भारत के वस्त्रोद्योग का भविष्य

कोविड-19 की स्थिति में फेस मास्क और पीपीई कवरऑल जैसे बुनियादी उत्पादों के लिए भारत को स्थानीय मांगों को पूरा करने में संघर्ष करना पड़ा। अन्य देश जैसे वियतनाम, मलेशिया और इंडोनेशिया जो तकनीकी वस्त्रों के लिए ज्यादा जाने नहीं जाते हैं, इन मेडिकल डिस्पोजबल्स की आपूर्ति करके बड़ी मात्रा में यूएसडी राजस्व पैदा कर रहे हैं। निर्यात प्रतिबंधों में हालिया बदलाव के साथ, भारत ने भारी संख्या में पीपीई किट का निर्यात करना शुरू कर दिया है।

भोजन, आश्रय और वस्त्र मनुष्य की तीन मूलभूत आवश्यकताएं हैं। जंगल में रहने वाले आदिम मानव पेड़ों से फल खा रहे थे, नारियल जैसे वृक्षों के पत्तों के उपयोग से लकड़ी के घर बना रहे थे, जबकि केला अथवा कुछ अन्य वृक्षों के पत्तों से शरीर की रक्षा करते थे। जैसे-जैसे मनुष्य ने समाज बनाकर जीना शुरू किया, मूलभूत आवश्यकताओं के प्रति उनका दृष्टिकोण बदलने लगा और वे आराम के बारे में सोचते हुए भोजन, आश्रय और वस्त्रों के लिए अधिक विकल्प लेकर आए। वे बहुत अधिक अभिनव विचारों के साथ सामने आए और यह उनकी संस्कृति भी बन गई। इन तीनों पहलुओं के संबंध में अनेक देशों की अपनी परंपरा और संस्कृति है। जहां तक वस्त्रों की बात है, हर देश और उसके हिस्से अपनी जलवायु की परिस्थितियों, सामाजिक आवश्यकताओं, आर्थिक स्थितियों आदि के संबंध में विभिन्न सामग्रियों, प्रौद्योगिकी, आकार (कला) के साथ सामने आए। लेकिन क्योंकि उन दिनों संचार एवं परिवहन इतना विकसित नहीं था इसलिए उनकी तकनीक, आकार आदि उस क्षेत्र या देश तक सीमित थे।

भारतीय वस्त्र उद्योग की शुरुआत

भारत में पहली कपास मिल 1818 में कोलकाता के पास फोर्ट ग्लॉस्टर में स्थापित की गई थी लेकिन यह एक व्यावसायिक असफलता सिद्ध हुई। 1854 में, 36 वर्ष के लंबे अंतराल के बाद, केजीएन डाबर ने बॉम्बे स्पिनिंग एंड वीविंग की स्थापना की और ये एक बड़ी सफलता थी तथा उद्योगपतियों के लिए वस्त्र क्षेत्र में प्रवेश करने का एक मार्ग था।

आइए हम समझते हैं कि वस्त्र निर्माण क्या है। वस्त्र उद्योग को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है-

कताई मिलें- यह क्षेत्र प्राकृतिक, संश्लिष्ट और मानव निर्मित मूल रेशों या सूत से धागे के निर्माण में शामिल है। उनमें से अधिकांश प्राइवेट लिमिटेड (एमएसएमई) या सहकारी समितियों के अंतर्गत आते हैं और बहुत कम सार्वजनिक लिमिटेड हैं।

बुनाई मिलें- यह क्षेत्र रेशों के विनिर्माण में शामिल है। उनमें से ज्यादातर प्राइवेट लिमिटेड (एमएसएमई) और बहुत कम पब्लिक लिमिटेड हैं।

परिधान उद्योग- यह क्षेत्र पहनने के लिए तैयार परिधान के निर्माण में शामिल है। अधिकांश इकाइयां एमएसएमई के अंतर्गत आती हैं।

गैर-बुनाई उद्योग- यह एक उभरती हुई प्रवृत्ति है, जिसमें वस्त्र सीधे रेशों से निर्मित होते हैं, जिससे कताई की प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। ऐसे वस्त्र विशिष्ट अनुप्रयोगों के लिए उपयोगी होते हैं। अधिकांश इकाइयां एमएसएमई के अंतर्गत आती हैं।

बुने हुए वस्त्र मुख्य रूप से परिधान या घरेलू वस्त्रों में उपयोग किए जाते हैं। आराम परिधान के आवश्यक प्रमुख गुणों में से एक है, जबकि आराम के साथ-साथ घरेलू वस्त्र में क्रियात्मकता के बड़े स्तर पर होने की उम्मीद की जाती है। इस खपत को देखते हुए, परिधान या घरेलू वस्त्रों में प्राकृतिक या प्राकृतिक के साथ सिंथेटिक संश्लिष्ट का मिश्रण पाया जाता है।

गैर-बुने हुए वस्त्र को कभी-कभी क्रियात्मक या तकनीकी वस्त्र भी कहा जाता है, जहां उन्हें विशिष्ट कार्यों के निष्पादन जैसे निस्यंदन, पृथक्करण, जलरोधक, अग्निरोधी, सुदृढीकरण, ऊष्मा प्रतिरोधी आदि की आवश्यकता होती है।

तकनीकी वस्त्र, हम कह सकते हैं कि एक उभरती हुई शाखा है और भविष्य का वस्त्र है। भारतीय निर्माताओं को इस क्षेत्र में प्रवेश करने की आवश्यकता है। उपयोग और उद्देश्य के आधार पर, तकनीकी वस्त्र बुना हुआ/गैर बुना कपड़ा या कभी-कभी दोनों के संयोजन का उपयोग करता है जिसे समग्र सामग्री के रूप में जाना जाता है। गैर-बुने हुए या तकनीकी वस्त्रों में मानव निर्मित रेशे या संश्लिष्ट रेशे प्रमुखता से होते हैं।

प्रचुर कच्चे माल और वस्त्र विनिर्माण आधार के साथ भारत का वस्त्र उद्योग दुनिया में सबसे वृहद उद्योगों में से एक है। विभिन्न उद्योगों के अतिरिक्त, भारत की अर्थव्यवस्था वस्त्रों पर बहुत निर्भर है। वस्त्रों का जीडीपी में योगदान लगभग 10% है। विदेशी मुद्रा की आय का लगभग 27% वस्त्रों और परिधान के निर्यात के माध्यम से आता है। वस्त्र और परिधान क्षेत्र देश के औद्योगिक उत्पादन में लगभग 14% और सकल घरेलू उत्पाद में 3% का योगदान देता है। वस्त्र उद्योग द्वारा कुल उत्पाद शुल्क/जीएसटी राजस्व संग्रह का लगभग 8% योगदान दिया जाता है। इतना कि, वस्त्र उद्योग अर्थव्यवस्था में उत्पन्न कुल रोजगार का 21% योगदान देता है। वस्त्र निर्माण गतिविधियों में लगभग 3.5 करोड़ लोग प्रत्यक्ष रूप से कार्यरत हैं। अप्रत्यक्ष रोजगार जिसमें कपास और संबंधित व्यापार तथा संचालन जैसे कृषि आधारित कच्चे माल के उत्पादन में लगी जनशक्ति सम्मिलित है,  लगभग 60 मिलियन के आसपास कहा जा सकता है।

भारत के वस्त्र उद्योग का वर्तमान परिदृश्य और आगे का मार्ग

सभी प्राकृतिक रेशों के बीच सबसे अधिक खपत होने वाले रेशा कपास है। वस्त्रों में, कच्चे माल का योगदान कुल विनिर्माण लागत का लगभग 60-65% होता है। इसलिए, कच्चे माल की लागत में छोटे उतार-चढ़ाव सीधे विनिर्माण लागत और लाभ अंतर को प्रभावित करते हैं। भारत कपास के उत्पादन में मात्रा की दृष्टि से पहले या दूसरे स्थान पर है। कपास अनुसंधान में निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है ताकि कपास गुणवत्ता के मामले में भारत की स्थिति समानता की हो जिससे कि वह अमेरिका या ऑस्ट्रेलियाई पीआईएमए कपास की कीमतों के बराबर अर्जित कर सके।

भारत के कपास की आक्रामक रूप से ब्रांडिंग करने और बढ़ावा देने की आवश्यकता है ताकि यह दुनिया का ध्यान आकर्षित कर सके और जिससे कीमतों में सुधार हो। इसके अतिरिक्त, भारत सरकार को भारत द्वारा और भारत के लिए जैविक प्रमाणन के बारे में अवश्य सोचना चाहिए, जिसे बाद में दुनिया में उचित स्थान देने की आवश्यकता है ताकि इसे किसी अन्य अंतर्राष्ट्रीय मानक के रूप में स्वीकार किया जाए।

सुतली (वस्त्र श्रेणी), रेमी और लिनन जैसे अन्य प्राकृतिक रेशों की तलाश करने की आवश्यकता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में काफी नदी के तल और उपजाऊ भूमि भी हैं, इन फसलों को वहां तैयार करने के लिए कृषि अनुसंधान संस्थानों के माध्यम से सहारा दिया जा सकता है। ये रेशे कपास के लिए अच्छे विकल्प हो सकते हैं और ये राज्य जो कपास का उत्पादन नहीं करते हैं वे इन रेशों के लिए प्रमुख आपूर्तिकर्ता हो सकते हैं।

भारतीय रेशम को अहिंसा रेशम के रूप में प्रचारित किया जाना चाहिए और ब्रांडिंग के माध्यम से इसका नेतृत्व करना चाहिए।

सदव्यापार एवं परिधान की योजना बिना अपराध बोध/नैतिक आचरण से बनाई जानी चाहिए और प्रमाणन को स्थानीय स्तर पर बनाया जाना चाहिए जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्य हो।

नई तकनीकों (एयरजेट, एयरवोर्टेक्स व एम्प; डीआरईएफ कताई) को अपनाना अभी भी भारत की दृष्टि से बहुत दूर है। इन मशीनों के लिए, भारत को आयात पर निर्भर रहना पड़ता है। मांग निर्माण के लिए उपकरणों की लागत और प्रयासों की कमी, अर्थव्यवस्था को झटका देती है। यह देखते हुए कि इन तकनीकों को अच्छी तरह से अवशोषित और अनुसंधान द्वारा सहारा दिया जाता है, जिससे उन्हें कपास के रेशों के लिए उपयुक्त बनाया जाता है और इन मशीनों का निर्माण भारत में होता है; एक बड़ा अवसर प्रारंभ हो सकता है।

बिनाई मशीनों के लिए, भारत आयात पर निर्भर करता है। अपने संचालन के पैमाने का उपयोग करने वाले संगठित क्षेत्र ही इसे वहन कर सकते हैं।

स्थानीय मशीन निर्माण क्षमताएं विश्व मानकों के बहुत पीछे हैं। हालांकि, इस क्षेत्र में एसएमई, एमएसएमई की भीड़ पुरानी तकनीक पर आधारित है और हमेशा उच्च लागत के दबाव में रहती है। काम करने वालों के वेतन, व्यावसायिक लेनदेन और करों के साथ हेरफेर, कुछ ऐसी अनैतिक प्रथाओं का मुख्य रूप से व्यवसाय की अर्थव्यवस्था के प्रबंधन और जीवित रहने के लिए उपयोग किया जाता है। रेशे के गुण भी अंतरराष्ट्रीय मानकों से बहुत दूर होते हैं, जिससे उन्हें मुख्य रूप से घरेलू बाजारों पर ध्यान केंद्रित करना पड़ता है, वह भी ज्यादातर मध्य से निचले स्तर तक। इसलिए, स्थानीय स्तर पर मशीन निर्माण क्षमताओं का निर्माण करने की सख्त आवश्यकता है।

अच्छी नीतियों के समर्थन और प्रोत्साहन से  यह क्षेत्र बहुत तेजी से परिणाम दे सकता है। विदेशी मशीन निर्माताओं को भारत में निवेश करने के लिए बुलाने और स्थानीय स्तर पर या तो स्वयं या जे/वी  के माध्यम से मशीन निर्माण करने की आवश्यकता है।

इस तथ्य को याद रखें कि भारत का वस्त्र पहले से ही बांग्लादेश, वियतनाम, इंडोनेशिया, श्रीलंका, तुर्की आदि जैसे देशों से भारी प्रतिस्पर्धा का सामना कर रहा है, जहां सस्ती कीमत पर परिष्कृत प्रौद्योगिकियों का प्रावधान इसके प्रमुख उत्तरों में से एक है।

अब, तकनीकी वस्त्रों की बारी आती है। इस क्षेत्र की अधिकांश आयात मशीनें या तो नवीनतम मशीनें होती हैं या पुरानी मशीनें। इन मशीनों की लागत अनावश्यक रूप से अधिक होती है साथ ही उपकरण की आपूर्ति में काफी लंबा समय लगता है, जिससे निवेश कंपनी के लिए उत्पादन के शुरुआती वर्षों में उसे चालू करने से पूर्व की लागत, ब्याज और मंदी लागत के रूप में काफी खर्च का सामना करना पड़ता है। देश में जे/वी या भारत में होने वाले विदेशी निवेश या रॉयल्टी आदि के आधार पर भारत को इन मशीनों के निर्माण के क्षेत्रों में कड़ी मेहनत करने की जरूरत है, ताकि ये मशीनें देश में सस्ती कीमत पर उपलब्ध हो सकें और शीघ्रता के साथ प्राप्त की जा सकें।

कोविड-19 की स्थिति में फेस मास्क और पीपीई कवरऑल जैसे बुनियादी उत्पादों के लिए भारत को स्थानीय मांगों को पूरा करने में संघर्ष करना पड़ा। अन्य देश जैसे वियतनाम, मलेशिया और इंडोनेशिया जो तकनीकी वस्त्रों के लिए ज्यादा जाने नहीं जाते हैं, इन मेडिकल डिस्पोजबल्स की आपूर्ति करके बड़ी मात्रा में यूएसडी राजस्व पैदा कर रहे हैं। निर्यात प्रतिबंधों में हालिया बदलाव के साथ, भारत ने भारी संख्या में पीपीई किट का निर्यात करना शुरू कर दिया है। आरोग्य के बाजार में बड़ी मांग है जिससे इस तरह के नॉनवॉवन प्रौद्योगिकियों (स्पन बॉन्ड) में निवेश का अवसर पैदा हो रहा है। चूंकि भारत में स्थानीय स्तर पर इन मशीनों के निर्माण की क्षमता नहीं है, इसलिए वर्तमान आवश्यकता चीन, यूरोप और तुर्की से मशीनों का आयात करके पूरी की जा रही है।

कुछ इस तरह के कई तकनीकी वस्त्र क्षेत्र घरेलू उपयोग के लिए और अंतर्राष्ट्रीय बिक्री के लिए भी खुले हैं। बुद्धिजीवियों के सृजन, सही कीमत और सही समय पर सही प्रौद्योगिकियों के प्रावधान पर उचित ध्यान देकर इनका पता लगाया जा सकता है।

उचित राष्ट्रीय मानकीकरण के साथ, भारत तकनीकी वस्त्रों के प्रमुख निर्यातकों में से एक हो सकता है। वस्त्र प्रतिस्पर्धा करने वाले देशों का तकनीकी वस्त्रों के इस क्षेत्र पर अधिक ध्यान नहीं है और चीन अब से एक लंबे समय के लिए एक गैर-पसंदीदा आपूर्तिकर्ता है, भारत के पास एक बड़ा अवसर है। हालांकि, उत्पाद मानकीकरण के लिए ध्यान देने, उपयुक्त नीतियों, कच्चे माल के विनिर्माण के लिए घरेलू क्षमताओं के सृजन, बौद्धिक समूह, घरेलू उपकरण विनिर्माण क्षमताओं को निर्मित करने की आवश्यकता है ।

पुनः उपरोक्त सभी में, उपकरण निर्माण क्षमताओं को अपनाने से वे घरेलू स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। इन्हें अगर अच्छी तरह से क्रियान्वित किया जाता है, तो भारत को घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में इन तकनीकी वस्त्र उत्पादों का प्रमुख आपूर्तिकर्ता बनने का एक अच्छा अवसर प्रदान कर सकता है।

वस्त्र उद्योग श्रम प्रधान है। श्रमिक/कुशल श्रमिक की उपलब्धता आज एक मुद्दा है। कई उद्योग श्रमिक संघ, राजनीतिक हस्तक्षेप, श्रम कानूनों की कठिनाइयों के कारण पीड़ित हैं जो राज्य-राज्य में भिन्न होते हैं। इसलिए नई प्रौद्योगिकियों को अपनाने की सलाह दी जाती है जो परमाणुकरण से अच्छी तरह से सुसज्जित हैं।

परमाणुकरण हमेशा रोजगार के नए अवसर खोलती है, बढ़ती जनसंख्या के कारण बेरोजगारी का कारण बन सकती है। लेकिन, अगर हम परमाणुकरण का विकल्प नहीं चुनते हैं, तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में टिकना मुश्किल होगा। इसलिए, परमाणुकरण के लिए प्रतिबंधित करने के बजाय नए व्यापार के अवसर उत्पन्न किए जाने चाहिए।

अब भी, वस्त्र व्यवसाय पारंपरिक दृष्टिकोण और पारंपरिक उत्पादों के साथ चलाए जाते हैं। इस मामले में एक उदाहरण सोलापुर चद्दर है। एक समय यह व्यवसाय चरम पर था। लेकिन, मांग बढ़ाने या बाजार की जगह बढ़ाने के पर्याप्त और उचित प्रयासों के बिना एक ही उत्पाद में कई निवेश हुए। इससे मांग/आपूर्ति श्रृंखला पर जबर्दस्त दबाव उत्पन्न हुआ और अंततः सभी निर्माता परेशानी में हैं। इसलिए, वस्त्र के क्षेत्र में निवेशकों के प्रशिक्षण और शिक्षा की कठोर आवश्यकता है। हर निवेश विशेष रूप से एमएसएमई खंड में; निवेश होने से पहले एक अच्छा बाजार अनुसंधान और व्यवहार्यता अध्ययन किया जाना और प्रमाणित होना चाहिए। एमएसएमई के पास आंतरिक या बाह्य स्रोत वाली एक अच्छी तकनीकी टीम होनी चाहिए, जो नवाचार, मौजूदा उत्पाद या नए उत्पाद के विकास पर काम करे ताकि जब कभी भी स्थिति की मांग हो, वे नए परिवर्तनों के लिए अनुकूल होने के लिए तैयार हों; जो प्रौद्योगिकी या उत्पाद में हो सकता है।

सरकार और उसकी नीतियां किसी भी उद्योग की सफलता और वृद्धि को प्रभावित करती हैं। वैज्ञानिक और समग्र तरीके से नीति तैयार करने के साथ-साथ व्यवस्थित निष्पादन और बाद में अच्छी निष्पादन निगरानी, परिणाम सामान्य रूप से समाज के लिए लाभकारी होने चाहिए। यह सरकार और उद्योग के बीच संघर्ष को समाप्त या कम करने में सहायता करेगा और वास्तविक लाभ सामान्य रूप से समाज को जाएगा। उदाहरण के रूप में, महाराष्ट्र में 2 सूत कताई मिलों की शुरुआत समान अवधि में हुई, एक निजी है और दूसरी सहकारी है। 10 साल बाद, निजी मिल लाभ कमाती है, लेकिन सहकारी घाटे से ग्रस्त है। अच्छा निष्पादन और निष्पादन के बाद निगरानी से  ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है। साथ ही, ऐसी परिस्थितियों में सहकारी क्षेत्र, सामान्यतः सबसे अधिक; सरकार से वित्तीय सहायता की अपेक्षा करते हैं, और मेरे अनुसार, सरकार को ऐसे क्षेत्र का समर्थन नहीं करना चाहिए। प्रत्यक्ष निधि आधारित सहायता की बजाय, सरकार वर्तमान आत्मनिर्भर भारत योजना के अंतर्गत इस्तेमाल की जाने वाली तर्ज पर सहारा देने के बारे में सोच सकती है ताकि सहकारी समितियों को पेशेवर तरीके और कुशलता से चलाने के लिए बाध्य किया जाए।

विभिन्न विश्वविद्यालयों, संस्थानों के भारत के युवा आविष्कारकों के लिए एआईसीटीई, डीआरडीओ, इसरो और समान संस्थान प्रतियोगिताओं का आयोजन कर रहे हैं। सरकार यहां से मिलने वाले व्यवसायिक विचारों को प्रोत्साहित करने के बारे में सोच सकती है और ऐसे सभी स्टार्टअप्स के लिए प्रारंभिक निधिकरण कर सकती है।

आशियान की तरह ही, सरकार को भी विभिन्न देशों के साथ संशोधन या नए व्यापार समझौते करने चाहिए ताकि यह नए बाजार की जगहों, नए उत्पादों, नए जे/वी  के लिए वैश्विक अवसरों और कुल मिलाकर सभी के लिए अनुकूल विकास के अवसर खोले।

विशेष रूप से वस्त्र क्षेत्र में, उद्योगों को आगे आने और शैक्षिक संस्थानों का समर्थन करने के लिए कहा जाना चाहिए और बदले में वे बहुत कमा सकते हैं।

यह कई बार अनुभव किया जा सकता है कि छात्रों के पास शानदार और नवीन विचार हैं जो बहुत सारे नए उद्योगों या व्यवसायों को जन्म दे सकते हैं और वर्तमान व्यवसाय को मजबूत करने में भी सहायता कर सकते हैं। कल्पना कीजिए, अगर उद्योग और संस्थान के बीच एक मजबूत बंधन बनाया जाता है, तो कहने की आवश्यकता नहीं; यह दोनों को इस क्षेत्र को बढ़ावा देने में सहायता करेगा।

उद्योग को तैयार कपड़ों सहित खेल, आराम करने और प्रदर्शन के दौरान पहनने के उपयुक्त सिंथेटिक वस्त्र बनाने के लिए निवेश की तलाश करनी चाहिए। कपास उत्पादक देश होने के कारण भारत की उपस्थिति केवल गर्मियों के मौसम में है। सर्दियों के मौसम में पहुंच बनाने के लिए, ये निवेश भारत को विश्व स्तर पर बहुत अच्छी स्थिति में लाने में सहायता करेंगे। ये सिंथेटिक सामग्री निर्माण तकनीकी वस्त्र उद्योग को भी अच्छी तरह से विकसित करने में सहायता करेगा।

बाजार के नए और उपयुक्त स्थानों की पहचान करके वैश्विक स्तर पर घरेलू फैशन को पहचानने और बढ़ावा देने की सख्त जरूरत है। इन स्थानीय उत्पादों में से ब्रांड और सही गाथाएं बनाएं, उन्हें विश्व स्तर पर बढ़ावा दें और लोकल को ग्लोबल बनाएं। यह खादी की तर्ज पर ही है।

अधिकांश उद्योगों के लिए रणनीति और पूर्वानुमान टीम बनाने की सख्त आवश्यकता है ताकि व्यापार संबंधी निर्णय सही हों और व्यापार में वृद्धि होती रहे। वस्त्र उद्योग में इस अंतर का लाभ उठाया जाना चाहिए और इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।

वस्त्र उद्योग ने अतीत में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं, यह न केवल जीवित रहा है, बल्कि फीनिक्स जैसी छलांग भी ले चुका है। इतिहास स्वयं को दोहराता है, लेकिन बुरे परिणामों के बारे में सोचने की  आवश्यकता नहीं है क्योंकि हम इतिहास से सीखते हैं और उचित कदम उठाते हैं। उद्योग जगत, लोगों और सरकार के संयुक्त प्रयासों से, प्राचीन भारत की वस्त्र महिमा और गौरवशाली समय फिर  वापस आएगा। उद्योगों को समान एजेंडों पर एकजुट प्रयासों के माध्यम से काम करना है, यदि आवश्यकता हो तो नई चुनौतियों को स्वीकार करना, विविधता लाना है और बाजार, ग्राहकों और ग्राहकों/ जरूरतों को गतिशील रूप से समझना/अपनाना है।

अंत में; अनुकूलनशीलता, लचीलेपन का कोई विकल्प नहीं है, लेकिन कुशल जनशक्ति और वैश्विक पहचान के लिए पुनर्निर्मित भारतीय स्थानीय उत्पादों के माध्यम से नवाचारों पर जोर देने के साथ प्रासंगिक आधुनिकीकरण और स्वचालन भविष्य के लिए सफलता की कुंजी होगी। इस उद्योग को चलाने के दौरान लोगों और सरकार को विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखना चाहिए।

 

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