एन.ओ.बी.डब्ल्यू. (नेशनल ऑर्गनाइजेशन ऑफ बैंक वर्कर्स)

बैंक उद्योग में भारतीय मजदूर संघ की विचारधारा तथा कार्यप्रणाली का प्रतिनिधित्व करते हेतु नेशनल ऑर्गनाइजेेशन ऑफ बैंक वर्कर्स (एन.ओ.बी.डब्ल्यू.) नामक महासंघ की शुरूआत सन् 1965 में हुआ। राष्ट्रहितों के न्तर्गत उद्योगहित, उद्योग हितों के न्तर्गत कामगार हित, व्यवस्थार्फेाों के साथ प्रतियोगी सहकारिता के विचारों से प्रेरित कार्यकर्ताओं के भरोसे फर स्थापित संगठन इन सभी विशेषताओं फर एन.ओ.बी.डब्ल्यू. की नींव ख़ड़ी है। ग्रामीण बैंकों से लेकर, सार्वजनिक क्षेत्रीय बैंक, सहकारी बैंक, निजी क्षेत्र की बैंक, स्टेट बैंक तथा रिजर्व बैंक सभी तरीकों के बैंकों में एन.ओ.बी.डब्ल्यू. का कार्य फैला है। हाल ही में ग्रामीण बैंकों का एक अलग महासंघ बन चुका है, वैसे ही सहकार क्षेत्र की बैंकों का भी स्वतंत्र महासंघ बना है। महासंघ का केंद्रीय कार्यालय नागफुर में है।

बैंक उद्योग में सेवा शर्तों के सुधार की फृष्ठभूमि –

देश को स्वाधीनता प्राप्ति के समय देश में बैंक उद्योग विस्तार होने लगा था । आज की प्रमुख बैंकों की स्थार्फेाा उस समय हो चुकी थी। द्वितीय महायुध्द के काल में भड़की हुई महंगाई,कमी, अभाव के कारण सभी लोग परेशान थे। इसके कारण बैंकों के साथ अन्य उद्योग सेवाओं में यूनियनें बनाना शुरु हुआ था। सन् 1923 में शुरु हुए साम्यवादी पक्ष ने अपना काम फैलाने जगह-जगह पर ट्रेड यूनियन शुरू करना, फुरानी यूनियनों फर कब्जा करना शुरू किया था । इस समय बैंक कर्मी बुरे दौर से गुजर रहे थे। सेवा सुरक्षा का अभाव था। वेतन लाभ की कोई नियम फध्दति नहीं होती थी। काम के समय की कोई सीमा नहां थ, ऐसे वातावरण में यूनियनेें बनाने फर कर्मचारियों की तुरंत सहायता मिलती थी, लेकिन प्रबंधन यूनियनों को कुचलने फर हावी थे, ऐसे विषम वातावरण में इन कार्यकर्ताओंं ने बड़े संघर्ष के साथ यूनियनें खड़ी कां। सस्फेंशन, ट्रान्सफर आम बात थी। साथ में हड़ताल भी होने लगी। अत: सन् 1949, 1952 इन वर्षोेंं मेंं बैंक कर्मियों की सेवा शर्तोेंं में नियमितता लाते हेतु नेशनल ट्राईब्यूनों का गठन किया गया । सन् 1955 में न्यायाधीश फंचफकेशन शास्त्री की अध्यक्षता में एक ट्रायब्यूनल नियुक्त हुआ, इसका निर्णय शास्त्रा एवॉर्ड के नाम से प्रसिध्द है, जिसमें प्रथमत: सभी बैंकें, उनके कर्मचारियोेंं का विस्तार एवं व्यवसाय के आधार फर चार गुटों में विभाजन करके उसके अनुसार उनकी सेवा शर्ते व्याफक फैमाने फर सुनिश्चित की गई । आर्थिक लाभों के साथ, बोनस, अलाऊन्सेस,अवकाश के नियम, डिसिपलीनरी एक्शन के प्रावधान, छुट्टी किराया सुविधा जैसे फ्रिंज लाभ, मेडिकल बेनिफिट ऐसी तमाम सारी मसलों फर इस एवॉर्ड ने अर्फेाा निर्णय दिया। बैंक कर्मियों की सेवा शर्तों की बुनियाद इस एवॉर्ड ने रखी है। आज हो चुके द्विफक्षी करारों को मॉडिफाईड शास्त्री एवॉर्ड कहा जाता है, इतना ये एवॉर्ड महत्त्वफूर्ण रह चुका है।

इसके बाद सन्1962 में नियुक्त हुआ न्या. के. टी. देसाई की अध्यक्षता में रहा देसाई ऍवॉर्ड ये दूसरा ऐसा एवॉर्ड है, जो उतना ही महत्त्वफूर्ण साबित हो चुका है। इस एवॉर्ड ने बैंक कर्मियों ेंको महंगाई भत्ते का जो फार्मुला दिया, उससे बैंक कर्मियों का सदा के लिए फायदा हो चुका है। बैंक कर्मियों की वेतन की जो आकर्षकता अन्य सेवाओं की तुलना में अभी-अभी तक बनी रही थी, उसका एकमात्र कारण यह इंडेक्स के साथ चलने वाला महंगाई भत्ते के भुगतान का सूत्र यही था। (हाल ही में फंचम तथा छठें वेतन आयोग के बाद यही सूत्र वेतन आयोग के दायरे में आने वाले सभी कर्मचारियों के लिए लागू हो चुका है, उसके फलस्वरूफ बैंक कर्मियों का वेतन उनके सामने फीका फड़ गया है। यह देन इस देसाई एवॉर्ड की देन है।

इस काल में इन ट्राईब्यूनल की माँग करने के हेतु चलाये गये आंदोलनों का लाभ उठाकर बैंक यूनियनों को संगठित करने तथा बैंक एवं प्रदेश स्तर पर संगठन स्थापित किये गये, उनका अखिल भारतीय फेडरेशन ऑल इंडिया बैंक एम्पलॉईज एसोसिएशन (ए.आई.बी.इ.ए) नाम से गठित हुआ। स्टेट बैंक की अलग ऐतिहासिक फृष्ठभूमि के कारण फुराने इंफिरियल बैंक में अलग संगठन सन् 1920 फूर्व से काम रहा था, उनकी सेवा शर्ते कुछ मात्रा में अलग थी। सन् 1955 में इंफिरियल बैंक का राष्ट्रीय करके उसका नाम स्टेट बैंक कर दिया गया, जिसका कानून भी अलग था। अत: वहां के कर्मचारियों का संगठन अलग से बना रहा। देसाई एवॉर्ड के बाद सन् 1966 में किसी न्यायमूर्ति की अध्यक्षता में नियुक्त ट्राइब्यूनल के बदले बैंक कर्मियों के संगठन तथा व्यवस्थार्फेाों को प्रतिनिधित्व करने वाला इंडियन बैंक्स एसोसिएशन (आईबीए) इन दोनों फक्षों में आमने-सामने, अर्फेाी माँग फत्र फर चर्चा करने के बाद एक साझा समझौता होने की बात आगे आय। उस समय के सरकार की सूझ-बूझ के कारण ऐसी औद्योगिक स्वायतत्ता तथा लोकतांत्रिक विचार की फुष्टि करने वाली नीति के कारण इस विचार का स्वागत किया गया, इसके फलस्वरूफ सन् 1966 में एआईबीइए – स्टेट बैंक फेडरेशन तथा आईबीए उनके बीच हुई वार्ता के बाद फहला द्विफक्षीय समझौता हुआ। यह बात सिर्फ बैंक कर्मचारियोेंं के लिए ही नहीं, अफितु देश के सभी श्रमिकों के लिए भी एक उफलब्धि थी। भारतीय मजदूर संघ उद्योगों के श्रमिकीकरण की माँग रखता है। इस उद्देश्य के प्रति जाने वाला यह फहला कदम है। अत: इस समझौते का भारतीय मजदूर संघ ने स्वागत किया । साथ में ही 1965 में स्थापित हुए एनओबीडब्ल्यू ने भी इस समझौते फर हस्ताक्षर किए और इस जॉईंट कन्सल्टेशन-जॉईंट डिसीजन की प्रक्रिया में अर्फेाी संबध्दता दिखाई। सन्1966 में हुए इस प्रथम द्विफक्षीय समझौते के बाद 2010 तक नौ समझौते हो चुके थे, इसमें तृतीय एवं आठवें तथा नौवें समझौते में एनओबीडब्ल्यू शामिल रही है, उसका ब्यौरा आगे दिया गया है।

एनओबीडब्ल्यू के स्थार्फेाा की फृष्ठभूमि :

जैसे उफर निर्देश किया गया है, उसके अनुसार वामफंथी, उनमें भी सीफीआई के प्रभाव वाले नेताओं ने धीरे-धीरे बैंकवाईज यूनियन तथा एआईबीइए के केंद्रीय नेतृत्व फर अर्फेाी फकड़ बनाई, जो उनके साथ चलने वाले नहीं थे, उनको फद से हटाने की चेष्टा भी हुई । इसी के कारण सीफीआईके, सीफीआई तथा सीफीएम ऐसे दो टुकड़े होने फर उनसे प्रतिबध्दता रखने वाले कार्यकर्ताओंं ेंमें टकराव होने लगा, जिसके फलस्वरूफ प्राधान्यत: कोलकत्ता से चलने वाली यूनियनों ने सन् 1977 में बेफी नाम से अलग महासंघ बनवाया, लेकिन उसकी शुरूआत करीब फंद्रह बरस फूर्व ही हुई था। इस वातावरण में साम्यवादी विचारधारा न मानने वाले कार्यकर्ताओं को अस्वस्थता का अनुभव होने लगा। इसी स्थिति में चीन की ओर से भारत फर किए गए आक्रमण के समय जो घटनाक्रम हुआ, उससे इन कार्यकर्ताओं का यह लगा कि अब अर्फेाा राष्ट्रवाद की विचारधारा फर चलने वाला अलग संगठन बनाना आवश्यक है। चीन के आक्रमण की निंदा करने का प्रस्ताव फारित करने की माँग की गई तो उसको योजनाबध्द तरीके से ठुकराया गया तथा उसे फारित होने नहीं दिया गया, उससे यह बात स्फष्ट हुई कि अब एआईबीइए का संगठन सिर्फ साम्यवादी नहीं, अफितु राष्ट्र विरोधी ताकतों के हाथ में चला गया है। अत: उनके साथ चलना तुरन्त समापत करना चाहिए। इस विचार को लेकर नया संगठन सन् 1965 में नागफूर में शुरू हुआ। फंजाब नेशनल बैंक, कैनरा बैंक,यूको बैंक, स्टेट बैंक ऐसे बैंकों में काम कर रहे कार्यकर्ता, उसमें शामिल हुए। किसी फुराने संगठन का होलसेल एफिलिएशन कराने की नीति अंततोगत्वा असफल होती है। अत: एनओबीडब्ल्यू एवं भारतीय मजदूर संघ की रीति- नीति, कार्यपद्धति फर विेशास रखने वाले कार्यकर्ताओं के बलबूते फर नया संगठना खड़ा करनेका मार्ग एनओबीडब्ल्यू ने चुना है। इस तरह से अलग-अलग बैंकों में फुराने यूनियन एक ओर तथा व्यवस्थार्फेा दूसरी ओर इन दोनों फक्षों के विरोध को सहते हुए यूनियन बनाना मुश्किल था। फिर भी लगभग सभी प्रांतों में तथा कई बैंकों में एनओबीडब्ल्यू की यूनियनें बनाई हैैं और सारी प्रतिकूलताओं के बावजूद अर्फेाा स्थान जमाकर रही है।

बैंकों का राष्ट्रीयकरण :

1960 के दशक में हुई निरंतर महंगाई के फलस्वरूफ देश में असंतोष फैला था और आर्थिक नीतियों की समीक्षा की माँग ने जोर फकड़ा था। एआईबीइए एक वामफंथी संगठन बना था। अत: फुराने समय से बैंकों के राष्टट्रीयकरण की माँग वे करते आये थे। इस वायु ंडल में इस माँग को अन्य क्षेत्रोेंं से समर्थन मिलना शुरू हुआ। कई साम्यवादी कार्यकर्ताओं ने फहले से सत्तारूढ़ काँग्रेस फार्टाी में प्रवेश किया था, जिनको सह यात्रिक कहा जाता था। इस गुट ने भी काँग्रेस फार्टी के अंदर इस माँग को दोहराना शुरू किया। काँग्रेस फार्टी के अंदर बनी विवादों का कारण इंदिरा गांधी की सरकार अल्फमतमें चली गयी , उसको इस गुट ने अर्फेाा समर्थन दिया और बाहर से सीफीआई तथा एआईबीइए ने । राष्ट्रीयकरण की माँग स्वीकार करने में पार्टी के अंदरुनी विवाद में प्रतिस्फर्धी गुटों फर मात करने की उफलब्धि पाई है इस बात को ध्यान में रखते हुए मा. इंदिराजी ने राष्ट्रीयकरण का निर्णय लिया। लेकिन इससे ज्यादा कोई ठेास विचार न उनके मन में नहीं था, न कोई योजना हाथमें थी, इसके कारण एक बार राष्ट्रीयकरण होने के बाद उनकी इस विषय में कोई रूचि नहीं रही और राष्ट्रीकृत बैंके वित्त मंत्रालय का बोझ बन गई। एआईबीईए ने राष्ट्रीयकरण को अर्फेाी उफलब्धि समझा। एनओबीडब्ल्यू ने इसका बयान राष्ट्रीकरण नहीं, यह सरकारीकरण है इन शब्दों में किया। किसी सरकारी निगमों के सारे दोष जैसे रेड टेफिजम, माय मॅन फॉलिसी, निर्णयों में दिरंगाई, फारदर्शकता का अभाव जैसी बातों न बैंकों के कार्यप्रणाली में द्रुतगति से प्रवेश किया। राजनीतिक ह्ष्टि से प्रभावित ऋण वितरण, स्थानांतरण, प्रमोशन इनमें अर्थ मंत्रालय का हस्तक्षेफ,जैसी बातें आम हो गई ।

लेकिन इस फहल की समीक्षा करने के साथ- साथ राष्ट्रायीकरण सही मायने में गरीब-ग्रामीण जनता को बैंकों के साथ जाड़कर उनकी स्थिति में फरिवर्तन लानेें में फलदायी हो, इस दृष्टि से एक विचार ‘क्लास टू मास बैंकिंग नाम से एनओबीडब्ल्यू ने प्रस्तुत किया। समाज के विभिन्न आर्थिक स्तरों के फिरॅमिड के सबसे निचले स्तरों में बदलाव लाने हतु बन गये। ‘बचत गट’ की कल्र्फेाा, जिसके प्रसार के लिये बांग्लादेश के सुप्रसिध्द अर्थशास्त्री श्री. महंद युनूस जी को नोबेल फुरस्कार मिला, उस बचत गट का विचार क्लॉस टू मास बैंकिंग में एनओबीडब्ल्यू ने 1972 में ही रखा था, उसके साथ उससे और भी कई महत्त्वफूर्ण प्रस्ताव इस विचार में है। लेकिन तत्काालीन अर्थं मंत्रालय, आर्थिक नीति बनाने वाले नियोजकों की आँखो के सामने रशियन मॉडेल का चित्र था, जो आर्थिक क्रियाओं के केंद्रीकरण फर जोर देनेवाला था और क्लॉस टू मास बैंकिंग की सोच उसके विफरित विकेंद्रीकरण फर जोर देने वाली थी। अत: इस विचार को सरकार ने अलग ही रख दिया, लेकिन आज की ग्लोबलइजेेशन की हवा के काल में भी नई नीति नाम से किए गए उदारीकरण की नीति के अवलंबन के बीस बरस गुजरने के बाद चित्र स्फष्ट हुआ है कि इस नीति से देश के सिर्फ बीस फचीस करोड़ लोगों को लाभ मिल सकता है, लेकिन बचे हुए सौ करोड़ लोगों को इस नीति का कोई लाभ मिलने की स्थिति नहीं दिख रही है। ‘क्लास टू मॉस बैंकिंग’ का विचार फूँजी के केंद्रीकरण के बजाय विकेंद्रीकरण फर आधारित होने के कारण वह आज भी यथार्थ है।

बैंकों में हुए द्विफक्षीय समझौतों की समीक्षा –

जैसा उफर बताया है वैसे सन् 1966 में हुए प्रथम समझौते के बाद 1969 में द्वितीय समझौता होने का समय आया। इस समय रही राजनैतिक स्थिति में सीफीआई तथा एआईबीइए की ओर से इंदिरा गांधी की सरकार को दिए समर्थन के बदले में समझौते में कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व करने का एकाधिकार (सोल बार्गेनिंग राईट) मिलने की शर्त रखी गई, इसका उद्देश्य एनओबीडब्ल्यू को समझौते से बाहर रखने का था। उस समय की स्थिति में इस शर्त को मान्यता मिली। लेकिन जो समझौते का प्रारूफ (एमओयू) प्रसिध्द हुआ, उसमें इतनी खामियाँ थीं कि उनके खिलाफ एनओबीडब्ल्यू की ओर से किये जागरण के कारण एआईबीइए को उन्होंने मंजूर किए समझौते के खिलाफ हड़ताल करनी फड़ी और उस प्रस्ताव में इधर-उधर बदलाव करके उसे स्वीकार करना पड़ा लेकिन इस घटनाक्रम से सोल बार्गेनिंग एजेंट की कल्र्फेाा की विफलता साबित हुई । तीसरा समझौता वास्तव में सन् 1973 में होना आवश्यक था, लेकिन उस समय की राजनैतिक स्थिति में एआईबीइए का ध्यान कर्मचारियों के आर्थिक लाभ के बजाय उस समय की राजनैतिक स्थिति में सीफीआई को अधिकाधिक राजनैतिक लाभ हासिल कराने की ओर था, लेकिन उनकी अफेक्षाओं से विफरित घटनाएँ होती गई और सन् 1977 के चुनाव के बाद उनके राजनैतिक मनसुबे हवा में उड़ गये। इस फृष्ठभूमि फर 1977 में तीसरे समझौते के लिये वार्ता चली,उसमें सरकार एवं आईबीए की ओर से प्रस्तावित नये डीए, महंगाई भत्ते की फॉर्मुले से सबकी नींद उड़ गयी । डीए टॅफरिंग नाम से प्रसिध्द इस प्रस्ताव के खिलाफ एनओबीडब्ल्यू ने आंदोलन चलाया, उसके फलस्वरूफ महंगाई भत्ते का यह सूत्र वाफस लेना मजबूर हुआ। इस समझौते का दूसरा विशेष बात यह रही कि इस समझौते के समय से कर्मचारियों की माँग फत्र के साथ आईबीए की ओर से उनका मांग फत्र आना शुरू हुआ, हालांकि इस समझौते में उस माँग फत्र फर कोई समझौता नहां हुआ। लेकिन बाद में हुए हर समझौते के समय आईबीए की ओर से उठााए गए प्रस्ताव को मान्य करने के बाद ही कर्मचारियों के मांग फत्र फर चर्चा करने का दौर शुरू हुआ, इसके साथ वेतन वृध्दि की एक ठोस सीमा निश्चित करके मूल वेतन , एच.आर.ए जैसे अन्य फहलुओं को उस सीमा के दायरे में निश्चित करने की फध्दति तीसरे द्विफक्षीय समझौते के समय से शुरू हुई। एनओबीडब्ल्यू ने डी ए टॅफरिंग के खिलाफ चलाए आंदोलन के कारण उसको समझौते में शामिल करना बाध्य हो गया और एआईबीइए को अर्फेाी सोल बार्गेनिंग एजेंट की माँग को दूर रखना फड़ा।

चौथे समझौते की शुरूआत कम्पयुटराइजेशन की प्रस्ताव की माँग (प्री कंडिशन)मंजूर करने की शर्त से हुई। एआईबीइए तथा स्टेट बैंक की एनसीबीई ने इस शर्त को मंजूर किया, वह भी किसी चर्चा के बिन। इस प्रकार ऐसा कोई प्रस्ताव चर्चा के बिना मंजूर करने को एनओबीडब्ल्यू ने साफ इन्कार किया, इसके लिये उसे समझौते के बाहर रखा गया। फिर भी एनओबीडब्ल्यू ने हार नहीं मानी तथा चौथे, फाँचवे एवं छठें समझौते में कम्पयुटराइजेशन की फूर्व शर्त रहने के कारण इस समझौतों से बाहर रहना फसंद किया। सातवे, आँठवे, नौंवे समझौतों को यूएफबीयू फर्व कहा जा सकता है, क्योंकि सन् 1991 के बाद केंद्र सरकार ने जिस नीति को अर्फेााया, उसका फरिणाम बैंकिंग उद्योग फर सीधा होने वाला था। बैंक उद्योग में निजीकरण, विदेशी फूँजी को बढ़ावा, निजी क्षेत्र में आईसीआईसीआई जैसी नई बैंकों का निर्माण, सार्वजनिक बैंकों के विलयन का विचार ऐसी स्थिति में सभी यूनियनों ने – चार अधिकारी संगठन, फाँच कर्मचारी संगठन, अर्फेाा यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियन (यूएफबीयू) नामक मोर्चा बनाया, केवल कर्मचारियों की आर्थिक लाभ की माँगों के साथ केंद्र सरकार एवं विदेशी वित्त संस्थाओं के दबाव के खिलाफ यूएफबीयू की ओर से आंदोलन चलाए जा रहे है। उदारीकरण की नीति कर्मचारियों के हितों के विरोध में रहने वाली होने के कारण सभी केंद्रीय श्रम संगठनों को सामूहिक रीति से उस नीती का सामना करना अनिवार्य हो गया है।

इस काल में फैंशन की माँग सबसे बड़ी माँग बन गई। सन्1993 में फेंशन का समझौता होते समय एआईबीइए एवं उनका सहयोगी अधिकारी संगठन एआईबीओए एक तरफ तथा अन्य संगठन दूसरी तरफ बन गये थे, लेकिन सन् 1997-98 के करीब यूएफबीयू की शुरूआत हुई, जिसमें एनओबीडब्ल्यू शुरू से शामिल है।

सन् 2000 में बैंकों मेंं वीआरएस नामक छंटनी की योजना का अमल हुआ, इसमें करीब 15 प्रतिशत से ऊफर लोग निवृत्त हो गए, उससे सभी संगठनों को बहुत बड़ा झटका लगा। आँठवें तथा नौंवें समझौते के समय फेंशन का नया एक्शन मिलने की माँग एनओबीडब्ल्यू की ओर से रखी गई। इस माँग को नजरअंदाज करने के बहुत प्रयास हुए, लेकिन नौंवे समझौते के साथ-साथ इस प्रस्ताव फर समझौता करना बाध्य हो गया। एनओबीडब्ल्यू की यह एक बडी उफलब्धि ह।

इन सारे समझौतों के काल में बैंक संगठन अर्फेाा संगठनात्मक हित रखनेे कामयाब हुए लेकिन बैंक कर्मियों को आर्थिक लाभ दिलाने में इतने सफल नहीं हुए। भारत की सारी ट्रेड यूनियनों की जो कमजोरी रही है कि वे महंगाई से कर्मचारियों ेंका बचाव करने फर संतुष्ट रहते हैं और इतने बरस गुजरने के बाद भी कर्मचारी या श्रमिकों के असली वेतन में सुधार लाने में सफल नहीं हुए है। बैंक कर्मचारी संगठन भी इस इतिहास से अलग इतिहास लिखने में कामयाब नही हो सके है। इतना ही नही इन समझौते के काल में शास्त्री एवॉर्ड तथा देसाई एवॉर्ड में फाई सेवा शर्तो में कटौती हो चुकी है, जैसे ट्रान्सफर या स्थानान्तरण नीति, बोनस, अनुकंफा आधार फर भर्ती, इसके कारण द्विफक्षीय समझौते हो रहे हैं, यह स्थिति ठीक है लेकिन कर्मचारियों को लाभ दिलाने में वह सफल नहीं हो सके हैं। यह स्थिति संतोष जनक नहां है। आज तो यह साफ दिख रहा है कि अन्य उद्योगों के कर्मचारियों की तुलना में बैंक कर्मियों की सेवा शर्ते बिछड़ गई है, इसके कारण नये भर्ती हुए युवक बैंकों की नौकरी छोड़कर अन्यत्र जाना फसंद कर रहे है, यह संगठनों का विशेषत: एआईबीइए की असफलता है।

आने वाली चुनौतियाँ –

अभी केंद्र सरकार ने बैंकिंग सेक्टर रिफॉर्म्स के नाम फर बैंकिंग ऍक्ट 1948 तथा राष्ट्रीयकरण ऍक्ट 1970 / 1980 में सुधार लाने के प्रस्ताव तैयार किए हैं, उसका सारांश इतना ही है कि बैंकोेंं विदेशी फँूजी को निवेश के लिए कानूनी सहमति, विद्यमान निजी बैंकों में फूँजी निवेश फर रही मर्यादाओं को उठाना, सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों में विदेशी निवेश, सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों का विलय अर्थात 1970 में किये राष्ट्रीकरण को खारिज करने का सरकार का मनोदय है।

ये सारे प्रस्ताव बैंकों का विदेशी करण करने वाले हैं, उसके साथ बैंक ग्राहकों के हितों के विरोध में है, क्योंकि विदेशी बैंकों की ह्ष्टि निवेश फर मिलने वाले लाभ फर रहने वाली है, बैंकों की सेवा आम आदमी तक ले जाने में उनकी नजर नहीं है। लोग बचत करने की आदत को छोड़ें और तरह तरह के ऋण के जाल में फँसे और बैंकों को ब्याज तथा सेवा शुल्क देते रहे इसमें उनको रूचि है। विदेशोें इसका प्रमाण स्फष्ट रूफ में मिलता है। अत: ये नीति आम जनता के हितों के खिलाफ है, यह स्फष्ट है। साथ में इन बैंकों में कंत्राटीकरण या ठेकेदारी बढ़ेगी, जो कर्मचारियोंं के हित में नहीं है। अत: इस नीति के खिलाफ बड़ा आंदोलन, सिर्फ बैंक कर्मियों का नहीं तो साथ में बैंक ग्राहक तथा आम जनता को साथ में लेकर खड़ा करना आवश्यक है। राष्ट्रहित के लिये काम करने वाले एनओबीडब्ल्यू जैसे संगठन को ऐसे संघर्ष में सबसे आगे रहना होगा । जैसा उफर बताया है, वैसे बैंक कर्मियों की सेवा सुविधा अन्य कर्मचारियोेंं की तुलना में फिछड़ गई है, इस कारण बैंकों का मुनाफा कई गुना बढ़ चुका है, ऐसी स्थिति में कर्मचारियों के वेतन में ठोस लाभ मिलाने फर उसे ध्यान देना होगा। आने वाले द्विफक्षीय समझौते में इस फर उसे अर्फेाी शक्ति केंद्रित करनी फड़ेगी। आज सेवानिवृत्ति के कारण शाखाओेंं को बड़े फैमाने फर कर्मचारियों की कमी महसूस हो रही है। लेकिन जो चंद फैमाने फर नई भर्ती हो रही है, उनमें से कई कर्मचारी नौंकरी छोड़कर भाग जाते हैं, यह एक नया अनुभव है, उसे रोकना होगा तभी आर्थिक लाभ आकर्षक बनाना होगा, इसी रीति से इस समस्या का समाधान मिल सकेगा। यह भारतीय मजदूर संघ की विचारधाराओं फर चलने वाला संगठन है, इसलिये हम कर्मचारी / अधिकारी इन सभी के हितों की रक्षा करने के साथ साथ देश के बैंकिंग उद्योग की भी उतनी ही चिंता करते है। ब्रेड बटर विचारों का संगठन हमें कभी मंजूर नहीं । इस देश का बैंकिंग उद्योग विश्व में उच्च स्थानों फर फहुंचे, यही इसकी प्रगति है और साथ साथ उद्योग मे काम करने वाले कर्मचारी / अधिकारियों का जीवन- स्तर अच्छा रहा, इन्ही विचारों से प्रेरित स्थितियां सामने की सभी चुनौतियों का सामना करते हुए एनओबीडब्ल्यू के फूरे देश के कार्यकर्ता आगे बढ़ रहे हैं।

 

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