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भंवर में नेपाली लोकतंत्र

भंवर में नेपाली लोकतंत्र

by सरोज त्रिपाठी
in जनवरी- २०१३, देश-विदेश
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नेपाल के इतिहास में 27 मई, 2012 की तारीख काले अक्षरों में दर्ज की जाएगी। इस तारीख को देश के सभी राजनीतिक दल लोकतंत्र की परीक्षा में फेल हो गए। इससे ठीक चार साल पहले 2008 में 27 मई की ही रात, देर तक चली बैठक में देश के सभी राजनीतिक दलों ने राजतंत्र के खात्मे और नया संविधान लिखकर उसके अनुरूप लोकतंत्र स्थापित करने का फैसला किया था। उसके अगले दिन 28 मई, 2008 को नेपाल गणतंत्र घोषित कर दिया गया था। देश की जनता एक सुखद भविष्य का सपना देखने लगी थी, ऐसी उम्मीदें बंधी थीं कि गणतांत्रिक नेपाल बेजुबानों को जुबान देगा तथा आम-जनता को समानता और सम्मान का जीवन जीने का अवसर मिलेगा। मगर इस साल 27 मई को 601 सदस्यीय संविधान सभा ने इन सभी उम्मीदों पर पानी फेर दिया।

चार सालों की अवधि बिना किसी विशेष उपलब्धि के बीत गई। इस दौरान देश की सभी प्रमुख राजनीतिक पार्टियां- एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी), नेपाली कांग्रेस, नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (एमाले) और विभिन्न मघेसी दल एक-दूसरे से और आपस में लड़ते-झगड़ते रहे। एक-दूसरे के खिलाफ षडयंत्र किए जाते रहे। एक-दूसरे के पीठ पर छूरे मारे जाते रहे। सभी दलों के एजेंडे पर स्वर्णिम नेपाल नहीं, बल्कि अपना-अपना स्वार्थ रहा। 27 मई, 2012 की रात तक साजिशें चलती रहीं। विफलता का एहसास करने की बजाय राजनेताओं का एक वर्ग आखिरी वक्त तक इस प्रयास में लगा रहा कि किसी तरह राष्ट्रपति डॉ. रामबरन यादव को देश में आपातकाल की घोषणा करने के लिए राजी कर लिया जाये, लेकिन राष्ट्रपति ने इस गैरकानूनी काम में भागीदार बनने से स्पष्ट तौर से इंकार कर दिया।

प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई ने संविधान सभा के विघटन और 22 नवंबर, 2012 को नए चुनाव की घोषणा कर दी, इसका तीखा विरोध नेपाली कांग्रेस और उसके सहयोगी एमाले ने किया। वे बाबूराम भट्टराई सरकार के इस्तीफे और संविधान सभा को पुनर्जीवित करने के अभियान में जुट गए।

दुर्भाग्य की बात है कि यह सब उस तारीख को हुआ जबकि 2006 के भावनात्मक जनांदोलन और 2008 में संविधान सभा के लिए हुए चुनावों के बाद पूरा देश अब तक की सबसे महत्वपूर्ण घटना का इंतजार कर रहा था। राजधानी काठमांडू से लेकर कंचनपुर तक की गलियों मे उतरी जनता, देश में नया संविधान लागू होते देखने की साक्षी बनने की तैयारी में जुटी थी। देश की जनता को यह कड़वी सच्चाई पचा पाना मुश्किल हो रहा था, कि उसके राजनेता जनता की सबसे जरूरी मांग, यानी नए संविधान के निर्माण और उसे लागू कराने में बुरी तरह नाकाम रहे। नेपाली कांग्रेस और एमाले नया चुनाव नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि संविधान सभा पुनर्जीवित की जाए तथा देश में सर्वदलीय सरकार गठित की जाए।

2008 में संविधान सभा का चुनाव दो वर्षों के लिए नया संविधान तैयार करने के उद्देश्य से हुआ था। पर संविधान सभा की अवधि चार बार बढ़ाए जाने के बाद भी संविधान तैयार नहीं किया जा सका। बाबूराम भट्टराई की कैबिनेट ने पांचवीं बार संविधान सभा का कार्यकाल बढ़ाने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया था। संविधान सभा की अवधि तीन माह तक बढ़ाने के सरकारी प्रस्ताव को सुप्रीम कोर्ट मे चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी प्रस्ताव को रद्द करते हुए

राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि वे 27 मई, 2012 तक संविधान निर्माण का कार्य पूरा करें। सुप्रीम कोर्ट के साथ ही सरकार में शामिल मधेसी पार्टियों ने भी झटका दिया। पांच मधेसी पार्टियों के मोर्चे ‘वृहत् मधेसी मोर्चा ने कहा कि, दो साल में यानी 2010 में संविधान लागू होना था, लेकिन दो साल और लिए गए। चार साल में जो काम नहीं हो सका, वह मात्र तीन महीने में नहीं हो सकता।

नेपाल में नया संविधान जिस मुद्दे पर लागू नहीं हो पाया और जो संविधान सभा के विघटन का कारण बना, वह है संधीय लवासा का मुद्दा। प्रस्तावित संधीय लवासा का नीति निदेशक सिद्धांत यह था कि नेपाल की सभी राष्ट्रीयताओं की अलग पहचान के आधार पर उन्हें प्रशासन के कई मामलों में स्वायत्तता दी जाएगी तथा अधिकतम 14 नए प्रदेशों का गठन किया जाएगा। मोटे तौर पर सभी राजनीतिक दल संघीय प्रणाली के मुद्दे पर सहमत थे। मगर अलग-अलग राष्ट्रीयताओं की पहचान के आधार पर प्रदेशों के गठन के मसले पर उनमें आम राय नहीं बन पाई।

नेपाली कांग्रेस और एमाले की राय थी कि 27 मई को नया संविधान घोषित हो जाए और राष्ट्रीयता की पहचान के आधार पर राज्यों के गठन का काम चुनाव के बाद गठित होने वाली नई संसद के लिए छोड़ दिया जाए। सत्तारूढ़ माओवादी पार्टी, मधेसी पार्टियों तथा जनजाति सांसदों के समूह ने इसका तीखा विरोध किया, उनका तर्क था कि यदि एक बार यह मुद्दा रद्द हुआ, तो फिर वह लंबे समय के लिए टल जाएगा। शायद नेपाली कांग्रेस चाहती भी यही थी कि यह मुद्दा किसी तरह लंबे समय के लिए टाल दिया जाए। माओवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड से वार्ता के बाद वृहत मधेसी मोर्चे के प्रवक्ता और एक मधेसी पार्टी ‘मधेसी जनाधिकार फोरम’ के अध्यक्ष उपेन्द्र यादव ने घोषणा कर दी कि संघीय व्यवस्था के बिना नया संविधान नहीं बन सकता और पहचान पर आधारित राज्यों के बिना संघीय व्यवस्था नहीं हो सकती।
मधेसी पार्टियों, जनजाति समूह तथा माओवादी पार्टी ने चेतावनी दी कि संविधान सभा में मतदान के बाद ही संघीय व्यवस्था विहीन संविधान को लागू करने दिया जाएगा। मधेसी पार्टियों, जनजाति समूह तथा माओवादी पार्टी के खेमे तथा नेपाली कांग्रेस और एमाले खेमे के बीच इस गतिरोध के चलते प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टाराई ने संविधान सभा भंग करने तथा फिर से चुनाव कराने की सिफारिश राष्ट्रपति से की।

अब देश में नेपाली अस्मिता और ‘हम नेपाली’ के नारे बुलंद किए जा रहे हैं। नेपाली कांग्रेस और एमाले उन्हें परोक्ष तौर से समर्थन दे रहे हैं। दूसरी तरफ मधेसी और जनजाति समूह अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ने के लिए कमर कसे हुए हैं। उन्होंने साफ-साफ घोषित कर रखा है कि अगर मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था ही नेपाली अस्मिता है, तो वे इसे अब किसी भी हालत में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। तराई इलाके में पहले से ही मधेसी पार्टियां मधेस प्रदेश की मांग करती आ रही हैं। मधेसी पार्टियां एक लंबे अरसे से चीख-चीख कर कह रही हैं कि मधेस प्रदेश नहीं बना तो नेपाल भी नहीं बचेगा।

नेपाल में मधेस क्षेत्र यानी तराई इलाके की आबादी लगभग 52 प्रतिशत हो चुकी है। जनजाति के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे मल्ल के. सुंदर के मुताबिक नेपाल में जनजातियों, मधेसियों और पिछड़े वर्गों की संख्या लगभग 70 प्रतिशत है। नेपाल मूल राष्ट्रीयता संघ (नेफिन) के महासचिव आंग काजी शेरया के मुताबिक मूल राष्ट्रीय जनजातियों की आबादी 37.2 प्रतिशत है। नेफिन, मधेसी मोर्चे तथा माओवादी पार्टी का कहना है कि हर राष्ट्रीयता की पहचान स्वीकार की जाए और प्रदेशों के नाम राष्ट्रीयता के नाम पर हो, लेकिन नेपाली कांग्रेस और एमाले को यह बात मंजूर नहीं है। नेपाल में लगभग सभी पार्टियां अंदरूनी कलह और टूट की शिकार हैं। इस साल जून-महीने में ही सत्तारूढ़ माओवादी पार्टी टूट गई। पार्टी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष मोहन बैद्य ‘किरण’ और राम बहादुर थापा के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल माओवादी (सीपीएन-एम) गठित की गई है। यह पार्टी माओवादी पार्टी के अध्यक्ष प्रचंड और प्रधानमंत्री बाबूराम भट्टराई पर भारत से नजदीकी का आरोप लगा रही है। किरण ने संसदीय लोकतंत्र के खिलाफ विद्रोह का आव्हान करते हुए ‘न्यू पीपुल्स रिपब्लिक’ की स्थापना के लिए फिर से ‘जन विद्रोह’ शुरू करने की धमकी दी है। उन्होंने आरोप लगाया है कि भारत नेपाल में अतिक्रमण करता रहता है और नेपाल के आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक मामलों में दखल देता है। किरण के मुताबिक भारत नेपाल के राजनीतिक दलों को नियंत्रित कर रहा है तथा अपनी इच्छानुसार नेपाल में कठपुतली सरकार गठित करता और हटाता रहता है।

सत्तारूढ़ गठबंधन के दूसरे सबसे बड़े घटक ‘मधेसी पीपुल्स राइट्स फोरम’ (डेमोक्रेटिक) में भी फूट पड़ गई है। पार्टी के लगभग एक दर्जन नेताओं ने पार्टी प्रमुख और उप प्रधानमंत्री विजय कुमार गच्छदर पर तानाशाही पूर्ण रवैया अख्तियार करने का आरोप लगाते हुए पार्टी से त्यागपत्र दे दिया है। ऐसी संभावना है कि ये लोग पार्टी से निष्कासित असंतुष्ट नेता सरत सिंह भंडारी के साथ मिल जोंगे। भंडारी अलग पार्टी के गठन की घोषणा कर चुके हैं। 2008 के पहले ऐतिहासिक संविधान सभा में छह मधेसी पार्टियों ने प्रवेश किया था। अब टूट-फूट कर मधेसी पार्टियों की संख्या 18 हो चुकी है।

विपक्षी खेमे की पार्टियों नेपाली कांग्रेस और एमाले में भी अंदरूनी कलह जारी है। नेपाली कांग्रेस के अध्यक्ष सुशील कोइराला और पार्टी के वरिष्ठ नेता तथा पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देऊबा में तीखी प्रतिद्वंद्विता चलती रहती है। एमाले के कई नेताओं ने पार्टी नेतृत्व के खिलाफ विद्रोह का डंका पीटना शुरू कर दिया है। वे पार्टी द्वारा राष्ट्रीयता की पहचान के आधार पर राज्यों के गठन का विरोध किए जाने से नाराज हैं। जनजातीय और मधेसी समुदाय के कई नेता कभी भी एमाले छोड़ सकते हैं।

अब देखना है कि तीन करोड़ की आबादी वाले हमारे पड़ोसी देश नेपाल की राजनीति किस करवट बैठती है, वहां शांति रहेगी या उथल-पुथल का एक नया दौर शुरू होगा, यह सवाल भारत के लिए विशेष चिंता वाला है। एक बड़ा खतरा यह है कि कहीं उत्तर प्रदेश के गोरखपुर, देवरिया, बहराइच सीमा से लेकर तिब्बत की सीमा तक नेपाल में दर्जनों सशस्त्र विद्रोह न भड़क उठे और अशांति की लपटें देश को न घेर लें। नेपाल की समस्याओं के समाधान के लिए वहां के राजनीतिक दलों में बुनियादी मुद्दों पर सहमति के साथ-साथ अंतरराष्ट्रीय, मुख्य रूप से भारत, चीन और अमेरिका का रुख भी महत्वपूर्ण होगा। दक्षिण एशिया में अशांति और टकराव के नए केन्द्र के जन्म को रोकने के लिए नेपाल की अखंडता बेहद जरूरी है। इसके लिए आवश्यक है कि समस्त नेपाली जनता की आकांक्षाओं के अनुरूप संविधान बने। इस सिलसिले में नेपाल भारत के अनुभवों से काफी कुछ सीख सकता है। भारत ने आजादी के बाद 500 से अधिक रियासतों के पहचान की एक वृहत् समाविष्टि की। सर्वग्राही संविधान और गणतांत्रिक व्यवस्था का निर्माण किया। संविधान में नए-नए राज्यों के जन्म और आठवीं अनुसूची में नई-नई भाषाओं को स्थान देते रहने की गुंजाइश रखी।

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