साधु-संत कहते ही सांसारिक सुखों की ओर पीठ फेरकर पारलौकिक संसार में तल्लीन हुए महापुरुष ऐसा ही समझा जाता है। सांसारिक बातों से उनका कोई लेना-देना नहीं होता ऐसा माना जाता है, लेकिन स्वामी विवेकानंद का जीवन देखा तो ऐसा सोचना ही बड़ी गलतफहमी है, यह कहना पडेगा।
मातृभूमि के सर्वांगीण विकास की स्वामीजी को लगन थी। उनके संपर्क में आए सभी व्यक्तिओं को वह नजर आती थी। विदेश में जानेवाले स्वामीजी की मुलाकात जमशेदजी टाटा के साथ हुई। इस भेंटवार्ता में स्वामीजी के साथ उनकी जो चर्चा हुई उसका टाटा के मन पर गहरा असर हुआ। उसी संभाषण से एक संस्था का बीज उनके मन में बोया गया। वह संस्था याने बंगलूर की इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ सायन्स। 27 मई 2009 को इस संस्था के सौ साल पूर्ण हुए। आज यह संस्था विशाल वटवृक्ष में परिवर्तित हुई है।
1898 साल में टाटा ने स्वामी विवेकानंद को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने अपना मनोदय व्यक्त किया था कि भारत में विज्ञान विषय को समर्पित एक संस्था का निर्माण (गठन) करने का उनका मानस है और उसके लिए स्वामी विवेकानंद से प्रार्थना की थी कि इसके प्रचार के लिए स्वामीजी पहल करें। वह पत्र निम्नलिखित था।
23 नवम्बर 1898
एस्प्लेनेड हाऊस, मुंबई
प्रिय स्वामी विवेकानंद,
आप को याद होगा कि जापान से शिकागो तक हमने एकसाथ यात्रा की। उस समय आपने व्यक्त किए विचारों का मुझे विशेष रूप से स्मरण हो रहा है। आपने कहा था, ‘भारत में त्याग और तपस्या का पुनरूज्जीवन हो रहा है उसे नष्ट करना हमारा उद्देश्य नहीं है, बल्कि विविध मार्ग से उसका परिचालन करने की विशेष आवश्यकता है।’
आपके उन विचारों को स्मरण कर एक संशोधन संस्था स्थापित करने की दिशा में कार्य करने की मेरी इच्छा है। इसकी जानकारी आपको होगी अथवा आप ने उसके बारे में पढ़ा होगा। मुझे ऐसा लगता है कि ऐसे मठ, आश्रम और निवासस्थान स्थापित होने चाहिए जहाँ लोग मानवीय विज्ञान की चर्चा करने में अपनी जिंदगी बिताएंगे। त्याग भावना का इससे और अच्छा उपयोग करना असंभव है।
ऐसे आंदोलन का नेतृत्व अगर किसी योग्य नेता ने किया, तो धर्म और विज्ञान दोनों की प्रगति होगी और अपने देश की कीर्ति चारों दिशाओं में फैलेगी। इस आंदोलन का नेतृत्व विवेकानंद के सिवा कौन सकुशलता से निभाएगा? क्या आप ऐसा नेतृत्व कर राष्ट्रीय परंपरा में नवचैतन्य निर्माण करोगे? इस दिशा में जनजागृति होने के लिए पहले आप अपनी ओजस्वी भाषा में एक पुस्तिका लिखोगे, तो उसके प्रकाशन का सारा खर्च मैं खुशी-खुशी करने के लिए तैयार हूँ।
आपका विश्वासू
जमशेदजी एन. टाटा
अपरिग्रही स्वामीजी वह काम स्वीकार नहीं कर सकते थे, पर उनके साथ उनकी पूरी सहानुभूति थी। 1899 के जनवरी के अंतिम सप्ताह में टाटा के निकट के एक सहयोगी और सलाहकार बरजोरजी पादशहा स्वामीजी से मिलने बेलूर मठ में गए। उस मुलाकात के बाद स्वामीजी ने स्थापित किए ‘प्रबुद्ध भारत’ इस अंग्रेजी मासिक पत्रिका के अप्रैल 1899 के अंक में इस विषय पर एक संपादकीय प्रसिद्ध हुआ। स्वामीजी के कहने पर वह लेख भगिनी निवेदिता ने लिखा होगा। ‘‘श्री टाटा की योजना’’ इस शीर्षक के अंतर्गत लेख का निचोड़ निम्नलिखित था।
भारत को अगर जिंदा रहना है, अगर प्रगति (विकास) करनी है अथवा संसार के बड़े-बड़े राष्ट्रों की कतार में अपने आपको बिठाना है, तो पहले हमें अनाज की समस्या हल करनी होगी। आज के इस तीव्र स्पर्धा के युग में खेती और व्यापार इन दो मुख्य क्षेत्रों में आधुनिक विज्ञान का उपयोग करना ही एकमात्र उपाय इस समस्या को सुलझाने का है। आज मनुष्य के हाथ में नए-नए यंत्र आ रहे हैं ऐसी स्थितियों में अपने पुराने साधन और पुराने मार्ग टिक नहीं पाएँगे। जो लोग अपनी बुद्धि के सहारे कम से कम शक्ति का उपयोग कर प्राकृतिक साधन सामग्री का अधिक से अधिक उपयोग नहीं कर सकेंगे उनका विकास रुक जाएगा। उनके भाग्य में पतन और विनाश ही होगा। उनको इससे बचाने के लिए कौन सा भी उपाय नहीं है।
प्राकृतिक शक्ति संबंधी ज्ञान प्राप्त करने का भारतीयों का मार्ग और प्रशस्त करना यह टाटा की योजना का ढाँचा (रूप) है। यह योजना कार्यान्वित करने के लिए करीबन 74 लाख रुपए लगेंगे इसलिए कुछ लोगों को लगता है यह योजना एक कल्पनाविलास है। इसका जवाब यह है कि देश की सबसे धनवान न होनेवाले व्यक्ति श्री टाटा अगर 30 लाख रुपये दे सकते हैं, तो देश के अन्य सब मिलकर बचे हुए पैसे इकट्ठा नहीं कर सकते? इसलिए ऐसा सोचना गलत है। यह योजना कितनी महत्वपूर्ण है यह सभी को मालूम है।
हम फिर से कहना चाहते है कि आधुनिक भारत में, पूरे देश में ऐसी कल्याणकारी योजना आज तक देखने को नहीं मिली। अत: देश के सभी लोगों का कर्तव्य है कि जात-पात, संप्रदाय के आधीन होने की अपेक्षा यह योजना सफल बनाने के लिए सहकार्य करें।
इस विज्ञान यज्ञ के ऋषि विवेकानंद और ऋत्विज जमशेट जी टाटा की पुण्याई से यह संस्था शुरू हुई। बंगलोर की पश्चिम दिशा में पांच किलोमीटर दूरी पर स्थित यह संस्था आज भी संपूर्ण अग्नेय एशिया में इंजीनियरिंग और औद्योगिक शिक्षा देनेवाली और संशोधन करनेवाली एक प्रमुख संस्था है। इस संस्था की निर्मिती के लिए एक समिति बनाई गई, उसने लार्ड कर्झन को एक प्रस्ताव दिया। सर विल्यम रॅम्से ने इस संस्था के गठन के लिए बंगलूर को चुना। भूमि और अन्य सुविधाओं के लिए म्हैसूर के महाराजा श्री कृष्णराजा वोडियार और जमशेद जी टाटा ने दान दिया। 27 मई 1909 में स्थापित इस संस्था का संचालक पद विल्यम रॅम्से और सर चंद्रशेखर व्यंकट रामन जैसे नोबेल पारितोषिक विजेताओं को प्राप्त हुआ। इस संस्था के सबसे पहले अभियांत्रिकी विषय में मास्टर्स पदवी की शिक्षा प्रणाली शुरू हुई। कुछ वर्षो बाद जीवशास्त्र, रसायन, भौतिक और गणित आदि विषयों की डॉक्टरेट की शिक्षा भी शुरू की गई। इस संस्था ने भारत को महान अभियंता दिए हैं।