लिये उन्होंने चार वर्षों तक मुगलों को सन्धि-वार्ता में उलझाये रखा।

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