पल्लू रस्म

यह बात विचारणीय है कि पिता के मरने पर यदि बेटे के सिर पर पगड़ी बांधी जाती है, तो सास के बाद उसकी बहू के सिर पर पल्लू क्यों नहीं रखा जाता? शर्माजी के गांव वालों ने एक रास्ता दिखाया है। इस पर विचार होना चाहिए।

शर्माजी कल बहुत दिनों बाद मिले। पता लगा कि गांव में उनकी एक दूर की चाची का देहांत हो गया था। उन्हीं की तेरहवीं और ‘पल्लू रस्म’ में गये थे।

मैंने अब तक ‘पगड़ी रस्म’ के बारे में सुना था। ये क्यों होती है, इस पर लोगों की अलग-अलग राय है। सामान्य धारणा यही है कि किसी बुजुर्ग के जाने के बाद उसके हिस्से के काम उसकी संतानों पर आ जाते हैं। पुराने समय में लोग पगड़ी बांधते ही थे। अतः उस बुजुर्ग के बेटे को समाज के सब लोग मिलकर पगड़ी पहनाते थे। पगड़ी को वहां बैठे बड़े पुरुष और स्त्रियां स्पर्श करती थीं। इससे यह संदेश जाता था कि इतने सारे लोग मिलकर तुम्हें यह पगड़ी बांध रहे हैं। अब इसकी लाज रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है।

पर अब तो पगड़ी बांधने का रिवाज काफी कम हो गया। कई बार तो पगड़ी के कपड़े से लोग कुर्ता-पाजामा सिलवा लेते हैं। ऐसे में कई जगह समाज के बड़े लोगों ने मिलकर टोपी, रूमाल या तौलिया सिर पर रखने की प्रथा बना ली है। यद्यपि कहते उसे पगड़ी रस्म ही हैं।

पर शर्माजी ने ‘पल्लू रस्म’ की बात कही थी। ये मैंने पहली बार सुना था। मैंने पूछा, तो वे बोले, “पगड़ी रस्म पितृ सत्तात्मक समाज की देन है। लेकिन मेरी चाची की बात और है। वे मातृ सत्ता की प्रतीक थीं। घर में उनकी ही चलती थी। वे पूरे गांव के लिए भी जी का जंजाल थीं। कहीं चार लोग बात कर रहे हों, तो वे बिना बुलाए बीच में कूद पड़ती थीं। फिर बात कहां से कहां तक पहुंचेगी, कुछ पता नहीं। उनके तर्क और कुतर्क अकाट्य रहते थे।”

मैंने बीच में टोका, “शर्माजी, इन्सान कैसा भी हो; पर जाने के बाद उसकी बुराई नहीं करते। ये जगत की रीत है।”

इस पर उनका स्वर तेज हो गया, “मेरी चाची इन सबसे ऊपर थीं। वे हर रीति-रिवाज को तोड़ना चाहती थीं। चुगली करने में उनकी कोई सानी नहीं थी। कई घरों में उन्होंने झगड़े कराए। झगड़े को परिणाम तक पहुंचाए बिना वे नहीं मानती थीं। कितने परिवार उनके कारण टूटे और उजड़ गये। मेरे घर में भी एक समस्या उनके कारण पैदा हुई, जो मैं आज तक भुगत रहा हूं। गांव में लोग शादी तय करते समय ध्यान रखते थे कि चाची को खबर न हो। जैसे कुछ लोग रिश्ते करवाने के विशेषज्ञ होते हैं, वैसे ही वे रिश्ते तुड़वाने में माहिर थीं। पता लगते ही वे दूध में खटाई डालने पहुंच जाती थीं।”

मैंने चुहल की, “आज के युग में इतनी खूबियां किसी एक महिला में मिलनी मुश्किल हैं शर्माजी।”

“जी हां। पूरे गांव में शायद ही कोई दुकान हो, जिससे उन्होंने उधार न लिया हो। उसका भुगतान चाचा या फिर भतीजे ही करते थे। चाची ने अपने हाथ से वह उधार कभी नहीं चुकाया। यदि कोई दुकानदार मना करे, तो वे वहीं गाली देने लगती थीं। अफवाहें फैलाने में भी वे उस्ताद थीं। उन तक कोई बात पहुंची, तो समझ लो शाम तक वह पूरे गांव में फैल जाएगी। वे हर किसी को ये जरूर कहती थीं कि बस तुम्हें ही बता रही हूं। तुम आगे किसी को नहीं बताना।”

“पर शर्माजी, इसका पल्लू रस्म से क्या संबंध है?” मैंने अपनी जिज्ञासा उनके सामने रख दी।

“संबध इतना ही है कि चाची की तीन बहुएं हैं। उनमें से बीच वाली में चाची की ये सारी खूबियां दोगुना होकर प्रकट हुई हैं। इसलिए गांव और परिवार वालों ने पगड़ी की बजाय चाची का पल्लू उसके सिर पर ही रख दिया। अब देखें वह बहूरानी क्या गुल खिलाती है?”

शर्माजी ने जो कहा, उसे यदि हंसी-मजाक या अपवाद मान लें, तो भी यह बात विचारणीय है कि पिता के मरने पर यदि बेटे के सिर पर पगड़ी बांधी जाती है, तो सास के बाद उसकी बहू के सिर पर पल्लू क्यों नहीं रखा जाता? शर्माजी के गांव वालों ने एक रास्ता दिखाया है। इस पर विचार होना चाहिए।

 

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