सरस्वती-पुत्र पर लक्ष्मी-पुत्र आसक्त हुआ

जान डी. राकफेलर भूलोक का मानो कुबेर ही था। वे अमेरिकन तेल सम्राट थे। उन्होंने स्टण्डर्ड आईल कंपनी की स्थापना की। यह कंपनी अमेरिका की सबसे बड़ी तेल कंपनी थी। पेट्रोलियम उद्योग में जान डी. राकफेलर ने क्रांति कर दी। केरोसीन तथा गसोलिन का महत्व बढ़ने से जान ने विपुल धन कमाया था। इसलिए दुनिया में सबसे धनी व्यक्ति जैसा उनका जीवन यापन था। उनके द्वारा स्थापित किए गए फाउंडेशन वैद्यकीय अनुसंधान, शिक्षण और वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में बड़ा योगदान दिया है। जान राकफेलर शिकागो विद्यापीठ और राकफेलर विद्यापीठ के संस्थापक हैं। अपनी समृद्धि के लिए सदैव प्रयत्नरत रहे एवं अपना साम्राज्य यथावत रखने के लिए सभी प्रकार के दाँव-पेचों का उपयोग करनेवाले इस लक्ष्मीपुत्र को स्वामी विवेकानंद ने ही लोककल्याण के लिए धन का उपयोग करने की प्रेरणा दी है। स्वामीजी के तेजस्वी व्यक्तित्व के कारण राकफेलर की प्रवृत्ति में परिवर्तन आया। स्वामी विवेकानंद की जान डी. राकफेलर से पहली भेंट हुई उस प्रसंग के बारे में जान लीजिए-
शिकागो में स्वामीजी एक सदगृहस्थ के साथ रहते थे। गृहसज्जान जान डी. रॉकफेलर के व्यवसाय में भागीदार अथवा सहयोगी थे। जान ने अपने इस दोस्त के साथ रहनेवाले एक अनोखे हिंदू संन्यासी के बारे में बहुत कुछ सुना था। स्वामीजी से मिलने के लिए आने का निमंत्रण जान को कई बार दिया गया था, परंतु किसी न किसी बहाने उन्होंने नकार दिया था। उन दिनों जान वैभव के शिखर पर आरूढ़ नहीं हुए थे, फिर भी उनका व्यक्तित्व बड़ा प्रभावशाली था। किसी के कहने का उन पर ज्यादा असर नहीं होता था। हठी स्वभाव के थे इसलिए उनको सलाह देने की हिम्मत कोई करता नहीं था।

एक दिन स्वामीजी से भेंट करने के आकर्षण के कारण जान अपने मित्र के घर पहुंचे और दरवाजा खोलनेवाले बटलर को लगभग धकेलकर ही बोले, ‘‘मैं उस हिंदू संन्यासी से मिलने आया हूँ।’

बटलर उन्हें दीवानखाने में ले गया। वह स्वामीजी से कुछ कहता इससे पहले ही राकफेलर धड़ाके से उस कमरे में घुस पड़े जहाँ स्वामीजी आसनस्थ थे, परंतु आगंतुक कौन है यह देखने की स्वामीजी ने चेष्टा नहीं की।

कुछ समय बाद स्वामीजी ने उनको उनके पूर्वायुष्य के बारे में कुछ बातें बताईं। वे बाते जान के अलावा कोई जानता नहीं था। तब स्वामीजी ने जान से कहा, ‘आपने जो संपत्ति जमा की है, वह आपकी नहीं। वह ईश्वर की देन है। उसका सदुपयोग करने की जिम्मेदारी आपकी ही है। आप एक माध्यम हैं। भगवान की इच्छा है कि आपके माध्यम से कुछ परोपकार हो। आप धनवान हैं इसलिए भगवान ने दूसरों की मदद करने का मौका आपको दिया है।’’

यह सुनकर जान डी. राकफेलर आगबबूला हो गए। उनको क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए इसकी सलाह किसी ने नहीं दी थी। इसलिए स्वामीजी से विदा न लेते हुए वह गुस्से में निकल पड़े थे। एक सप्ताह के पश्चात वह इसी तरह अचानक स्वामीजी से मिलने आए। तब उन्होंने अपने साथ लाया हुआ कागज स्वामीजी के समक्ष मेज पर रख दिया। किसी सार्वजनिक संस्था को एक बड़ी रकम दान स्वरूप देने का उसमें उल्लेख था। ‘‘हो गया न आपका समाधान!’’ ऐसा पूछकर जान बोले, ‘‘आपको मेरे प्रति आभार प्रकट करना चाहिए।’’
स्वामीजी ने नजर ऊपर न उठाते हुए वह कागज हाथ में लेकर उस पर लिखा हुआ मजमून पढ़ा और शांति से कहा, ‘‘वास्तव में आपको ही मेरे प्रति आभार व्यक्त करना चाहिए।’’

जान विस्मित हुए। लोककल्याणार्थ उनकी दी हुई यही सबसे बड़ी देन थी।

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